2002 में रिलीज़ हुई चर्चित फ़िल्म ‘द लेजेंड ऑफ़ भगत सिंह’ का यह दृश्य देखिए. दिल्ली बम ब्लास्ट केस में सजा काट रहे क्रांतिकारी भगत सिंह ने मियांवाली जेल में रहते हुए 15 जून 1929 के दिन अपनी भूख हड़ताल शुरू की थी. ऐसी भूख हड़ताल जिसे भगत सिंह के राजनीतिक जीवन का सबसे अहम पड़ाव माना जाता है, भूख हड़ताल जिसने देश भर में भगत सिंह की लोकप्रियता को महात्मा गांधी के समकक्ष ला दिया था, भूख हड़ताल जिसने पहली बार अंग्रेज़ी हुकूमत को क्रांतिकारियों के आगे घुटने टेकने पर मजबूर किया.
इस भूख हड़ताल को तुड़वाने के लिए अंग्रेज़ी शासन ने कई जतन किए. भगत सिंह और उनके साथियों को तरह-तरह की यातनाएँ दी गई. इस दौरान उनके एक साथी जितेंद्र दास वीर गति को प्राप्त हो गए लेकिन अंततः अंग्रेज़ी शासन को झुकना पड़ा और भगत सिंह की यह भूख हड़ताल हमेशा के लिए स्वतंत्रता आंदोलन का एक स्वर्णिम अध्याय बनकर इतिहास में दर्ज हो गई.
इस घटना के लगभग 15 साल बाद यानी 1944 में टिहरी रियासत में भी एक ऐसी ही ऐतिहासिक भूख हड़ताल हुई. भगत सिंह की तरह ही यहाँ भी एक नौजवान ने हुक्मरानों के अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की और 84 दिनों की अभूतपूर्व भूख हड़ताल के बाद अपने प्राणों की आहुति दे दी लेकिन सत्ताधीशों के आगे घुटने नहीं टेके. उस वक्त का शासन इतना क्रूर था कि शहादत के बाद इस क्रांतिकारी का शव तक उसके परिजनों को नहीं सौंपा गया. बल्कि जेल प्रशासन ने इसे एक कम्बल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना के संगम के तेज प्रवाह में फेंक दिया. लेकिन इस शहादत से पूरी टिहरी रियासत में विद्रोह की ऐसी आंधी उठी कि वहां एक सशस्त्र क्रांति हुई और राजसत्ता को जड़ से उखाड़ फेंका गया.
श्रीदेव सुमन नाम के इस वीर शहीद को याद करते हुए कवि मनोहरलाल उनियाल ‘श्रीमन’ ने लिखा है:
‘चौरासी दिन गए तुम्हारी,
अपने प्राणों की दृढ़ता को.
चौरासी युग याद करेंगे,
हत्यारे की निर्दयता को.
सना रहेगा सदा तुम्हारे,
शोणित से टिहरी का शासन.
बना रहेगा अमर तुम्हारा,
चौरासी दिन का वो अनशन.
गर्व लिए इतिहास करेगा,
कभी तुम्हारा वर्णन सादर.
वीर, तुम्हारे लिए हमारे,
कोटि-कोटि अभिनंदन सादर.’
ये कहानी शुरू होती है उस दौर से जब देश आज़ाद नहीं हुआ था. अवाम कहीं अंग्रेजों की तो कहीं राजाओं की ग़ुलामी करने को अभिशप्त थी. ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ी हुई ऐसी ही एक रियासत थी टिहरी. वो टिहरी रियासत जहां राजा को सिर्फ़ राजा ही नहीं बल्कि ‘बोलांदा बद्री’ कहा जाता था. यानी साक्षात बोलते हुए बद्रीनाथ.
इसी टिहरी रियासत की बमुण्ड पट्टी के जौल गाँव में हरि राम बडोनी नाम के एक वैद्य रहा करते थे. 25 मई, 1916 के दिन वैद्य जी की पत्नी तारा देवी ने एक बेटे को जन्म दिया. आगे चलकर श्रीदेव सुमन नाम से विख्यात हुए इस बालक का नाम तब श्रीदत्त बडोनी रखा गया था. श्रीदत्त सिर्फ़ तीन साल के थे जब इस पूरे क्षेत्र में हैज़ा फैल गया. उस दौर में ये एक ऐसी महामारी हुआ करती थी कि गांव के गांव इसकी चपेट में आने से तबाह हो जाते. मौत का ऐसा तांडव होता था कि लाशों को जलाने के लिए लकड़ियाँ कम पड़ जाती थी. हैज़े की चपेट में आए गांवों के लोग अगर अपने गांव से निकलना भी चाहते तो किसी भी अन्य गांव में उन्हें शरण नहीं मिलती क्योंकि सभी को उनके संक्रमित होने का खतरा रहता था. हैज़ा-ग्रस्त इलाके के लोगों को एक तरह से अछूत मान लिया जाता था. लेकिन श्रीदत्त के पिता हरि राम बडोनी चूँकि एक वैद्य थे लिहाज़ा उन्होंने अपना धर्म निभाया. अपनी जान की परवाह किए बिना वो दिन-रात मरीजों की सेवा में जुटे रहे. नजाने कितने लोगों को उन्होंने मौत के मुंह से निकाल लिया लेकिन ऐसा करते हुए वो ख़ुद इस महामारी चपेट में आ गए और मात्र 36 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.
महज़ तीन साल के श्रीदेव सुमन के सिर से पिता का साया उठ चुका था. लेकिन उनकी मां ने उनकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं आने दी. श्रीदेव की शुरुआती शिक्षा चंबाखाल में हुई और साल 1931 में उन्होंने टिहरी से मिडिल पास किया. लगभग इसी दौर का उनसे जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा इतिहास की कुछ किताबों और फ़तेसिंह रावत के काव्य-खंड में मिलता है. ये क़िस्सा तब का है जब देव सुमन की उम्र 14 साल थी और देश भर में महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह का ज़बरदस्त असर था. देव सुमन किसी काम से देहरादून आए तो उन्होंने सत्याग्रहियों को पूरे जोश से नारे लगाते और नमक सत्याग्रह में हिस्सा लेते देखा. इनसे वे इतना प्रभावित हुए कि ख़ुद भी सत्याग्रहियों के जत्थे में शामिल हो गए और 15 दिनों के लिए जेल भेज दिए गए. 14 साल के देव सुमन की राजनीतिक चेतना ने यहीं से आकार लेना शुरू किया. फ़तेसिंह रावत के काव्य-खंड में इस घटना का जिक्र कुछ यूं मिलता है:
नमक आन्दोलन शुरू हुआ, जोर शोर से देहरादून में,
ये जुलुस में शामिल हो गये, देश प्रेम जो रमा खून में.
पुलिस इन्हें भी पकड़ ले गई, 14 की थी उम्र सुमन की,
नेताओं के साथ सुमन को, जेल हो गई 15 दिन की.
पहली थी ये जेल सुमन को, नमन करें श्रीदेव सुमन को.
जेल से लौटने के बाद बहुत छोटी उम्र में ही देव सुमन ने देहरादून के नैशनल हिंदू स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. लेकिन यहाँ वे ज़्यादा समय नहीं रहे. अपनी आगे की पढ़ाई उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से की जहां उन्होंने ‘रत्न’, ‘भूषण’ और ‘प्रभाकर’ परीक्षाएँ पास की. इसके साथ ही उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन की ‘विशारद’ और ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षाएँ भी पास की. ये वो समय भी था जब श्रीदेव सुमन न सिर्फ़ अपनी साहित्यिक प्रतिभा को माँझ रहे थे बल्कि उनमें सामाजिक सरोकार और राजनीतिक चेतना का भी विस्तार हो रहा था. साल 1937 में उनका पहला काव्य-संग्रह ‘सुमन सौरभ’ प्रकाशित हो चुका था, वे दिल्ली में देवनागरी महाविद्यालय की स्थापना और ‘गढ़-देश सेवा संघ’ का गठन भी कर चुके थे जो आगे चलकर ‘हिमलाय सेवा संघ’ के नाम से जाना गया. इसके साथ ही श्रीदेव सुमन ने ‘हिंदू’ और ‘धर्म राज्य’ जैसे अख़बारों में भी काम किया.
गढ़वाल की एकता को लेकर श्रीदेव सुमन हमेशा समर्पित रहे. उन्हें ये बात बहुत चुभती थी कि गंगा के आर-पार के लोगों में वैसी एकता का भाव नहीं है जैसा एक राज्य के लोगों में होना चाहिए. इसी से जुड़ा उनका एक कथन है जो अब अक्सर उत्तराखंड की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी पूछा जाता है. उन्होंने कहा था, ‘यदि गंगा हमारी माता होकर भी हमें आपस में मिलाने के बजाए दो हिस्सों में बांटती है तो हम गंगा को भी पाट देंगे.’
साल 1938 में जवाहर लाल नेहरू जब अपनी बहन विजय लक्ष्मी पंडित के साथ एक अधिवेशन में शामिल होने पौड़ी पहुंचे तो श्रीदेव सुमन ने उनसे भी गढ़वाल की समस्याओं का जिक्र करते हुए पौड़ी और टिहरी गढ़वाल की एकता की बात कही. कुछ ऐसी ही बातचीत उनकी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली से भी हुई जब वे वर्धा के आश्रम में उनसे मिले. इस मुलाक़ात का विस्तृत वर्णन राहुल सांकृत्यायन की लिखी किताब ‘वीर चंद्र सिंह गढ़वाली’ में मिलता है. इस किताब में चंद्र सिंह गढ़वाली के हवाले से लिखा गया है, ‘जून का महीना था. सुमन अचानक सेवाग्राम, वर्धा में दिखाई दिए. मेरे लिए एक अनुपम भेंट थी, क्योंकि मैं वर्षों से गढ़वाल से बिछड़ा हुआ था और हूं. गढ़वाल के एक अनुभवी कार्यशील नवयुवक से भेंट हो जाना मेरे लिए कम खुशी की बात न थी. पूछा – ‘बन्धु ! सेवाग्राम – यात्रा का कारण?’ जवाब मिला – ‘एक तो सेवाग्राम संसार का राजनीतिक तीर्थ स्थान है, पूज्य बापू के दर्शन, दूसरे हम गढ़वालियों के आप जैसे एक बूढ़े सैनिक से भेंट करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है. आपसे मिलने की इच्छा तो बहुत दिनों से थी, मगर मेरी आर्थिक स्थिति मेरे लिए बाधक थी. अबकी बार दिल्ली के कुछ मित्रों ने मदद की तब जाकर मैं आपके पास आ सका. मैं हिमालय – राज्य प्रजामण्डल का प्रधान हूं. इसी के सिलसिले में मेरी इच्छा है, कि मैं पूज्य बापू से भी भेंट करके गढ़वाल-राज्य प्रजा-परिषद् के लिए आशीर्वाद ले लूं.’
मैंने सुमन को पूज्य महात्मा गांधी के पास ले जाकर परिचय कराया. सुमन और बापू जी की 15 मिनट तक बातें हुई. बातचीत समाप्त हो जाने के बाद वे प्रफुल्लित होकर मेरी झोपड़ी में आए. बोले – ‘जो मेरी इच्छा थी, आज बापू ने पूरी कर दी, क्योंकि बापू ने गढ़वाल के विषय में जो मेरी तजबीज थी, उसे मंजूर कर लिया और आशीर्वाद दिया कि मैं सत्य और अहिंसा के द्वारा टिहरी राज्य में प्रजा की सेवा करूं. मेरे लिए जीवन-मरण का सवाल है, क्योंकि टिहरी की जनता बेहद दुखी है.’
मैंने श्रीदेव सुमन से गढ़वाल के गंगावार, गंगापार की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विषयों पर बहुत-सी बातें पूछीं. उन्होंने गढ़वाल के विषय में मुझको अच्छी तरह अवगत कराया. उनको गढ़वाल की जनता से अपार प्रेम था. मुझे उन्होंने अपनी वाक्-शक्ति और तर्क-वितर्कों से प्रभावित किया था. वह ऐसे ही असाधारण प्रतिभाशाली युवक थे.
श्रीदेव सुमन ने मुझसे पूछा – ‘आपने गढ़वाल के लिए क्या सोचा है? हम गढ़वाली आपसे बहुत आशा रखते हैं.’ मैंने जवाब दिया – ‘प्रिय बन्धु ! मन के अथाह सागर में जो बुदबुदे उठते हैं, वे सब उसी सागर में विलीन हो जाते हैं. हां, मनुष्य अथाह सागर के पार जाने के लिए मन-गढ़ंत पुल बांधा करता है. उसी प्रकार मैं भी सोचा करता हूं. क्या मेरी बातों को, जो मैं गढ़वाल के बारे में सोचता हूं, आप और गढ़वाल की जनता मंज़ूर करेंगे?’
“उचित होगी तो क्यों नहीं मंजूर करेंगे!”
इस पर चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपना सपना श्रीदेव सुमन को सुनाते हुए कहा, ‘मैं तो स्वतन्त्र भारत में स्वतन्त्र गढ़वाल की कल्पना करता हूं. जैसे कि भारत कितने ही स्वतन्त्र संघों का एक महासंघ होगा. उसी महासंघ के अन्तर्गत एक स्वतन्त्र गढ़वाल भी. मौजूदा गढ़वाल दो भागों में विभाजित है, जो कि हमारे लिए एक महाकलंक है. उस वक्त हम 10 लाख गढ़वालियों का एक ही संघ हो. हां, भौगोलिक दृष्टि से गंगावार और गंगापार का पर्यायवाची नाम रहे. आजकल हम दो भागों में बंटे हुए हैं. जैसे 6 लाख ब्रिटिश गढ़वाल की और 4 लाख टिहरी गढ़वाल की जनगणना है. उस समय स्वतन्त्र भारत में कोई राजा, कोई जमींदार, या पूंजीपति नहीं रहेगा. समाज श्रेणी-विहीन हो जाएगा.
आज जिस जमीन के ऊपर हम 10 लाख गढ़वाली भूख और महामारी के शिकार हो रहे हैं, उस समय इसी जमीन में हमारी एक करोड़ से भी ज्यादा गढ़वाली संतान अच्छी तरह सुख और स्वतन्त्रता-पूर्वक जीवन बिताएंगे. हमारी गढ़भूमि धन सम्पन्न है. हमारी भावी संतानें उसका उपभोग करेंगी.
हमारे गढ़वाल में ताँबा-लोहे की खाने हैं. नाना प्रकार की जड़ी बूटियाँ, औषधियाँ हैं. पत्थर, लकड़ी, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं. इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुंचा सकेंगे. हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जाएगा. हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे.
हमें स्वतन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा. हम 10 लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के 660 जिलों से भिन्न है.
आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर-गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इंतज़ार में बैठे नहीं रहना होगा. हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे. जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा. जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा. आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है. हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा. हमारी आज़ादी भी संसार की आज़ादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये.
वैसे तो डोला-पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है. इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है. मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा. शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा. इससे निस्तार तभी होगा, जबकि उनकी आर्थिक समस्यायें हल की जायें. इसके लिए निम्न बातों पर ध्यान देना होगा –
1. जमींदारी प्रथा खत्म कर बंजर और जंगलों की जमीन उनको देनी चाहिए.
2. नौकरियों में अनुपात के मुताबिक उनको जगह मिले.
3. उनकी पढ़ाई के लिये शिक्षा निःशुल्क हो.
4. असेम्बलियों में और काउन्सिलों में उनके लिये, अनुपात के मुताबिक सीटें दी जाएं.
5. उद्योगों में उनको प्रथम स्थान मिले.
सही और सच्चा अछूतोद्वार का रास्ता यही है.’
उत्तराखंड के इतिहास के दो बेहद अहम किरदार जिस दौर में ये आपसी संवाद कर रहे थे, उस दौर में देश भर की ही तरह टिहरी रियासत में भी आज़ादी की छटपटाहट अपने चरम पर पहुँचने लगी थी. रियासत के क़ानूनों से लोग तंग आ चुके थे, तिलाड़ी में भीषण नरसंहार हो चुका था, देहरादून में ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ की स्थापना हो चुकी थी और श्रीदेव सुमन इसके संयोजक नियुक्त हो चुके थे. हिमालयी रियासतों की समस्याओं को वे लगातार राष्ट्रीय स्तर पर भी उठा रहे थे. इसी क्रम में उन्होंने बनारस में ‘हिमलाय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद’ की स्थापना करते हुए ‘हिमांचल’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित करवाई और पूरी रियासत में इसे बँटवा दिया. यहीं से श्रीदेव सुमन रियासत की आंख की किरकिरी बनने लगे. उनके भाषण देने और सभाएँ करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. रियासत के अधिकारियों ने उन्हें सरकारी नौकरी का लालच भी दिया लेकिन जब किसी प्रलोभन से भी देव सुमन रियासत के झाँसे में नहीं आए तो उन्हें रियासत से ही निर्वासित कर दिया गया.
1942 में जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू हुआ तो टिहरी जाते हुए श्रीदेव सुमन को देवप्रयाग में गिरफ़्तार कर लिया गया. उन्हें पहले देहरादून और फिर आगरा जेल में 15 महीने क़ैद रखा गया. 19 नवंबर 1943 को वे आगरा जेल रिहा हुए लेकिन इसके तक़रीबन एक महीने बाद ही दोबारा गिरफ़्तार कर लिए गए. इस गिरफ़्तारी के बाद श्रीदेव सुमन को टिहरी जेल में बेहद नारकीय स्थिति में रखा गया. यहीं उन्होंने अपनी उस ऐतिहासिक भूख हड़ताल की भी श्रांत की जिसका जिक्र इस कार्यक्रम की शुरुआत में भी किया गया था. 3 मई 1944 के दिन शुरू हुई इस भूख हड़ताल को तुड़वाने के लिए रियासत ने श्रीदेव सुमन पर कई अत्याचार किए. उनकी गिरफ़्तारी से पूरी रियासत में आक्रोश फैला हुआ था और राजशाही इसीलिए कोई भी क़ीमत चुकाकर उनकी भूख हड़ताल तुड़वाना चाहती थी.
रियासत के नुमाइंदों ने पूरे इलाक़े में ये अफ़वाह भी फैला दी थी कि श्रीदेव सुमन ने अपना अनशन समाप्त कर लिया है और राजा के जन्मदिन यानी 4 अगस्त को उन्हें जेल से रिहा कर दिया जाएगा. चालबाज़ों की ये अफ़वाह जब प्रस्ताव के रूप में श्रीदेव सुमन तक पहुंची तो उनका कहना था, ‘क्या मैंने अपनी रिहाई के लिये यह कदम उठाया है?ऐसा मायाजाल डालकर आप मुझे विचलित नहीं कर सकते. अगर प्रजा मण्डल को रजिस्टर्ड किए बिना मुझे रिहा कर दिया गया तो मैं फिर भी अपना अनशन जारी रखूंगा.’
अपनी बात पर अडिग श्रीदेव सुमन ने अपना अनशन लगातार जारी रखा. उनकी देह उनका साथ छोड़ रही थी लेकिन उनके इरादे हार मानने को क़तई तैयार नहीं थे. जेल प्रशासन ने उन्हें प्रताड़नाएं देने के हर तरीक़े अपनाए और इंट्रावेनस इंजेक्शंज़ के ज़रिए उन्हें ऐसे केमिकल्ज़ दिए गए कि उनकी शारीरिक स्थिति बेहद ख़राब होती चली गई. 20 जुलाई आते-आते उनका शरीर इतना कमजोर हो चुका था कि वो बेहोशी की स्थिति में पहुंच गए थे. उनकी भूख हड़ताल को अब तक क़रीब 80 दिन हो चुके थे. आख़िरकार 25 जुलाई के दिन उनके शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया और इस सेनानी ने अपने आदर्शों के लिए अपने प्रणों की आहुति दे दी. टिहरी रियासत के शासक इतने क्रूर थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में श्रीदेव सुमन के शव को एक कंबल में लपेटकर भागीरथी और भिलंगना के संगम में फेंक दिया.
श्रीदेव सुमन शहीद हो गए लेकिन उनकी शहादत ज़ाया नहीं हुई. उनकी मौत की खबर से ऐसा आक्रोश उठा कि राजसत्ता के ख़िलाफ़ खुला विद्रोह छिड़ गया और अंततः एक सफल क्रांति के बाद टिहरी रियासत आज़ाद हुई.
श्रीदेव सुमन की याद में नई टिहरी के जेल परिसर के पास एक स्मारक भी बनाया गया है जहां रखी बेड़ियाँ आज भी उनके बलिदान की गवाही देती हैं. श्रीदेव सुमन का नाम आज कई गीतों, कविताओं, काव्य-खंडों और लोक गीतों तक में इस कदर समा चुका है कि वो हमेशा के लिए अमर हो गए हैं.
जाते-जाते आपको एक ऐसा ही लोकगीत सुनाते हैं लेकिन उससे पहले ये जरूरी सूचना कि बारामासा को अगर आपने अब तक सब्स्क्राइब नहीं किया है तो हमारे यूट्यूब चैनल को सब्स्क्राइब कर लीजिए, फ़ेसबुक पेज को लाइक कर लीजिए. हमारे कार्यक्रम अगर आपको पसंद आ रहे हैं तो हमारी मदद भी कीजिए. इसके लिए आप हमारी वेबसाइट बारामासा डॉट इन पर जाकर कोई भी सब्स्क्रिप्शन प्लान चुन सकते हैं और हमें समर्थन दे सकते हैं ताकि हम लाते रहे पहाड़ों से जुड़ी सभी जिज्ञासाओं की ख़ुराक, बारामासा.
स्क्रिप्ट: राहुल कोटियाल.
संदर्भ: (किताब) वीर चंद्र सिंह गढ़वाली: राहुल सांकृत्यायन
चारु तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
महिपाल नेगी, वरिष्ठ पत्रकार
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