पहाड़ों की सांझ. सुन्दर, मोहक. अपनी ओर खींचती. कुछ बताती-कुछ दिखाती. अपनी दिन भर की यात्रा पूरी कर सूरज भी अब विदाई ले रहा है. सांझ ढलने के साथ-साथ पहाड़ के डानै-कानौ में एक रक्तिम लालिमा छाने लगी है. बाखलियां-ख्वाल बच्चों के शोर से चहक रही हैं. गौधूलि के साथ बण से गाय-बछियों के झुंड मधुर घंटियों की आवाज के साथ अपने-अपने छानों की ओर बढ़ रहे हैं. दिनभर खेत में काम करने के बाद महिलाएं भी गांव की सरहद तक पहुंच चुकी हैं. बछड़ों के रम्भाने से गायों और दुधमुंहे बच्चों की किलकारी से मांओं के कदम तेज हो गए हैं.
आदमी भी अपने काम-धंधे से निपट कर घर के पास पहुंच चुके हैं. घर-छानियों से हल्का-हल्का धुआं उठने लगा है. कई घरों में सब्जी के छौंक से वातावरण महक रहा है. एक ऐसी रुमुक, ऐसी सांझ जो हर रोज ऐसे ही ढलती है. कई उम्मीदों और कई सपनों के साथ. सब लोग इस शाम के साथ कुछ देर सुस्ताना चाहते हैं. अपने आंगन में, अपनी बाखली-ख्वाल में सुकून के साथ.
मनोरंजन के आधुनिक साधन अभी गांव तक पहुंचे नहीं हैं. रेडियो ने भी अपनी आवाज गांवों तक पहुंचाना बस शुरू ही किया है. कुछ घरों तक रेडियो पहुंच चुका है. कम से कम हर बाखली-ख्वाल में एक तो आ ही गया है. इसी सांझ के साथ लोगों को इंतजार है कुमाउनी-गढ़वाली लोकगीतों का. आंगनों में बच्चों को दूध पिलाती ईजा-ब्वोई और हल्के-फुल्के अंदाज में बैठे लोगों के लिए आकाशवाणी के ‘शॉर्ट वेव 61.48 यानी 4480 किलोहर्टस पर रोज शाम सुदूर पर्वतीय अंचल के श्रोता ठीक 5 बजकर 45 मिनट पर सुनते थे दो सुपरिचित आवाजें – ‘उत्तरायण’ क श्रोताओं की सेवा मा वीर सिंह और शिवानंद को नमस्कार.’
‘भुला शिवानंद!’
‘अं दद्दा वीर सिंह!’
दद्दा वीर सिंह यानी जीत जरधारी और भुला शिवानंद हुए बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’. उत्तरायण की विख्यात जोड़ी. अब न दद्दा वीर सिंह रहे और न शिवानंद, लेकिन उन्होंने ‘उत्तरायण’ से जिस तरह पहाड़ी गीतों को लोगों तक पहुंचाया वह आज भी हमारे बीच जिन्दा हैं.
उन दिनों एक गीत बजता था, जिसे सुनने के लिए लोग अपना सारा काम-धाम छोड़ दिया करते थे. सबसे ज्यादा सुना जाने वाला फरमाइशी गीत. शिवानंद और वीर सिंह के संबोधन के बाद एक सुमधुर आवाज सुनाई देती –
‘छाना-बिलौरी, झन दिया बौज्यू लागला बिलौरी का घामा.’
सब लोग उस आवाज की ओर खिंचे जाते हैं. बच्चे अपना खेल छोड़कर रेडियो के नज़दीक आ गए हैं. महिलाएं अपने गोठ या छाने से कान लगाकर इस गीत को सुनने लगी हैं. पुरुष बड़ी तन्मयता के साथ गीत से जुड़ गए हैं. सुप्रसिद्ध गायिका बीना तिवारी जब इस गीत को गा रही होती तो पहाड़ की व्यथा, उसके संर्घष, संवेदनाएं और सभी के दर्द इसमें समाहित हो जाते. इस गीत ने साठ-सत्तर के दशक में अपने कथ्य, प्रतीक और बिम्बों से पहाड़ की महिलाओं के दर्द का ऐसा चित्र उकेरा जो आज के इस तथाकथित प्रगति के युग तक लोगों को अपनी ओर खींचता है. इस गीत में प्रतीकात्मक रूप से भले ही छाना-बिलौरी गांवों का जिक्र आया हो, लेकिन यह गीत एक तरह से श्रम-शील पहाड़ी महिलाओं के कष्टों का प्रतिनिधि गीत है. छाना-बिलौरी से लेकर अब यह गीत कई माध्यमों से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाया-सुना जा रहा है. समय के साथ इसके सुर-साज बदल गए हैं. इसकी यात्रा भी काफी लंबी हो गई है. अब यह बाखलियों से निकलकर बड़े सभागारों में पहुंच गया है और गीत-संगीत के नए प्रयोगों के साथ दुनिया के कई हिस्सों में दस्तक दे रहा है. लेकिन बड़ी बात यह है कि इस गीत का भाव नहीं बदला, मर्म नहीं बदला. उसी तरह जैसे सब कुछ बदलने के बाद भी पहाड़ के कष्ट कम नहीं हुए हैं. पहाड़ का हर गांव छाना-बिलौरी है. तब भी था और आज भी है. छाना-बिलौरी किसी गांव के पिछड़ेपन का गीत नहीं है, बल्कि यह पहाड़ की महिलाओं के कष्टों का दस्तावेज है, जिसमें पहाड़ की हर महिला की व्यथा दर्ज है.
सुप्रसिद्ध गीत ‘छाना-बिलौरी’ को सबसे पहले आकाशवाणी में अपने मधुर कंठ से बीना तिवारी ने 1963 में गाया. जब वह इस गीत को बहुत गहरे तक डूब कर गाती तो पहाड़ के कष्टों की पूरी कहानी फूट पड़ती. इस गीत की विषयवस्तु पहाड़ के गावों में महिलाओं के कष्टमय जीवन पर केन्द्रित है.
इस गीत में एक लड़की अपने पिता से कहती है कि मुझे ‘छाना-बिलौरी’ मत ब्याहना. वह इस गीत में वहां के कष्टों को बताती है. उसका कहना है कि वहां इतना घाम यानी तेज धूप और गर्मी होती है कि वो खेत में काम करते हुए मर सकती है. वो कहती है कि मेरे हाथ की दराती या कुटली हाथ में ही रह जाएगी और घाम में मेरे प्राण निकल जाएँग.
यह गीत हर कालखंडमें जितना लोकप्रिय रहा इसकी विषयवस्तु को जानने में भी लोगों की उतनी ही रुचि रही है. लोगों में हमेशा से यह जानने की उत्सुकता रही है कि आखिर ‘छाना-बिलौरी’ है कहां? क्या वास्तव में इस गीत में जो कुछ कहा गया है, वैसा ही है ये गांव?
जब इन सवालों के जवाब ढूंढे जाते हैं तो उसमें कुल मिलाकर यही समझ आता है कि ‘छाना-बिलौरी’ तो ऐसा गांव नहीं है जैसा इस गीत में जिक्र मिलता है. चलिए पहले ‘छाना-बिलौरी’ गांवों के बारे में ही जान लेते हैं. ‘छाना-बिलौरी’ बागेश्वर जनपद में स्थित दो पड़ोसी गांव हैं. ये गांव अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग पर झिरोली में मैग्नेसाइट से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं. लोग बताते हैं कि ये गांव इतने गरम भी नहीं है कि इनके बारे में गीत ही बन जाये. कुमाऊं क्षेत्र में बहुत सारी घाटियां तो इससे कहीं ज़्यादा गरम हैं.
‘छाना-बिलौरी’ के बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इस गांव में एक ऐसे गांव की लड़की ब्याह कर आई जो अपेक्षाकृत ठंडे क्षेत्र की थी. उसकी अपनी सास के साथ नहीं पटी. उसने अपने मायके वालों को गलत तरीके से वहां की दिक्कतों के बारे में बताया. वह फिर वापस अपने ससुराल नहीं गई. फिर उसकी बातों पर ही किसी ने यह गीत रच दिया. बाद में बांसुरी वादक प्रताप सिंह और सुप्रसिद्ध लोक गायक मोहन सिंह रीठागाड़ी के गाने से इस गीत को लोकप्रियता मिली. जब आकाशवाणी से पहली बार बीना तिवारी ने इस गीत को गाया तो इसका फलक बढ़ता चला गया. बीना तिवारी की आवाज में जो कसक और वेदना थी उसने इस गीत को जीवन्तता प्रदान कर दी. यह गीत पिछले सात-आठ दशकों से लोगों में अपनी छाप छोड़ता रहा है और आज भी नए रूप में प्रासंगिक बना हुआ है.
‘झन दिया बौज्यू छाना-बिलौरी’ गीत को किसी गांव की अच्छाई-बुराई की दृष्टि से देखना न्यायसंगत नहीं है. लोकगीतों में इस तरह की प्रतिध्वनियां प्रस्फुटित होती रहती हैं. लोक के किसी विषय को उठाकर उसमें उन तमाम संदर्भों को शामिल करने की प्रवृत्ति लोकगीतों में रहती है, जिससे आम जन सीधे प्रभावित होता है. इस तरह के बिम्ब कई बार गीतों में संदर्भवश आते हैं. उसमें स्थान, व्यक्ति, परिवेश कुछ भी हो सकता है. ‘छाना-बिलौरी’ गीत के साथ भी यही हुआ है. बल्कि यही एकमात्र गांव नहीं हैं, जिसका जिक्र किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया गया हो. इससे पहले और बाद में भी बहुत सारे ऐसे गीत आते रहे हैं, जिनमें इस तरह के गांवों या व्यक्तियों का जिक्र आया है. बहुत सारे खुदेड़ और न्यौली गीत हैं जो लोक के मर्म को आवाज दे चुके हैं.
आकाशवाणी से बहुत पहले एक गीत प्रसारित होता रहा है. नेपाल और कुमाऊं में तो ये लोकगीत बहुत प्रचलित रहा है जो कि ‘झन दिया बौज्यू’ से भी पुराना है. इस गीत की रिकार्डिंग तो उपलब्ध नहीं हो पाई, लेकिन हल्द्वानी में चार्टर एकाउंटेंट और लोक विधाओं में गहरी दिलचस्पी रखने वाले सरोज आनंद जोशी ने इसकी जो धुन और बोल बताए, वो कुछ यूं हैं:
‘‘मैं किलै बेवायूं बाज्यू झुमला देशा।
खान खिन रोटवा ले नाथी,
पैरन खिन कपड़ा नाथी।
मैं भुखी मरुलो ईजू झुमला देशा।’’
इस गीत की नायिका ने तो अपने कष्टों को बेहद गहराई से व्यक्त करते हुए कष्टों का ऐसा बिम्ब खींचा है कि उसका ‘घाम’ भी ‘काला’ है, जिसमें झुलसकर वह मर जाएगी. वो कहती है:
झुमला देश को ऊंचा डांडा,
काल घाम बादिन का गाड़ा।
मैं झुरी मरूलो ईजू झुमला देशा।।
गढ़वाल में भी इस तरह के कई गीत लोक में प्रचलित रहे हैं, जिनमें महिलाओं के इस तरह के दर्द समाहित हैं. इसे एक बहुत पुराने लोकगीत से समझा जा सकता है, जिसके बोल हैं,
‘‘खै जाली मां जि डाल्यूं कि बैरी,
कन किस्मत रै होलि मेरी।’’
गढ़वाल के आदि गायक बद्दियों के इस गीत में पहाड़ की महिलाओं के कष्टों को बहुत संवेदनाओं के साथ शामिल किया है. जैसे: (Udita singing)
‘‘कै खुणै बाबा जिल मिडिल पढ़ाई,
कै खुणै बाबा जिल राठ बिवाई।’’
इस लोकगीत में क्षेत्र विशेष का भी जिक्र आता है जब लड़की कहती है कि उसकी शादी राठ क्षेत्र में न करवाई जाए. वो कहती है (Udita singing)
‘‘मिन त बाबा अब राठ नी जाण,
बांजा डालि हुंद फांस खांण।’’
‘झन दिया बौज्यू’ गीत में छाना-बिलौरी’ या गढ़वाल के लोकगीत में ‘राठ’ क्षेत्र का नाम आने से न तो किसी की बदनामी है और न ही इससे महिलाओं के कष्ट कम होने वाले हैं. दरअसल, लोकगीत किसी समय, इतिहास और परिवेश को समझने के सबसे बड़े संदर्भ होते हैं. उन गीतों को सिर्फ इसलिए बदल देना अन्याय है कि उसमें किसी स्थान विशेष का नाम आ गया है. ‘छाना-बिलौरी’ के साथ भी यही हुआ या हो रहा है.
कई स्थापित गायकों ने तो इसके बोल ही बदल दिए और कुछ ने बहुत गलत तरीके से इसका प्रस्तुतीकरण किया. यह अचंभित करने वाला है कि सुप्रसिद्ध कुमाउनी गायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने सबसे पहले इस गीत को बदलकर इसके औचित्य पर ही सवाल उठा दिया. उन्होंने लोकगीतों की प्रकृति के खिलाफ जाकर गीत की व्यापकता को समझने की बजाए उसे इन दो गांवों की तौहीन के रूप में देखा. इसे इस तरह से प्रचारित किया गया कि जैसे किसी ने पहाड़ की महिलाओं के दर्द को उठाकर बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो.
कुमाऊनी गायिका माया उपाध्याय ने भी इस गीत को अपनी तरह से गाया है. इससे पहले उन्होंने पहले ‘ओ भिना कसिकै जानूं द्वारहाटा’ गीत को भी कुछ इस अंदाज़ में गाया था जिसे लोकगीतों की समझ रखने वाले अधिकतर लोगों ने बहुत हल्का माना.
लोक गीतों के ऐसे संदर्भ-रहित प्रस्तुतीकरण से भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पौड़ी जनपद के ‘राठ’ क्षेत्र को लेकर बने एक लोकगीत पर तो वहां के लोग इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने उसकी गायिका संगीता ढौंडियाल के खिलाफ अभियान चला दिया. इसके बाद उन्हें न केवल माफी मांगनी पड़ी, बल्कि उस गीत को भी हटाना पड़ा.
‘छाना-बिलौरी’ गीत के इतने सारे संदर्भ, इतनी सारी व्याख्याओं और समझ के बाद भी इस गीत की लोकप्रियता और प्रासंगिकता में आज तक कोई फर्क नहीं पड़ा. यह लोक की ताकत और अभिव्यक्ति के माध्यम की ताकत का सबूत है. ‘झन दिया बौज्यू छाना बिलौरी’ आकाशवाणी से बीना तिवारी ने 1963 में पहली बार ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में गाया था. इस गीत की यात्रा इसलिए भी बहुत मायने रखती है कि साठ के दशक में जब आकाशवाणी से पहाड़ी गीतों के लिए कार्यक्रम बन रहे थे तो यह गीत उस इतिहास के निर्माण का न केवल साक्षी रहा है, बल्कि उसने हमारी लोकगीत यात्रा को बड़ा फलक दिया.
जब आकाशवाणी से पहाड़ी गीतों के कार्यक्रम बनने लगे तो बहुत सारे गीतों और लोक गायकों से लोगों का परिचय हुआ. उस दौर के गीतों को सुनकर एक पीढ़ी बड़ी हुई. इन गीतों और गायकों को बड़ा मंच प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही ‘उत्तरायण’, ‘गिरि गुंजन’, और ‘फौजियों के लिए’ कार्यक्रमों की.
‘उत्तरायण’ कार्यक्रम हालांकि 1962 में कमलेश शर्मा ‘कमल’ और जरदारी जी शुरू कर चुके थे, लेकिन 1963 से जिज्ञासु जी और जरदारी की जोड़ी ने इसे ऊंचाइयां प्रदान की. इसी कार्यक्रम से शुरू हुई इस गीत की यात्रा अब एक विशुद्ध लोक गायन शैली से कई रूपों में हमारे सामने है. उसका रूप भले कई बार बदला नजर आता है, लेकिन उस गीत की आत्मा अभी उसी तरह से बची है. उस महिला की पीड़ा की तरह जो अपने कष्टों से मुक्ति के लिए अपनी आवाज उठाती है.
‘झन दिया बौज्यू छाना-बिलौरी’ की धुन भी इतनी कर्णप्रिय रही है कि इसे कई बड़ी जगहों पर सम्मान मिला है. कुमाऊं रेजीमेंट ने भी इसे अपनी परेड की धुन में इस्तेमाल किया है और गणतंत्र दिवस पर राजपथ में भी इस पर परेड हुई है.
इस गीत ने अब देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी धमक के साथ विदेशों में भी दस्तक दी है. असम निवासी और हिन्दी फिल्मों में अपनी आवाज देने वाले सुप्रसिद्ध युवा गायक पापोन ने देश-विदेश के कई बड़े मंचों से इस गीत को अपने ही अंदाज में गाया है.
नई पीढ़ी भी गीत-संगीत में जो भी नए प्रयोग कर रही है, उसमें ‘छाना-बिलोरी झन दिया बौज्यू’ गीत को प्रमुखता मिलती रही है. फ्यूजन के इस युग में इस गीत को नई पीढ़ी ने अपने अंदाज में कई रंगों से भर दिया है. चर्चित बैंड पांडवाज़ ने जब इस गीत को अपने अंदाज़ में गाया तो नई पीढ़ी के लिए जैसे ये गीत एक बार दोबारा जी उठा.
एक तरह से अपनी यात्रा की शुरुआत में जिस गीत के लिए आकाशवाणी पहला पड़ाव था, वह यात्रा भले ही लंबी हो गई हो, लेकिन वह इतनी विस्तारित है कि ‘छाना-बिलौरी’ को नए संदर्भों में समझ सकती है. बस उसके लिए एक लोक अभिव्यक्ति को समझने की दृष्टि चाहिए.
फिलहाल, ‘छाना-बिलौरी झन दिया बौज्यू’ गीत को सुनने के लिए भले ही गांव की बाखलियां-ख्वाल अब उस तरह से किसी रुमुक-सांझ का इंतजार न करती हों. गांवों में विस्तारित संचार माध्यमों की वजह से अब आकाशवाणी के ‘शॉर्ट वेव 61.48 यानी 4480 किलोहर्टस के लिए बैंड न बदलना पड़े. उसके प्रस्तुतीकरण के लिए हमारे पास दद्दा वीर सिंह यानी जीत जरधारी और भुला शिवानंद यानी बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ न हों, लेकिन इस गीत को अपनी मधुर आवाज देने वाली बीना तिवारी जी हैं. और हमारे पास है लोक की समृद्धि की वह विरासत जो जिन्दा रखती है लोक की सामूहिक अभिव्यक्ति को. अपने कष्टों को व्यक्त करने वाले इस कालजयी गीत की जरूरत अभी समाप्त नहीं हुई है. दर्दों से लिपटी उस महिला के कष्ट आज भी हमें प्रसव पीड़ा से कराहते हुए सड़क पर मरती महिलाओं के रूप में और भी भयावह रूप से दिखाई दे रहे हैं. इसलिए अगर प्रतीकों में किसी का नाम आ जाए तो वह उतना अपमानजनक नहीं है, जितना कि अपनी व्यथा को कहने के लिए निकले लोक स्वरों को दबाना. इसीलिए ये गीत हमेशा यूं ही गाया जाता रहेगा.
स्क्रिप्ट : चारु तिवारी