घुघुती की कहानी : उत्तराखंड की चर्चित लोक कथा

  • 2023
  • 9:06

उत्तराखंड की सबसे चर्चित लोक कथा – घुघूती बासूती.. भै भूखू, मैं सूती. 

गाँव में ढोल दमाऊ बज रहे थे. एक तरफ औरतें दाल पीस रही थीं, तो वहीं दूसरी तरफ आदमी चुल्हे के लिए लकड़ी काट रहे थे. शादी का घर था. और रह-रह कर चैतू, अरसे और रोटने चखने के लिए इधर-ऊधर भटक रहा था. कि तभी उसकी माँ ने उसे आवाज़ देकर कहा, चैतू, जा मथी देखी औ त, घुघूती तैयार ह्वे की नी ह्वे.  माँ की आदेश मान कर वह तुरंत अपनी दीदी यानी घुघूती को देखने जाता है. घुघूती, सुंदर सी पीली साड़ी में सज-धज कर बैठी थी. हल्दी से उसका चेहरा और हाथ-पैर सुनहरे दिख रहे थे. आस-पास सहेलियां हंसी-ठिठोली कर रही थी. तभी वहां चैतू आ जाता है और कहता है, दीदी चल, माँ बुला रही है. शायद हम दोनों को अरसे खाने के लिए बुलाया है, पल्ली चौक वाली बौडी ने तो दाल के पकोड़े तलने भी शुरू कर दिए. जल्दी चल वरना सब ठंडे हो जाएंगे. इतने में घुघूती की एक सहेली, चैतू को चिढ़ाते हुए बोलने लगती है. ऐ चैतू, तेरी दीदी के ऐसे खाने-पीने के दिन गए. अब तो वह खुद खिलाने-पिलाने जा रही है. ये बात सुनकर चैतू सोच में पड़ जाता है और घुघूती से पूछता है, दीदी तू कहां जा रही है? डबडबी आँखों से घुघूती चैतू से कहती है, मैं ससुराल जा रही हूं चैतू. हर लड़की को अपना घर छोड़ कर जाना पड़ता है. शादी में सिर्फ़ अरसे-पकोड़े थोड़े बनते. बल्कि एक घर से एक लड़की की विदाई भी होती है.

ये सुनकर चैतू का मन घबरा जाता है. घबराता भी क्यों न. उसकी दीदी भी तो उसकी मां जैसी ही थी और माँ से बिछड़ने का कष्ट शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. इतने में चैतू पूछता है. दीदी, तो तू वापस कब आएगी. यह सुनकर घुघूती फफक कर रो पड़ती है, और कहती है जब सुंदर-सुंदर फूल खिलेंगे, और हर जगह खुशी का माहौल होगा. उस चैत के महीने में मैं वापस तुझसे मिलने आऊंगी. तू मेरी भिंटोली तैयार रखना. ठीक है.

इस बात के साथ चैतू ने अपना दिल मज़बूत किया और अपनी दीदी को कई पहाड़ दूर विदा किया. दुख के दिन समय के साथ खत्म हो जाते हैं. लेकिन यादें, उनका कोई हिसाब नहीं होता. आप भूलना भी चाहो, तो कहीं न कहीं से किसी न किसी कोने से वह घुसपैठ कर ही लेती है. चैतू और घुघूती के साथ भी ऐसा ही हुआ. और याद इंतज़ार में बदल गई.

जब-जब चैत का महीना आता और पहाड़ों में फूल खिलते. चैतू अपनी दीदी की राह तकता. लेकिन वह न आती. देखते ही देखते दिन महीनों में और महीने साल में गुज़र गए. दूसरी छोर पर घुघूती के सामने कभी न खत्म होने वाला काम पड़ा था. वह मानो अभिमन्यु की तरह किसी चक्रव्यूह में फंस गई थी. ऐसा चक्र जिसमें वह लगातार भागी जा रही थी. लेकिन कहीं पहुंच नहीं रही थी. याद उसे भी आती थी. जब भी वह अपने सुसराल की लड़कियों को मायके जाते देखती, तब उसका भी घर जाने का मन होता. लेकिन पहाड़ी औरतों पर “मन की करना” जैसी बात कहां लागू होती है, उनके नसीब में पहाड़ लांघना और पहाड़ बचाना लिखा था. इसलिए घुघूती अपना मन मार लेती. और बाकी लड़कियों की लाई गई भिंटोली को चख कर सुकून कर लेती.

समय बीतता गया और छोटा सा चैतू बड़ा हो गया. लेकिन घुघती से मिलने की उसकी ललक और बढ़ गई. बढ़ क्या गई वह ललक ज़िद्द में बदल गई. जब इतने साल गुज़रने के बावजूद घुघूती मायके नहीं आई, तो उसने ठान लिया की अब वह खुद अपनी दीदी से मिलने जाएगा. लेकिन इस पर उसकी माँ ने उसे बहुत समझाया कि घुघूती का सुसराल बहुत दूर है.. कई दिनों तक पैदल चलना पड़ेगा और जंगलों, गाड-गदेरों को पार करना होगा. लेकिन चैतू अपनी ज़िद्द पर अड़ा रहता है. अब नौजवान बेटे की ज़िद्द के आगे माँ भी क्या करें. इसलिए माँ मान जाती है, लेकिन एक शर्त के साथ. वह अपने बेटे से कहती है कि दीदी से मिलकर तुरंत आ जाना. दरअसल, माँ बहुत बूढ़ी हो चली थी. उसका मानना था कि वह कभी भी चल बसेगी. अब घर में चैतू के अलावा उसका कोई भी न था. और ऐसे समय में बेटा पास नहीं रहेगा, तो वह क्या करेगी. इसलिए, वह चैतू से कहती है, बेटा मैं यहां अकेली हूं इसलिए तुरंत निकल आना. चैतू भी माँ की बात मान जाता है.

अगला दिन होता है और माँ चैतू के लिए रोटी, पानी और थोड़ी भभूत देती है, ताकि उसका बेटा जंगल में कहीं छल न जाए. वहीं घुघूती के लिए बड़े प्यार से तैयार की गई भिटोली भी बांधती है और साथ में एक सोने की जंजीर भी देती है. चैतू चलता गया. कई दिन ऊबड़ खाबड़ जंगल के कठिन रास्तों से गुजरते हुए आखिर चैतू सूरज ढलने के बादद घुघुती के ससुराल पहुँच ही गया. उसके मन में अपनी बहन से मिलने का उत्साह हिलोरे भर रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि जब वह अपनी दीदी से मिलेगा, तो क्या कहेगा. क्या दीदी उसे पहचान पाएगी. क्या दीदी बदल तो नहीं गई होगी. वह खुश तो होगी न. इस तरह की तमाम बातें चैतू के मन में चल रही थीं और इन्हीं सब ख्यालों के साथ वह आखिरकार घुघूती के घर पहुंच ही गया. लकिन उसने देखा कि घुघुती सोई हुई थी. उसके मन में कई बार आया कि वह घुघूती को जगा दे. लेकिन वह धर्मसंकट में था.

उस जमाने में किसी को नींद से जगाना पाप माना जाता था. इसलिए, चैतू रात भर घुघुती के उठने का इंतज़ार करता रहा. लेकिन घुघुती उठी ही नहीं. बहुत देर हो चुकी थी और उसके मन में लगातार माँ की कही बात गूंज रही थी कि बेटा मैं यहां अकेली हूं इसलिए तुरंत निकल आना, तो उसने सोई हुई घुघुती के गले में सोने की जंजीर डाल दी और कमरे के खदरे में भिंटोली की पोटली रख दी. वह पल भर को और रुका लेकिन घुघुती अभी भी नहीं जगी. तो निराश चैतू ने आखिरकार घुघुती के लिए एक चिट्ठी लिखकर वहीं छोड़ दी और वापस अपने घर की ओर चल पड़ा.

चैतू के जाने के बाद घुघुती की नींद टूट गई. उसने अपने गले में पड़ी सोने की जंजीर देखी. वह थोड़ा सकपका सी गई. तभी उसकी नजर खदरे में रखी पोटली पर पड़ी. उसने दौड़कर पोटली उठाई जिसमें रोटने और अरसे थे. उसका मन घबरा सा गया कि तभी उसे चैतू की लिखी हुई चिट्ठी मिली. जैसे ही उसने चिट्ठी पढ़ा उसे अहसास हुआ कि उसका भाई उससे मिलने के लिए यहाँ आया था. निराशा और दुख ने घुघूती को घेर लिया. वह फूट-फूट कर रोने लगी कि उसका भाई भूखा-प्यासा उसके पास आया और वह सोती रही. उसने खुद को बहुत कोसा. वह बार-बार रोते-रोते कहने लगी ‘‘ घुघुती! भै भूखू, मैं सूती ‘‘ यानी मैं घुघुती, मेरा भाई भूखा रहा, मैं सोती रही.

उसका रुदन सुनकर उसका चक्रव्यूह मानो टूटने लगा, वह जिस चक्र पर भाग रही थी वह धराशाही हो गया. उसकी पीठ पर लदा पहाड़ सरकने लगा. और घुघूती की छाती से सांसें उखड़ने लगी. अब इस जगह पर घुघूती का कोई रुदन नहीं बचा था. घुघूती के आंसू एक आँख की ओट पर तालाब बना गए थे. पहाड़ पीठ से सरक कर घुघती के सिरहाने आ गया था. कुछ नहीं बचा था सिवाय घुघूती के आखिरी शब्द के जिसे पहाड़ ने सजों कर रख लिया. हां वही शब्द – ‘‘ घुघुती! भै भूखू, मैं सूती ‘‘

कहते हैं मरने के बाद यह घुघूती हमारी प्यारी चिड़िया बन गई. जिसे हम सब घुघूती के नाम से जानते हैं. जिसे देखकर मायके की याद आ जाती है. लोक मान्यता है कि बसंत के समय आज भी वह घुघुती पक्षी के रूप में यही दोहराती है- ” घुघुती! भै भूखू, मैं सूती “.

स्क्रिप्ट: प्रियंका गोस्वामी

 

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