उत्तराखंड के बाहुबली लोदी रिखोला की कहानी

  • 2023
  • 9:40

16वीं सदी की बात है. पौड़ी के बयेली गांव में एक बारात आने वाली थी. पूरा गांव बारातियों के स्वागत की तैयारी में जुटा था. खाना पकाने की व्यवस्था जहां की गई थी, वहां से पानी का धारा कुछ नीचे स्थिति था. इस धारे से पानी का एक गैड़ा यानी एक बड़ा बर्तन ऊपर पहुँचाना था. लेकिन ये गैड़ा इतना बड़ा और भारी था कि गांव के कई लोग मिलकर भी इसे उठा नहीं पा रहे थे. तभी एक 14 साल का बच्चा वहां पहुंचा और उसने अकेले ही पानी से भरा ये गैड़ा उठाकर एक-सांस में ऊपर वहां तक पहुंचा दिया जहां खाना बन रहा था. इस बच्चे की विलक्षण क्षमता देख पूरा गांव अवाक रह गया. गांव वालों ने इस बच्चे को अपने कंधों पर उठा लिया और उसकी जय-जयकार करने लगे. ये लोग समझ चुके थे वीर-भड़ों के देश में एक और भड़ ने जन्म ले लिया था. इस भड़ का नाम था रिखोला लोदी.

देवभूमि उत्तराखंड में कई ऐसे योद्धाओं ने जन्म लिया जिनकी वीरता के किस्से यहां के लोकगीतों से लेकर इतिहास की किताबों तक में दर्ज हैं. ऐसे ही एक योद्धा थे राजा महिपत शाह के सेनानायक रिखोला लोदी जिनके युद्ध कौशल और बहादुरी के किस्से न सिर्फ गढ़वाल बल्कि दिल्ली दरबार तक प्रचलित थे. उनकी वीरता का ही असर था कि सेना नायक रहते हुए उन्होंने राजा महिपत शाह के साम्राज्य में सिरमौर रियासत का बड़ा हिस्सा शामिल कर लिया था. इसके साथ ही सिलाई-फते पर्वत से हाटकोटी-रोहडू तक, जौनसार-बावर तक, कुमाऊं के द्वाराहाट तक और सुदूर तिब्बत के द्वापाघाट तक उन्होंने राजा महिपत शाह का शासन स्थापित किया.

गढ़वाल के बयेली गाँव में जन्में लोदी रिखोला के पिता इलाके के एक प्रतिष्ठित थोकदार हुआ करते थे. रिखोला जब कम उम्र में ही एक भड़ की तरह विख्यात होने लगे तो उनके पिता ने एक सम्भ्रांत थोकदार परिवार की बेटी से रिखोला की शादी करवा दी. इतिहासकार भक्त दर्शन लिखते हैं कि ‘उन दिनों लोदी रिखोला अधिकतर अपने गाँव से कुछ मील पश्चिम की दिशा में नयार नदी के किनारे खैरासैण में अपने बागीचे में रहा करते थे. लेकिन जल्द ही उनके एकान्तवास का वो क्रम भंग हो गया.’

दरअसल उस दौर में गढ़वाल रियासत बार-बार होने वाले तिब्बती आक्रमण से परेशान थी. भक्त दर्शन अपनी किताब में लिखते हैं, ‘तिब्बती सरदार अक्सर गढ़वाल में आकर लूट-पाट किया करते थे. ऐसे में महाराज महीपत शाह ने उन्हें हमेशा के लिये परास्त करने का निश्चय किया. तब मुख्य सेनापति माधो सिंह भंडारी के सुझाव पर उन्होंने गढ़वाल भर के भड़ों और अन्य वीर युवाओं को निमन्त्रण दिया. लोदी रिखोला भला उस निमन्त्रण को कैसे अस्वीकार कर सकते थे. वे तुरन्त ही श्रीनगर जाकर दरबार में प्रस्तुत हो गए और एक सेना के संचालक नियुक्त हुए. तिब्बत-युद्ध में लोदी रिखोला ने यथेष्ट वीरता का परिचय दिया और इसलिए वहाँ से लौटने पर इन्हें दक्षिणी सीमा की रक्षा का भार दिया गया क्योंकि ये स्वयं दक्षिणी गढ़वाल के निवासी थे.’

लोदी रिखोला से जुड़े जो पंवाड़े गढ़वाल में गाए जाते हैं उनमें जिक्र आता है कि रिखोला दिल्ली के राज दरबार से एक दरवाज़ा उखाड़ लाए थे.  लेकिन भक्त दर्शन इस बारे में लिखते हैं कि इस पर विश्वास करने के लिए मजबूत ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. उनके अनुसार रिखोला ने सम्भवतः नजीबाबाद के क़िले पर आक्रमण किया होगा और अपने बल-पौरुष से उसके फाटक को नष्ट-भ्रष्ट करके उसका कुछ अंश वो प्रमाण के तौर पर श्रीनगर दरबार में लाए होंगे.

इस घटना के बारे में विख्यात साहित्यकार और हिंदी में डी-लिट की उपाधि पाने वाले पहले भारतीय डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का भी बिलकुल यही मत है. उनके अनुसार, क्योंकि दक्षिणी सीमा की रक्षा का भार रिखोला के कन्धों पर था, ऐसे में नजीबाबाद के किले पर उनका आक्रमण करना ज़्यादा तर्क-संगत लगता है. क्योंकि उन दिनों डाकू-लुटेरे गढ़वाल की सीमा में घुसकर लूट-पाट करते थे और भाग कर नजीबाबाद की सरहद में घुस जाया करते थे. संभवतः उन्हीं का दमन करने के लिए लोदी रिखोला को उस किले पर हमला करना पड़ा हो. दक्षिणी लुटेरों का दमन करने के लिए लोदी रिखोला ने जिस स्थान पर अपनी ‘रक्षणी’ सेना नियुक्त की थी, उसे ही अब रिखणीखाल कहते हैं.

उस दौर में जहां एक तरफ लोदी रिखोला दक्षिणी सीमा की सुरक्षा कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ़ पश्चिमी सीमा की सुरक्षा माधो सिंह भंडारी के हवाले थी. भंडारी जब तक जीवित रहे तब तक सिरमौर आदि राज्यों में पूर्ण शान्ति रही और उधर के सभी लोग गढ़वाल के संरक्षण में रहना स्वीकारते रहे. लेकिन उनकी मौत के बाद इस सीमा पर फिर से उपद्रव होने लगा. लुटेरे गढ़वाल की सीमा में घुसकर खड़ी फसलों को बर्बाद कर देते और गाँवों में लूट-पाट मचा कर वापस चले जाते. उनका दमन करने के लिए राजा ने कई बार सेनाएँ भेजी. इससे कुछ दिन तो शांति रहती लेकिन सेनाओं के लौटने पर फिर उत्पात शुरू हो जाता. ऐसे में महाराज महीपत शाह को एक बार फिर से लोदी रिखोला की याद आई और उन्हें संदेशा भेजा गया कि वे पश्चिमी सीमा को ठीक करें.

महाराज का संदेश मिलते ही लोदी रिखोला ने अपने परिवार वालों से विदा ली और वे पश्चिमी सीमा की तरफ़ बढ़ने लगे. लेकिन तभी उनकी बांई भुजा कुछ इस तरह से फड़कने लगी कि उन्हें अपशकुन का अहसास होने लगा. उन्हें आभास हुआ कि वे शायद जीवित नहीं लौट सकेंगे और उनके पैर ठिठक कर ठहर गए. उनका आगे बढ़ने का साहस जाता रहा लिहाज़ा वे गांव से कुछ ही दूरी पर बसे वाट की पुंगड़ी में रात बिताने के बाद अगली सुबह घर वापस लौट आए. लेकिन उनकी माँ ने रिखोला को ऐसे लौटते देखा तो वो बहुत नाराज़ हुई. उन्होंने रिखोला को याद दिलाया कि देश की रक्षा के लिए चाहे प्राण भी क्यों न देने पड़ें, लेकिन वीरों को पीछे नहीं हटना चाहिए. उन्होंने अपनी क़सम देते हुए रिखोला से कहा, ‘मेरे दूध की लाज रखना और अपने कुल को कलंक न लगाना.’ मां से मिले इस प्रोत्साहन के बाद लोदी रिखोला श्रीनगर पहुँचे जहां महाराज ने स्वयं अपने हाथों से उनका तिलक किया और अपना आशीर्वाद देते हुए एक सेना के संचालन का भार उन्हें देकर पश्चिमी सीमा की ओर रवाना किया.

अपनी वीरता, रण-कुशलता और सैन्य-संचालन से लोदी रिखोला ने सिरमौरी लुटेरों के दांत खट्टे कर दिए. उन्होंने लुटेरों को गढ़वाल की सीमा से बाहर तो खदेड़ा ही, साथ ही सिरमौर की सीमा में घुसकर उनका बुरी तरह दमन भी किया. भक्त दर्शन लिखते हैं कि तब उस पूरे क्षेत्र त्राहि-त्राहि मच गई थी और सबने लोदी रिखोला को आश्वासन दिया था कि वे आज के बाद कभी भी गढ़वाल की सीमा लांघने की गलती नहीं करेंगे. यहां तक कहा जाता है कि उस दौर में रिखोला लोदी के नाम से ही उस पूरे इलाक़े के लोग आतंकित हो उठते थे.

पश्चिमी सीमा पर सफलता पाकर जब रिखोला श्रीनगर लौटे तो वहां इनका शानदार स्वागत किया गया. महाराज ने स्वयं अपने हाथों से इन्हें खिलअत पहनाई और आज्ञा दी कि कराईखाल से दक्षिण का सारा इलाका जागीर में इन्हें दे दिया जाए. भक्त दर्शन लिखते हैं कि रिखोला के इस असाधारण सम्मान से मन्त्रियों में खलबली मच गई और उन्होंने रिखोला के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए. उन्होंने महाराज को बहकाया कि लोदी रिखोला स्वयं राजा बनना चाहते हैं. इन्हीं मंत्रियों ने फिर रिखोला की हत्या तक करने का प्रयास किया.

इसके लिए उन्होंने एक चाल चली. रिखोला लोदी को बल प्रदर्शन करने की चुनौती दी गई. उनसे कहा गया कि वे एक विशेष दरवाज़े को उखाड़ कर अपनी ताक़त का सबूत दें. जहां ये दरवाज़ा लगाया गया था, उसके ठीक पीछे एक गड्ढा किया गया था जिसमें लोहे के बर्छे लगे थे और इस गड्ढे के ऊपर नक़ली जमीन तैयार कर दी गई थी. प्रदर्शन वाले दिन जैसे ही रिखोला लोदी ने उस विशाल दरवाज़े को झटका देकर उखाड़ा, वे पीछे के गड्ढे में जा गिरे और बर्छे से बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए.

एक वर्णन के अनुसार लोदी रिखोला का वहीं देहांत हो गया और सिर्फ उनकी पगड़ी ही बयेली तक पहुँच सकी जहाँ रिखोला की पत्नी उसके साथ ही सती हो गई. लेकिन एक अन्य वर्णन के अनुसार उन बर्छों से घायल हो जाने पर भी रिखोला साहसपूर्वक उठ खड़े हुए और अपने गांव की ओर चल दिए. यहां खैरासैण के पास विषगड्डी नदी के किनारे पहुँचने के बाद जब चढ़ाई शुरू हुई तो वे आगे नहीं बढ़ पाए और वहीं उनके प्राण निकल गए.

इन दोनों कथाओं से इतर एक कथा ये भी है कि लोदी रिखोला ने अपनी पगड़ी से अपनी कमर के घाव कस कर बांध लिए थे और वे घोड़े पर सवार होकर अपने गांव पहुंचे जहां अपनी मां की गोद में उन्होंने अन्तिम साँस ली.

भक्त दर्शन लिखते हैं कि रिखोला लोदी के इस तरह से षड्यंत्र का शिकार हो जाने पर महाराज महीपत शाह को भी गहरी आत्मग्लानि हुई. उन्हें अफ़सोस हुआ कि एक निश्छल वीर देशप्रेमी, दरबारियों के षड्यंत्र से मारा गया. कहा जाता है कि इसी के पश्चाताप के लिए उन्होंने राजा त्रिमल चंद से बेवजह एक आत्मघाती युद्ध छेड़ दिया जिसमें उनकी मौत हुई.

लोदी रिखोला के वंशज आज भी मल्ला बदलपुर पट्टी के बयेली और कोटा गांव में रहते हैं. बयेली में रिखोला का एक स्मारक भी है जिसके बारे में कहावत है कि एक बार किसी ने रिखोला को ताना मारा था कि अगर तुम सच में भड़ हो तो अमुक पत्थर उठा लायो. वह विशाल पत्थर गांव से कुछ दूरी पर पड़ा हुआ था. ताना सुन कर रिखोला को ऐसा तैश आया था कि वे तुरन्त उस पत्थर को उठा लाए थे और गांव के बीच में स्थापित कर दिया था. बताते हैं कि ये पत्थर आज भी यहाँ मौजूद है. हालाँकि इसका अधिकांश भाग टूट गया है लेकिन अभी भी जो टुकड़ा बचा है, वो लगभग छः फीट लम्बा, चार फीट चौड़ा और एक फुट ऊँचा है और आज भी लोदी रिखोला की वीर-गाथा की गवाही देता है.

स्क्रिप्ट: प्रगति

 

Scroll to top