कहानी उत्तराखंड के कुख्यात गैंगस्टर ‘देवेन्द्र अरोड़ा’ उर्फ़ ‘निक्कू दाई’ की

  • 2022
  • 21:49

कुख्यात के पहले एपिसोड में आपने भरतू दाई की कहानी सुनी. वो भरतू दाई जिसने देहरादून में अंडरवर्ल्ड की बुनियाद रखी, जिसने यहां पहले-पहल हिंसक गैंगवार की पटकथाएँ लिखी और जिसका ख़ुद का वजूद भी एक दिन ऐसी ही एक गैंगवार की भेंट चढ़ गया.

भरतू के खूनी अदावतों के क़िस्सों पर पूर्ण विराम लगने के कुछ समय बाद ही उसके हत्यारे रेशम दाई की भी मौत हो गई. शहरवासी और पुलिस प्रशासन देहरादून में संगठित अपराधों के पहले अध्याय की समाप्ति पर अभी राहत की सांस ले ही रहे थे कि देहरादून में एक नए गैंगस्टर की आमद हो गई.

एक ऐसा गैंगस्टर जिसने न केवल देहरादून शहर में कोहराम मचाया बल्कि बिहार, दिल्ली, हरियाणा, पश्चिम और पूर्वी उत्तर प्रदेश के माफियाओं को साथ जोड़कर इतना बड़ा गैंग खड़ा कर दिया कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को उसे काबू में लाने के लिए एक स्पेशल टीम का गठन करना पड़ा. एक ऐसा कुख्यात जो अंतरराज्यीय गिरोहों का सरगना बना और जिसे काबू करने में कई राज्यों की पुलिस के पसीने छूट गए.

इस कुख्यात गैंगस्टर का नाम था देवेंद्र अरोड़ा उर्फ निक्कू.

देवेंद्र अरोड़ा के निक्कू दाई बनने की कहानी कुछ-कुछ वैसी ही है जैसी अक्सर किसी बॉलीवुड फिल्म में जुर्म के खिलाफ हथियार उठाने वाले किसी किरदार की होती है. ये कहानी शुरू होती है भारत-पाकिस्तान बँटवारे के उन्हीं नाजायज़ दंगों से, जिन दंगों ने करोड़ों लोगों की ज़िंदगी बदल कर रख दी.

संतराम अरोड़ा भी इन्हीं लोगों में से एक थे. उनका परिवार पाकिस्तान के बन्नूवाल गांव से बंटवारे के बाद हुए दंगों में सब कुछ गवां कर भारत पहुंचा और ठोकरें खाता हुआ देहरादून के प्रेमनगर में बसा. यहां शरणार्थी के रूप में मिला पटटा उनकी नई पहचान थी और शरणार्थियों के लिये लगाए गए टेंट उनकी नई दुनिया.

सब कुछ गवां देने के जख्म लिए संत राम ने किसी तरह अपना एक छोटा सा फलों के जूस का व्यवसाय शुरू किया. जी तोड़ मेहनत करके कुछ रक़म जोड़ी और रिफयूजी कैंप से निकल कर देहरादून के डिस्पेंसरी रोड पर एक घर खरीद लिया.

संत राम शिक्षा की जरूरत को समझते थे, लिहाजा उन्होंने अपने पाँचों बेटों को गांधी इंटर कॉलेज में एडमिशन दिलाया. तीसरे नंबर का बेटा देवेंद्र शांत और समझदार था. वो स्कूल के बाद पिता का हाथ बँटाने के लिये दुकान पर भी बैठता था. दिन किसी तरह कट रहे थे. लेकिन फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद संत राम का शांत बेटा ताउम्र के लिये अशांत हो गया.

हुआ यूं कि उन दिनों शहर में हरीश भाटिया नाम का एक बदमाश व्यापारियों से रंगदारी वसूला करता था. एक दिन वो संत राम की फ्रूट जूस की दुकान पर भी पहुंचा और उसने संत राम से रंगदारी की चौथ मांगी. संत राम ने देने से इंकार किया तो भाटिया और उसके साथी बुजुर्ग संत राम को पीटने लगे. देवेंद्र उसी वक्त स्कूल से लौट रहा था. उसने अपने पिता को गुंडो से छुड़ाना चाहा तो उन्होंने उसकी भी पिटाई कर दी. ये गुंडागर्दी सरेआम होती रही लेकिन किसी ने भी आगे बढ़कर उन्हें बचाने की कोशिश तक नहीं की.

ये गुंडे तो चले गये, लेकिन पिता की पिटाई चौराहे पर होते देख देवेंद्र के मन में गहरा जख्म लगा. वो अपने पिता को अस्पताल ले गया और मरहम पट्टी कराने के बाद उन्हें घर छोड़ आया. अगले कुछ दिन देवेंद्र दुकान पर घायल हालत में खुद ही बैठा. उसका मन अब दुकानदारी से उठ चुका था और वो प्रतिशोध की आग में तप रहा था. उसे हर चीज़ से नफ़रत होने लगी थी.

परिवार के अतीत में बँटवारे की नफ़रत तो थी ही, वर्तमान ग़रीबी की नफरत से भरा था और भविष्य अंधकार की नफ़रत से. यही नफरत उसे अब शांत देवेंद्र से कुख्यात निक्कू दाई बनाने वाली थी. वो इतना अवसाद में आ गया था कि उसका सारा व्यापार चौपट हो चुका था. 

एक दिन वो दुकान से उठा और अपने साथी का तमंचा चुरा कर सीधे घोसी गली पहुंचा. वहां उसे राजेश भाटिया अपने कुछ मवाली साथियों के साथ दिख गया. निक्कू सीधे भाटिया के सामने आया और उसके पेट में तमंचा सटा कर फायर कर दिया. भाटिया की वहीं मौके पर ही मौत हो गई.

भाटिया को लहूलुहान हालत में देख उसके साथी वहां से भाग गए. इस हत्याकांड से पूरे शहर में सनसनी फैल गई और पुलिस महकमे में हड़कंप. 1980 का ये वो ही दिन था, जब देहरादून में पुलिस क्राइम रिकॉर्ड में निक्कू का खाता खुला और ऐसा खुला कि उसकी मौत के साथ ही खत्म हुआ.

इस हत्या के आरोप में गिरफ़्तार हुआ निक्कू कुछ सालों बाद जब जमानत पर छूटा तो उसकी पारिवारिक हालत बेहद खराब हो चुकी थी. निक्कू का नाम जुर्म की दुनिया में दर्ज हो चुका था. लिहाज़ा उसने इसी दुनिया में आगे बढ़ने का फैसला किया और अवैध शराब का धंधा करने लगा. इसके साथ ही उसने अपनी एक गैंग बना डाली जिसने फिर डालनवाला क्षेत्र में कई लूट की घटनाओं को अंजाम दिया.

पुलिस ने उस पर घेरा कसा तो वो भाग कर ऋषिकेश आ गया और वहां से अपने धंधे संचालित करने लगा. निक्कू यहां पर अपना धंधा स्थापित कर ही रहा था कि उसकी अनिल कुमार नाम के एक व्यापारी से दुश्मनी हो गई. उसने ऋषिकेश के नामा हाउस के पास सरेआम अनिल कुमार की गोली मारकर हत्या कर दी और उसी की मोटरसाइकिल लेकर फ़रार हो गया.

पुलिस पर निक्कू को गिरफ़्तार करने का दबाव बढ़ता जा रहा था. 1982 के उस दौर में ऋषिकेश कोतवाली के सब इंस्पेक्टर राजबीर सिंह यादव हुआ करते थे. उनका सामना एक शाम निक्कू और उसके साथी सत्यबीर त्यागी से हो गया. दोनों तरफ़ से कई राउंड गोलीबारी हुई जिसमें सत्यबीर त्यागी की मौत हो गई लेकिन निक्कू एक बार फिर से भागने में कामयाब रहा.

अब तक निक्कू को एक बात समझ आ गई थी कि पुलिस से साँठ-गांठ किए बिना उसका धंधा चल पाना मुश्किल है. लिहाज़ा उसने अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पुलिस तक पहुँचाना शुरू कर दिया और बदले में पुलिस उसके काले कारनामों पर आंख मूंदने लगी. यहीं से निक्कू और भी ज्यादा ताकतवर होने लगा.

ये अस्सी के दशक का वो दौर था जब देहरादून में विनोद बड़थ्वाल, कॉलेज की राजनीति में अपना परचम फहरा रहे थे और सूर्यकांत धस्माना छा़त्र राजनीति में दाखिल होने वाले थे. इनका एक और दोस्त था, जो बाद में इस पूरी कहानी का मुख्य किरदार बनने वाला था. उसका नाम था सुभाष शर्मा.  विनोद बड़थ्वाल, सूर्यकांत धस्माना और सुभाष शर्मा का अपना एक स्टूडेंट ग्रुप था, जो डीएवी कॉलेज की राजनीति में मजबूत दखल रखता था.

विनोद बड़थ्वाल फॉरेस्ट गार्ड पिता के चार बेटों में सबसे बड़े थे. 1983 में वो डीएवी कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए. लगभग इसी दौर में उनके छोटे भाई राजेश बड़थ्वाल को छायादीप पिक्चर हॉल के साइकिल स्टेंड का ठेका मिला था. इस ठेके को निक्कू के गुर्गे भी लेना चाह रहे थे. दोनों पक्षों में विवाद हुआ, मारपीट हुई, गोलियां तक चल गई.

निक्कू वहां से लौट ही रहा था कि किसी ने तमंचे से उस पर पीछे से फायर कर दिया. ये फायर तो मिस हो गया लेकिन इस घटना से राजेश बड़थ्वाल और निक्कू की रंजिश शुरू हो गई. ऐसी रंजिश जिसके चलते कई घरों के आंगन से अर्थियाँ उठी.

तारीख़ थी नौ मई 1983. इस दिन देहरादून में एक ऐसा सामूहिक हत्याकांड हुआ जिससे पूरा शहर सन्न रह गया.

अपनी काली बुलेट में राजेश बड़थ्वाल और उसका दोस्त दिलावर, अधोईवाला में रज्जो के घर पहुंचे थे. रज्जो राजेश की प्रेमिका हुआ करती थी. तीनों बैठकर गपशप कर ही रहे थे कि लाल रंग की एक मोटरसाइकिल पर दो युवक घर के बाहर उतरे और दरवाजे को धकेलते हुए अंदर कमरे में दाखिल हुए. अंदर बैठे तीनों लोग कुछ समझ पाते, तब तक निक्कू और उसके साथी पप्पू कांड़ा ने प्वाइंट 32 बोर की रिवाल्वर से दस राउंड से ज्यादा फायर तीनों पर झोंक दिए. राजेश, रज्जो और दिलावर की वहीं मौत हो गई.

देहरादून के इस ट्रिपल मर्डर से हड़कंप मच गया और निक्कू पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुख्यात हो गया.

निक्कू के खिलाफ हत्या का मुकदमा फिर से दर्ज हुआ और इस बार देहरादून के पुलिस कप्तान शैलेंद्र सागर ने उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून की भी धारा लगा दी. कुछ समय बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिलने पर जब निक्कू बाहर आया तो पूरे देहरादून शहर के अवैध धंघों पर उसका एकछत्र राज स्थापित हो चुका था.

उधर छोटे भाई की हत्या के आरोप में विनोद बड़थ्वाल ने निक्कू के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था. इसके चलते निक्कू ने विनोद बड़थ्वाल की भी हत्या करने की खुली चुनौती दे डाली. इससे पूरे शहर में एक डर का माहौल हो गया. क्योंकि अब निक्कू का गैंग और डीएवी कॉलेज का छात्र संघ आमने-सामने आ गए थे.

ये वो दौर था जब डीएवी कॉलेज के छात्र नेता भी हथियार रखा करते थे. लिहाज़ा पूरे शहर में ये डर फैल गया था. दोनों गुटों के आमने-सामने आने पर कोई भी अनहोनी घट सकती है. ये अनहोनी जल्द ही सच साबित हुई.

डिस्पेंसरी रोड पर निक्कू के घर के पास ही दोनों पक्षों के बीच एक दिन गोलीबारी हो गई. इस घटना में इन दोनों पक्षों के लोगों को तो गोली नहीं लगी, लेकिन वहां से गुजर रहे जिलाधिकारी के अर्दली के बेटे की गोली लगने से मौत हो गई. इस घटना के बाद निक्कू गिरफतार तो हुआ, लेकिन अब वो इतना ताकतवर था कि कुछ ही दिनों में उसे फिर से जमानत मिल गई.

अब निक्कू जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह बन चुका था. शहर में एक समानांतर सत्ता उसकी चलने लगी थी. बहुत कम लोग ही उसका विरोध करने की हिम्मत करते थे. शहर के कुछ नेता भी निक्कू की बिरादरी के वोटों के लालच में उसके साथ मित्रता निभाते थे. ऐसे में निक्कू और उसके संगी साथी खूब चांदी काट रहे थे. चर्चित ट्रिपल मर्डर में भी निक्कू को सबूतों के अभाव बरी कर दिया गया था और इसके चलते पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश में उसकी तूती बोलने लगी थी.

निक्कू लगातार अपने काले कारनामों को विस्तार दे रहा था और इसी कड़ी में उसके संबंध मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम से भी हो गये थे. दाउद के कहने पर उसने पश्चिम उत्तर प्रदेश में कई शूट आउट किए. दाउद के अलावा सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद और यहां तक कि उस समय के बिहार के धनबाद कोलफील्ड के माफ़ियाओं से भी निक्कू के गहरे संबंध हो गये थे.

धनबाद के कोयला माफ़ियाओं के साथ तो निक्कू की ऐसी घनिष्ठता हो गई थी कि वहाँ से कई फरार अपराधी यहां देहरादून में निक्कू के मेहमान बन कर रहा करते थे.

अलीगढ़ के जावेद और छोटा जाकिर समेत कई खतरनाक अपराधी हिंसक वारदातों को अंजाम देकर देहरादून में निक्कू के ठिकानों पर छिपने लगे थे. यहां ओएनजीसी में एक ऐसे अधिकारी का बंगला इनके छिपने का ठिकाना हुआ करता था जो इन सभी अपराधियों से सहानुभूति रखता था. निक्कू लगातार मजबूत हो रहा था. जावेद और जाकिर की तो पूरी गैंग ही निक्कू के साथ मिल गई. इससे निक्कू पश्चिम उत्तर प्रदेश में बड़े गैंगस्टर के रूप में कुख्यात हो गया.

उसका हौंसला और दुस्साहस बढ़ता जा रहा था और इसी दुस्साहस में उसने एक ऐसी घटना को अंजाम दे दिया कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई बड़े गैंगस्टर निक्कू के खून के प्यासे हो गये. ये घटना थी ओंकार सिंह की हत्या.

मेरठ के ओंकार सिंह एक लोकप्रिय छात्र नेता थे. जाट बिरादरी मे उनका बहुत सम्मान था और अन्य बिरादरियों में भी उनके हंसमुख और मददगार व्यवहार के कारण उनके बहुत से चाहने वाले थे. पश्चिमी यूपी के कुख्यात माफिया सुशील मूंछ से भी उनके गहरे संबंध थे.

11 अप्रैल 1988 के दिन ओंकार किसी काम से देहरादून आये थे. अपना काम निपटाने के बाद वो विनोद बड़थ्वाल और सूर्यकांत धस्माना से मिले. सभी ने देहरादून और मेरठ की छात्र राजनीति पर लंबी चर्चा की. इस मुलाक़ात के बाद ओंकार अपने साथी लोकेश के साथ लौटने लगे कि तभी राजा रोड से प्रिंस चौक की तरफ बढ़ उनकी कार के सामने आकर निक्कू और जाकिर ने उन पर ताबड़तोड़ फायर कर दिए.

ओंकार सिंह के नीचे गिरते ही उनकी लाइसेंसी पिस्टल हुक में से अलग कर के निक्कू और उसका साथी मोटर साइकल से फरार हो गए. सारे बाजार के शटर धड़ा-धड़ गिरने लगे और पूरे शहर में ख़ौफ़ पसर गया.

थोड़ी ही देर में पुलिस आई और ओंकार सिंह का शव दून अस्पताल की मॉर्चरी में पहुंचा दिया गया. ओंकार की मौत की सूचना पर उनका भाई ओमवीर सिंह और पश्चिम यूपी के कई बाहूबली माफिया भी दून अस्पताल पहुँचे. अब निक्कू कई बड़े माफियाओं के रडार पर आ गया था. इधर देहरादून में तो विनोद बड़थ्वाल का ग्रुप पहले से ही उसके हर कारनामे पर पैनी नजर बनाए हुए था. लेकिन अब निक्कू की तलाश में मेरठ, बागपत और मुज़्ज़फ़रनगर के भी कई बदमाश दून आने लगे थे.

खतरे को भांपते हुए निक्कू ने एक मामले में सहारनपुर कोर्ट में अपनी जमानत तुड़वा ली और जेल चला गया. इस बीच बदमाशों ने उसके छोटे भाई निटटी और साथी पप्पू काने की हत्या कर दी. इस हत्याकांड से निक्कू बौखला उठा. उसने माना कि इस हत्याकांड में विनोद बड़थ्वाल के ग्रुप का भी हाथ है. उसने एक बार फिर सीधे तौर पर विनोद बड़थ्वाल और सुभाष शर्मा को जान से मारने की धमकी दे डाली.

ये दौर हेमवती नंदन बहुगुणा की बग़ावती राजनीति का दौर था. वो कांग्रेस को छोड़ चुके थे और राष्ट्रीय लोकदल का गठन कर पौड़ी लोकसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी चंद्रमोहन नेगी को भारी अंतर से हरा चुके थे.

विनोद बड़थ्वाल, सूर्यकांत धस्माना और सुभाष शर्मा समेत उनके ग्रूप के सौ से ज्यादा युवा बहुगुणा जी के लोकदल में काम कर रहे थे. उन्होंने विनोद बड़थ्वाल को पार्टी में प्रमुख पद दे दिया था. उधर, सूर्यकांत धस्माना भी अब डीएवी का छात्र संघ चुनाव जीत चुके थे. इन लोगों की शहर में अच्छी-ख़ासी लोकप्रियता थी और यही क़ारं है कि जब इन पर सीधा हमला हुआ तो पूरा शहर आक्रोश से भर गया.

ये दिन था 24 अगस्त 1988. सुबह के लगभग 11 बजे थे. विनोद बड़थ्वाल और उनके साथी राकेश वासन पायल सिनेमा हॉल के सामने शकील नाई की दुकान पर बाल कटवाने पहुंचे. वो कुर्सी पर बैठे ही थे कि चार हमलावर दुकान के संकरे से गेट पर आए और सेमी ऑटोमेटिक हथियारों से अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी.

विनोद बड़थ्वाल और उनके साथी राकेश वासन को कई गोलियां लगी. नाई शकील भी इस हादसे में घायल हो गया. इन लोगों को जमीन पर लहूलुहान गिरा देख हमलावर इन्हें मरा हुआ मानकर वहां से फ़रार हो गए.  

ये खबर आग की तरह पूरे शहर में फैल गई. बड़थ्वाल और अन्य घायलों को तुरंत दून अस्पताल पहुँचाया गया और वहां से उन्हें दिल्ली एम्स रेफ़र कर दिया गया. इधर इस घटना के विरोध में देहरादून भर में लोग सड़कों पर उतर आए. जगह-जगह तोड़फोड़ और आगजनी होने लगी. लाखों की संपत्ति जलकर खाक हो गई.

उधर दिल्ली में कई दिनों के ईलाज के बाद विनोद बड़थ्वाल और उनके साथी की जान बच तो गई लेकिन निक्कू अब प्यासे खूनी की तरह उनको मारने की फिराक में रहने लगा था. एक दिन उसे खबर मिली कि विनोद बड़थ्वाल और सुभाष शर्मा करणपुर में सूर्यकांत धसमना के घर आए हुए हैं. निक्कू अपनी पूरी गैंग के साथ हैंड ग्रेनेड और मशीन गन जैसे हथियारों से लैस करणपुर की तरफ बढ़ चला.

इस हमले को अंजाम देने के लिये वो हरिद्वार रोड से होता हुआ रेसकोर्स से शहर में दाखिल हुआ. काले शीशे लगी एक कार में वो रेसकोर्स से गुजर ही रहा था कि उसकी नज़र मॉर्निग वॉक करते बड़े शराब व्यापारी गरीब दास पर ठहर गई. इतना बड़ा व्यापारी बिना किसी सुरक्षा के घूम रहा था. निक्कू को एहसास हुआ कि ऐसा मौक़ा शायद दोबारा न मिले. उसने अपने साथियों से बात की और हमले के कार्यक्रम को टालते हुए पहले गरीब दास का अपहरण करने की योजना बना डाली.

रेसकोर्स का एक चक्कर तेजी से लगाने के बाद निक्कू ने गरीब दास जी के ठीक बगल में कार लगा कर उन पर स्टेन गन तान दी. वो बिना प्रतिरोध के गाड़ी में बैठ गए और निक्कू ने किसी अज्ञात स्थान की तरफ पूरी रफ़्तार से गाड़ी दौड़ा दी.

रेसकोर्स के सैकड़ों लोगों के साथ निक्कू का उठना बैठना था. वहाँ के लोग निक्कू की परछाई भी पहचानते थे. कई लोगों ने निक्कू को अपहरण करते हुए देखा भी. लेकिन किसी ने भी समय से जुबान न खोली. यदि कोई भी तुरन्त पुलिस को इसकी सूचना दे देता तो निक्कू ज्यादा दूर तक नहीं जा सकता था. लेकिन उसके ख़ौफ़ से सभी ख़ामोश रहे और निक्कू गरीब दास जी को लेकर फ़रार हो गया. हालांकि इस घटना से सूर्यकांत धस्माना और उनके साथियों की जान बच गई.

अपहरण के इस मामले में भी निक्कू पुलिस के हाथ नहीं आया और गरीब दास जी की रिहाई फिरौती की भारी रक़म चुकाने के बाद ही हो सकी. इस घटना से देहरादून के माहौल में अब नई तरह का भय और आतंक फैल गया. लोगों ने मॉर्निंग वॉक करना बन्द कर दिया और अंधेरा होने से पहले ही व्यापारी लोग अपने घर लौटने लगे.

इसी माहौल के बीच देहरादून में नए एसएसपी अवस्थी ने पदभार ग्रहण किया. उन्हें एक ईमानदार पुलिस अधिकारी के रूप में जाना जाता है. उन्होंने विनोद बड़थ्वाल, सूर्यकांत धस्माना और सुभाष शर्मा को पुलिस सुरक्षा दी. लेकिन, सुभाष शर्मा के दिमाग में अब कुछ और ही चल रहा था.

सुभाष बताते हैं कि ‘हमारे कई साथी मारे जा चुके थे. अब अपनी जान बचाने के लिए हमें वो सब करना था जो हम कर सकते थे. मैंने और ओंकार सिंह के भाई ओमवीर ने पश्चिम यूपी में निक्कू की मुखबिरी करने के लिये मजबूत नेटवर्क स्थापित किया. हमें मालूम चला कि निक्कू अब परिवार समेत फरीदाबाद में रहता है. हमने पुलिस को कई सटीक सूचना दी. इससे फायदा ये हो गया कि एसएसपी अवस्थी को हम पर इतना भरोसा हो गया कि पुलिस टीम को कई बार दबिश के लिये मेरे ही साथ भेजा जाने लगा. हालांकि ये सब ऑफ रिकॉर्ड होता था.’

एक तरफ सुभाष शर्मा पुलिस के साथ मिलकर निक्कू की फ़ील्डिंग कर रहे थे और दूसरी तरफ निक्कू के अपराधों का सिलसिला लगातार जारी था. उसने उस वक्त के सहकारी बाजार के अध्यक्ष प्रमोद कुमार सिंह पर भी गोलियां चलवाई और विनोद बड़थ्वाल के छोटे भाई कैलाश पर भी हमला करने के लिए अपने गुर्गे रवाना किए.

सुभाष शर्मा बताते हैं, ‘निक्कू के पास .45 बोर की पिस्टल होती थी. उसे उसकी गोलियों की दरकार थी. हमें खबर मिली कि निक्कू हापुड़ के पास एक डीलर से ये गोलियां लेने आने वाला है. मैंने हमेशा की तरह देहरादून से अपनी पसन्द की पुलिस टीम माँगी और एक-दो लाइसेंसी हथियार वाले युवक मेरठ से साथ ले लिए. ओमवीर सिंह भी हमारे साथ थे. उनके मेरठ, हापुड़ और पिलखुवा मे बहुत अच्छे सम्पर्क थे. उन्होंने निक्कू के आने की संभावना वाली जगह के बिलकुल पास ही हमें भी मोर्चा लेने की व्यवस्था करवा दी.

हम पूरा दिन और पूरी रात उस संभावित ठिकाने को टारगेट कर के हथियारों के साथ मोर्चा थामे रहे. रात भर हमने एक पल भी झपकी नहीं ली. लेकिन निक्कू वहां नहीं आया और हम थके हारे देहरादून लौटने लगे.हम कुछ ही किलोमीटर आगे आए थे कि हमारा एक साथी पीछे से तेजी से स्कूटर पर आता दिखा. उसने हमें रुकने का इशारा किया तो गाड़ी साइड में लगा कर हम गाड़ी से उतरे. उसका चेहरा उतरा हुआ था. उसने बताया कि निक्कू के गुर्गों ने देहरादून में विनोद बड़थ्वाल के भाई कैलाश की हत्या कर दी है.’

कैलाश अपने एक-दो साथियों के साथ न्यू एम्पायर सिनेमा के सामने से गुजर रहे थे तभी निक्कू के शूटरों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी. कैलाश के नीचे गिरने पर उन्होंने इत्मीनान से कैलाश के सिर पर भी गोली दाग दी. विनोद बड़थ्वाल पर हमले के समय निक्कू से जो गलती हुइ थी वो उसे दोहराना नहीं चाहता था.

चर्चित मनमोहन सिंह नेगी इत्तेफाकन वहीं से गुजर रहे थे. उन्होंने तुरंत कैलाश बड़थ्वाल को अपनी कार में डालकर दून हॉस्पिटल पहुंचाया, लेकिन इससे पहले ही उनकी मौत हो चुकी थी. बड़थ्वाल और धस्माना दून हॉस्पिटल पहुंचे. उनके लिए ये बहुत ही बड़ा आघात था. प्रशासन सिर्फ़ गर्दन झुकाए खड़ा था और निक्कू बेधड़क अपराध किए जा रहा था.

निर्दोष कैलाश की हत्या से नौजवानों और छात्रों में जबरदस्त आक्रोश था. हजारों की संख्या में छात्र सड़क पर उतर आये थे और कई जगह तो हिंसक प्रदर्शन भी हुए. कोतवाली का घेराव किया गया और तत्कालीन कोतवाली के अधिकारियों को सस्पेंड किया गया.

इस घटना के बाद सुभाष शर्मा और ओमवीर सिंह दोनों ने कई महीनों तक अंडर ग्राउंड रहकर निक्कू के संभावित ठिकानों को तलाशने का लंबा और चुनौती पूर्ण काम किया. इसी दौरान देहरादून की लक्खीबाग चौकी में सब इंस्पेक्टर महेंद्र सिंह नेगी की तैनाती हुई. उनके कार्यकाल में ही निक्कू के जीवन का अंतिम अध्याय लिखा गया. लेकिन इस अध्याय तक पहुँचने से पहले एक नजर उस दौर के राजनीतिक घटनाक्रम पर डालना जरूरी है.

ये वो समय था जब हेमवती नंदर बहुगुणा की तबियत बिगड़ने के चलते उन्हें बाईपास सर्जरी के लिए अमेरिका भेजा गया जहां ऑपरेशन के दौरान ही उनकी मौत हो गई. इधर राष्ट्रीय राजनीति में बोफोर्स दलाली का मुद्दा उठा कर वीपी सिंह ने हवा का रुख कांग्रेस के खिलाफ मोड़ दिया था. इसका असर निक्कू पर भी हुआ. क्योंकि जिस दिग्गज कांग्रेसी नेता की सरपरस्ती में वो अब तक फल-फूल रहा था, और जिसके दिल्ली स्थित बंगले में उसे अक्सर पनाह मिलती थी, उसकी ख़ुद की राजनीतिक पकड़ कमजोर होने लगी थी.

इधर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार बन चुकी थी. यानी विनोद बड़थ्वाल, सूर्यकांत धस्माना और सुभाष शर्मा की पार्टी अब सत्ता में थी और खुद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का हाथ इन सभी के सिर पर था. लिहाजा, पुलिस को स्पष्ट निर्देश दे दिए गए थे कि निक्कू के अपराधों का घड़ा अब भर चुका है और उस घड़े के टूटने का वक्त अब आ गया है.

तारीख़ थी 23 दिसम्बर 1989. सुभाष शर्मा के एक विश्वसनीय खबरी ने सूचना दी कि देहरादून से एक आदमी निक्कू से मिलने दिल्ली जा रहा है और अपनी जिप्सी में वो निक्कू के लिए गैस के सिलिंडर, देहरादून की मशहूर कुमार स्वीट शॉप की मिठाइयां, एक बड़े स्टोर से कुछ गर्म कपड़े आदि भी ले जा रहा है. इसकी सूचना सब इंस्पेक्टर महेंद्र सिंह नेगी को भी दी गई. इस बात की पुष्टि के लिए सुभाष शर्मा और महेंद्र सिंह नेगी ख़ुद रात के अंधेरे में उस जिप्सी को चेक करने पहुंचे. बताया गया सभी सामान जिप्सी में मौजूद था.

मुखबिर की बात सही होने पर दोनों लोग सीधे एसएसपी अवस्थी के सरकारी आवास पहुंचे. तय हुआ कि दिल्ली जा रहे युवक का पीछा किया जाए और जब वो निक्कू से मिले तो उसे दबोच लिया जाए. एसएसपी ने दोनों के गेम प्लान पर हामी भरी और दोनों हथियार लेने शहर कोतवाली की जगह सीधा पुलिस लाइन पहुंचे. पुलिस लाइन इसलिये, क्योंकि उन्हें पता चल चुका था कि निक्कू का एक खबरी शहर कोतवाली में भी है जो पुलिस के हर मूवमेंट की खबर उस तक पहुंचा देता है. लिहाजा, इस बार पुलिस टीम ने वो गलती नहीं की, जिसका फायदा निक्कू को मिलता.

सुबह साढ़े पांच बजे वो आदमी जिप्सी लेकर अपने घर से निकला. पुलिस की गाड़ी पहले से ही उसके घर के पास तैयार खड़ी थी. सब इंस्पेक्टर महेंद्र सिंह नेगी के नेतृत्व में ये टीम दिल्ली के लिये रवाना हुई.

दिल्ली पहुंचने पर दून पुलिस की टीम के साथ दिल्ली क्राइम ब्रांच भी ऑपरेशन में शामिल हो गई. उस आदमी की जिप्सी सीधे दरियागंज के एक नामी होटल में जाकर रूकी. वहां होटल के एक कर्मचारी ने देहरादून से आए इस युवक का गर्मजोशी से स्वागत किया. लेकिन वहां निक्कू नहीं था. पुलिस ने पास के एक घर से होटल पर नजर रखना शुरू किया. लेकिन पूरा एक दिन बीत जाने पर भी निक्कू वहां नहीं आया. पुलिस टीम अब हताश होने लगी.


तत्कालीन सब इंस्पेक्टर और पुलिस विभाग से डीएसपी रिटायर हुए महेंद्र सिंह नेगी बताते हैं कि हमारे लिए समय काटना मुश्किल होता जा रहा था. तभी हमें खबर मिली की निक्कू दिल्ली में न होकर सहारनपुर में है और रात को देहरादून के लिये रवाना होगा. ये सुनते ही पूरी टीम आनन-फ़ानन में देहरादून लौटी. निक्कू को दबोचने के लिये एक नया प्लान बना और आशा रोड़ी चेक-पोस्ट पर सघन चेकिंग अभियान शुरू कर दिया गया.

सुबह लगभग पांच बजे नीली रंग की मारूति 800 में निक्कू अपने एक साथी के साथ वहां पहुंचा. पुलिस की कहानी के अनुसार उन्होंने कार को रुकने का इशारा किया लेकिन निक्कू ने गोलियां चलाना शुरू कर दिया और जवाबी कार्रवाई में पुलिस ने भी गोलियां चलाई जिसमें निक्कू की मौत हो गई.

लेकिन पुलिस की इस कहानी से इतर निक्कू की मौत से जुड़ी कुछ कहानियाँ और भी प्रचलित हैं. इनमें सबसे प्रचलित ये है कि उस दिन निक्कू की हत्या पुलिस ने नहीं बल्कि पुलिस की मौजूदगी में और पुलिस की रज़ामंदी से विनोद बड़थ्वाल के एक खास दोस्त ने की. उसने निक्कू के शरीर में कई गोलियां उतारी और हर एक गोली चलाते हुए वो अपने मारे गए साथियों को याद करता रहा.

निक्कू की मौत के साथ ही देहरादून में संगठित अपराधों का दूसरा अध्याय भी समाप्त हो गया. उसके बाद देहरादून शहर में कभी कोई इतना बड़ा कुख्यात पैदा नहीं हुआ. लेकिन उत्तराखंड के अन्य इलाकों में कई कुख्यात और भी हुए जिनकी कहानी हम सुनाएँगे कुख्यात के आने वाले एपिसोड्स में.

 

स्क्रिप्ट : मनमीत 

 

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