गढ़वाल रियासत का इतिहास राजा महाराजाओं के शौर्य और पराक्रम की गाथाओं से भरा हुआ है. इसमें राजाओं की महत्वकांक्षाओं के चलते लड़े गए युद्धों के किस्से भी हैं और सत्ता संघर्ष की हिंसक पटकथाएँ भी. लेकिन इनके साथ ही गढ़ राज्य में कुछ ऐसी वीरांगनाएँ भी हुई, जिन्होंने वक्त आने पर न केवल गढ़वाल रियासत को आक्रमण से बचाया, बल्कि अपने युद्ध-कौशल का ऐसा नायाब उदाहरण पेश किया, कि ये छोटी सी पर्वतीय रियासत सालों-साल दुश्मनों से महफूज रही.
राजशाही के इस एपिसोड में आज हम ऐसी ही एक महारानी का किस्सा सुनाने जा रहे हैं, जिसने न केवल उन मुगलों को हराया, जिनकी पूरे हिंदुस्तान में तूती बोला करती थी. बल्कि उन्हें हराने के साथ ही उनके लड़ाकों की नाक काटकर पूरी दुनिया में खलबली मचा दी. इस घटना के बाद इतिहास ने उन्हें नाक-काटी रानी के नाम से याद रखा. ये रानी थी पंवार वंश की वीरांगना, रानी कर्णावती.
साल 1628. जनवरी का महीना था. शाह जहां अपने पिता की मौत के बाद छिड़े सत्ता-संघर्ष में विजेता साबित हो चुका था. आगरा के क़िले में उसकी ताजपोशी होनी थी. भारत भर की रियासतों को इस ताजपोशी में शामिल होने के लिए निमंत्रण भेजे गए. ऐसा ही एक निमंत्रण गढ़वाल रियासत के राजा महिपत शाह के पास भी पहुंचा.
कहने को तो ये निमंत्रण था लेकिन इसकी तासीर किसी आदेश से कम नहीं थी. क्योंकि मुग़लिया निमंत्रण मिलने पर भी उनके समारोह में शामिल न होने का सीधा मतलब था मुग़लिया शान में गुस्ताखी करना. यही गुस्ताखी गढ़वाल रियासत के तत्कालीन राजा महिपत शाह ने भी की और शाह जहां की दुश्मनी मोल ले ली.
इस घटना के कुछ समय बाद ही राजा महिपत शाह कुमाऊँ युद्ध में मारे गए. उस वक्त उनके बेटे पृथ्वीपति शाह की उम्र महज़ 11 साल थी. लिहाज़ा रियासत की कमान उनकी पत्नी, राजमाता रानी कर्णावती के हाथों में आई. कभी इस दरबार की शान रहे रिखोला लोदी जैसे वीर की भी अब तक मौत हो चुकी थी. ऐसे में ये चर्चाएँ तेजी से फैलने लगी कि एक महिला के नेतृत्व में गढ़वाल रियासत अब अपने सबसे कमजोर दौर में आ पहुंची है, जिसे कभी भी आसानी से जीता जा सकता है.
ये चर्चाएँ मुग़ल दरबार तक भी पहुँची. शाह जहां को वो अपमान याद हो आया जो राजा महिपत शाह ने उसका निमंत्रण ठुकरा कर किया था. उसे लगा कि गढ़वाल रियासत को सबक़ सिखाने का सही समय आ चुका है. उसने अपने सिपहसालारों से चर्चा की तो उसके प्रमुख फौजदार नजाबत खान ने गढ़वाल रियासत को मुगल शासन के अधीन लाने की जिम्मेदारी ले ली. इससे खुश होकर शाह जहां ने तुरंत ही नजाबत खान की तनख्वाह पचास फ़ीसदी बढ़ा दी.
गढ़वाल का इतिहास के लेखक डा शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि फौजदार नजाबत खान ने शाही दरबार में प्रस्ताव रखा कि उसे हथियारों से लैस एक हजार पैदल सैनिक और दो हजार घुड़सवार दे दिए जाएं तो वो कुछ ही महीनों में गढ़वाल रियासत को मुगलों के पैरों के नीचे ला देगा. हालांकि ‘निकोलस मानूची’ की लिखी ‘स्टोरिया डो मोगोर’ में जिक्र मिलता है कि गढ़वाल पर आक्रमण करने वाली नजाबत खान की फौज में एक लाख पैदल सैनिक और तीस हजार घुड़सवार शामिल थे.
गढ़वाल पर चढ़ाई करने से पहले नजाबत खान ने सिरमौर के राजा मंधाता प्रकाश को अपने पक्ष में किया. इससे मुग़ल सेना को दून घाटी में घुसने का सीधा रास्ता मिल गया. सिरमौर राज्य से यमुना को पार करते हुए वो दून घाटी पहुँचे और शेरगढ पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद मुग़लों ने कालसी के पास स्थित कानीगढ़ पर क़ब्ज़ा किया और उसे सिरमौर के राजा को उपहार स्वरूप भेंट कर दिया.
नजाबत खान की फौज लगतार जीतते हुए आगे बढ़ रही थी. संतूरगढ़ पर क़ब्ज़े के साथ ही उन्होंने पूरी दून घाटी को जीत लिया. इसके बाद वो डोईवाला माजरी होते हुए ऋषिकेश पहुँचे और ननूरगढ़ पर क़ब्ज़ा कर लिया. ये वही जगह है जहां आज आईडीपीएल कॉलोनी बसी हुई है. उस दौर में यहां एक गढ़वाली क़िला हुआ करता था. इस क़िले पर अपनी जीत दर्ज करने के बाद नजाबत खान स्वर्गाश्रम होते हुए गंगा नदी के किनारे-किनारे श्रीनगर की तरफ बढ़ चला.
मुग़लों का गढ़वाल पर चढ़ाई करने का ये अभियान अब तक बेहद सफल रहा था. बिना कोई बड़ा नुक़सान झेले ही उन्होंने अब तक कई छोटे-छोटे क़िले जीत लिए थे. इससे नजाबत खान को ये लगना लगा था कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर को जीतना भी उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं है. देवप्रयाग पहुँचने से कुछ पहले ही उसने गंगा किनारे अपना पड़ाव डाला और रानी कर्णावती को संदेश भिजवा दिया कि रानी की भलाई इसी में है कि वो बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर दे. इस आत्मसमर्पण की एक शर्त ये भी थी कि रानी को दस लाख रुपए बतौर भेंट चुकाने थे.
ये प्रस्ताव आने पर रानी कर्णावती ने जोश से नहीं बल्कि होश से काम लिया. उन्होंने नजाबत खान को संदेश भिजवाया कि वो दस लाख रुपए चुकाने को तैयार हैं लेकिन इतनी बड़ी रक़म एक साथ चुकाना मुमकिन नहीं. इसके लिए उन्हें कुछ दिनों का समय चाहिए. नज़राने के तौर पर रानी कर्णावती ने एक लाख रुपए भी नजावत खान को भिजवा दिए. इससे नजाबत खान की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. गढ़वाल को जीतने का जो सपना पालकर वो निकला था, वो सपना इतनी आसानी से पूरा हो रहा था. उसने ख़ुशी-ख़ुशी रानी को समय दिया और अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ गंगा किनारे ही पैसों के इंतज़ार में पड़ाव डाल कर बैठ गया.
इधर, रानी के दिमाग में कुछ और चल रहा था. उन्होंने नजाबत खान से कुछ दिनों की ये मोहलत एक सोची-समझी रणनीति के तहत माँगी थी. रानी के सिपहसालारों में उस वक्त माधो सिंह भंडारी, जोगादेव, उददू नेगी, नंद ठाकुर और साधिक बिष्ट शामिल थे. इन सभी ने मिलकर ये रणनीति बनाई थी कुछ दिनों की मोहलत मिलते ही पूरी मोर्चे पर तैनात सिपाहियों को इकट्ठा कर लिया जाए.
साथ ही गंगा की जिस तीखी घाटी में नजाबत खान अपने हजारों सिपाहियों के साथ शिविरों में इंतजार कर रहा था, उस घाटी के दोनों ओर की पहाड़ियों पर बड़े-बड़े पत्थर इकट्ठा करवा लिए गए. इसके बाद जब रानी ने मुग़लों पर हमले का आदेश दिया तो मानो उनकी सेना पर क़हर टूट गया. वो कुछ समझ पाते उससे पहले ही पहाड़ियों से गिराई गई चट्टानों में उनके हजारों सैनिक दफ़्न हो गए. नजाबत खान ख़ुद तो किसी तरह बच निकालने में सफल रहा लेकिन उसकी पूरी फौज तहस-नहस हो गई. कुछ मलबे में दाब गए, कुछ गंगा में बह गए और पहाड़ियों की ओर भागे उन्हें गढ़वाली सैनिकों ने बंदी बना लिया.
माना जाता है कि लगभग आठ सौ मुग़ल सैनिकों को बंदी बनाकर श्रीनगर में रानी कर्णावती के सामने पेश किया गया. रानी ने इनकी जान को बक्श दी लेकिन इन सभी की नाक कटवा कर मुग़ल बादशाह के पास भेज दिया. इसी घटना के बाद रानी कर्णावती को नाककाटी रानी के नाम से जाना गया.
नजाबत खान को हराने के बाद रानी कर्णावती की सेना ने सिरमौर का रुख़ किया. मुग़लों का साथ देने के लिए उन्हें सबक़ सिखाना अभी बाक़ी था. घाटी के जो भी इलाके मुग़लों ने क़ब्ज़ाए थे और सिरमौर को सौंप दिए थे, वे सभी वापस जीत लिए गए. सिरमौरी सेना को पब्बर नदी तक खदेड़ दिया गया और हाटकोटी तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर दी गई.
उधर, नजाबत खान जब मुग़ल दरबार में पेश हुआ तो शाह जहां ने उसके तमाम पद छीन लिए. 1740 के आस-पास लिखी गई मासिर-उल-उमरा के में जिक्र मिलता है कि इस अपमान के बाद नजाबत खान ने ख़ुद ख़ुशी कर ली थी.
गढ़वाल को जीतने की शाह जहां की इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकी. सिर्फ़ मुग़ल ही नहीं, बल्कि जीतने भी हमलावर दक्षिण की ओर से आए, वे कभी भी गढ़वाल रियासत की राजधानी श्रीनगर तक नहीं पहुँच सके. इसका एक बड़ा कारण तो इस क्षेत्र का भूगोल था लेकिन इसके साथ ही एक दिलचस्प मिथक भी सैकड़ों साल तक गढ़वाल रियासत की सुरक्षा करता रहा है. मिथक ये था कि गढ़वाल रियासत की फौज में उड़ने वाले राक्षस भी शामिल हैं जो पहाड़ियों से उड़कर हमला करते हैं. इन मिथकों का जिक्र ‘तारीख ए बदायूनी’ से लेकर एडविन फीलिक्स और एटकिंसन तक की किताबों में मिलता है.
नजाबत खान की हार ने भी इस मिथक को कुछ और मज़बूत बना दिया था. असल में जब गढ़वाल रियासत के सिपाहियों ने मुग़ल सेना पर चट्टानें गिराना शुरू किया तो उसी वक्त तेज ओलावृष्टि भी हुई. मुग़ल सेना पर अचानक टूटी इस आपदा से उन्हें यही एहसास हुआ कि जैसे प्रकृति स्वयं गढ़वाल रियासत के लिए उनसे लड़ रही है. एटकिंसन की किताब में तो इस युद्ध के बारे में यहां तक लिखा गया है कि ‘रानी कर्णावती के विंसर देवता ने ही उस दिन ओलावृष्टि करवाई थी जिससे रानी की रक्षा हुई.’
बहरहाल, रानी कर्णावती को इतिहास में उनके शौर्य और पराक्रम के साथ ही उनकी दूरदर्शिता और निर्माण कार्यों के लिए भी याद किया जाता है. कम ही लोग जानते हैं कि देहरादून की पहली नहर का निर्माण रानी कर्णावती ने ही करवाया था. रिस्पना के पानी को पूरी दून घाटी तक पहुँचने वाली इस राजपुर कैनाल ने न सिर्फ़ लोगों को पीने का पानी पहुँचाया बल्कि घाटी में कृषि को बेहद उपजाऊ बना दिया था. उत्तराखंड सिंचाई विभाग की वेबसाइट में भी रानी कर्णावती द्वारा बनवाई गई इस नहर का जिक्र मिलता है.
रानी कर्णावती के शासन में दून की राजधानी नवादा में हुआ करती थी. यहां उनका एक खूबसूरत महल भी था. साल 1874 में लिखी गई GRC Williams की किताब ‘Memoir of Dehradun’ में जिक्र मिलता है कि उस वक्त तक भी रानी कर्णावती के महल को नवादा में देखा जा सकता था. लेकिन अब इस पूरे इलाक़े में प्लाटिंग हो चुकी है और रानी कर्णावती के महल के अवशेष तक बाक़ी नहीं हैं.
उनके नाम की बस एक ही प्रत्यक्ष निशानी आज भी हम सबके बीच है लेकिन इसकी जानकारी भी कम ही लोगों को है. ये निशानी है देहरादून का करणपुर इलाका जिसे रानी कर्णावती के नाम पर करणपुर कहा जाता है.
स्क्रिप्ट : मनमीत
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