ये कहानी है एक ऐसे शख्स की, जो दिखने में जितना खूबसूरत था, उसके काम उतने ही बदसूरत. एक ऐसा शख्स जिसने अपने गुरू भरतू दाई की शार्गिदी में वो दरिंदगी सीखी, जिसकी बदौलत वो पूरे उत्तराखंड का सबसे बड़ा माफिया बना.
ऐसा माफिया जो इटली के गॉडफादर्स से इतना प्रभावित था कि उन्हीं की तरह ब्लैक लेदर जैकेट और एविएटर सन ग्लास पहना करता. वो जब इस पोशाक में अपनी मोटरसाइकिल पर स्टंट करता तो कॉलेज के युवाओं की धड़कने थम जाती और जब युवाओं की नजर उसकी कमर पर लटकती मशीन गन पर पड़ती तो सब सहम जाते. उसकी हनक इस कदर थी कि जब वो मशीनगन से लैस होकर कर शांत पहाड़ी सड़कों पर खुलेआम टहलता तो बगल से गुजर रहे पुलिस अधिकरी तक अपनी नजरें झुका लेते. उसके काले धंधों में जो भी रूकावट पैदा करता, उसकी हत्या करके शव गायब कर दिया जाता. बताते हैं कि हत्या करने के बाद शरीर को गायब कर देने का तरीका उसने अमेरिकन माफियाओें की फ़िल्में देखकर सीखा था. लेकिन नियति देखिए, इस माफिया का जब अंत हुआ तो उसका खुद का शरीर भी उसके परिवार वालों को नसीब न हो सका.
ये कहानी है उत्तराखंड के सबसे बड़े शराब माफिया की. ऐसा शराब माफिया जिसने पॉंटी चड्ढा और डीपी यादव जैसे माफ़ियाओं के सिंडिकेट को गढ़वाल के पहाड़ों से उखाड़ फेंका था, ऐसा माफिया जिसके सिर पर एक पूर्व प्रधानमंत्री का हाथ था और जो उस दौर के चर्चित पत्रकार और लेखक उमेश डोभाल की हत्या के चलते भी कुख्यात हुआ. इस कुख्यात का नाम था, मनमोहन सिंह नेगी.
देहरादून में सत्तर का दशक भरतू दाई के वर्चस्व का दशक था. वही भरतू दाई जिसकी कहानी आपने कुख्यात के पहले एपिसोड में देखी. शहर में तब हर ओर भरतू दाई की तूती बोला करती थी. स्कूल कॉलेज में जाने वाले न जाने कितने ही युवा तब भरतू दाई की तरह दिखना और छा जाना चाहते थे. इन्हीं में से एक था फौजी परिवार में पला बड़ा नौजवान मनमोहन सिंह नेगी.
मनमोहन डीएवी इंटर कॉलेज में भरतू का जूनियर हुआ करता था और किसी भी तरह से भरतू की नज़रों में आना चाहता था. स्कूली दिनों में तो उसका ये सपना साकार नहीं हो सका लेकिन 12वीं के बाद उसे भरतू दाई की शागिर्दी हासिल हो गई. ये मौक़ा उसके जीवन में तब आया जब राजपुर रोड में उसकी स्टंट करती बाइक पर वहां से गुजर रहे भरतू दाई की नजर पड़ी और उसे गैंग के अड्डे पर तलब किया गया. ब्रूसली जैसी फुर्ती और मार्शल आर्ट की प्रेक्टिस से तपा उसका बदन देख भरतू इतना प्रभावित हुआ कि मनमोहन को अपने गैंग में शामिल कर लिया. मनमोहन की तो जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई थी. इसी गैंग में रहते हुए फिर उसने हथियार चलाने के साथ-साथ हर वो दरिंदगी सीखी, जिसकी जरूरत उसे आगे पड़ने वाली थी.
भरतू दाई के गैंग में अभी वो तरक्की कर ही रहा था कि एक दोपहर देहरादून के एस्लेहॉल चौक पर रेशम दाई, मजनू और शशि थापा ने ताबड़तोड़ फायर करते हुए भरतू की हत्या कर दी. इस हत्या से भरतू का पूरा गैंग बिखर गया और शहर में रेशम थापा, शशि, विजय कांणा और नरदेव का कब्जा हो गया. देहरादून शहर रक्तरंजित हो रहा था और भरतू गैंग से बिखरे बदमाश अपनी जान बचाते घूम रहे थे. मनमोहन सिंह नेगी ने भी अपने धर्मपुर में मौजूद घर को छोड़कर पौड़ी के विकास मार्ग पर मौजूद पुश्तैनी घर का रूख कर लिया था. यहां कुछ दिन तो वो शांत रहा लेकिन लम्बे समय तक शांत रहना उसकी फ़ितरत में ही नहीं था. उसके अंदर का दबंग उछाल मार रहा था और वो बस एक मौके की तलाश में था. ये मौक़ा भी जल्द ही आया. लेकिन कहानी को आगे बढ़ाने से पहले उस दौर के पौड़ी शहर पर एक सरसरी नजर मारते हैं जिसने मनमोहन सिंह नेगी को मन्नू दाई बनाया.
ये वही सत्तर का दशक था जब पौड़ी को एक मुकम्मल शहर हुए सालों बीत चुके थे. उस दौर में युवा पत्रकार उमेश डोभाल जनसरोकार की पत्रकारिता से पूरे देश को पहाड़ की विषमता और गुरबत से लड़ रहे समाज से रूबरू करा रहे थे.
ये वो दौर भी था जब पौड़ी शहर से लगते च्वींचा, कांडई और बैंग्वाड़ी गांव के लोगों से उलझना समझदारी नहीं मानी जाती थी. खासकर च्वींचा गांव इस मामले में ज्यादा ही बदनाम था. मारपीट, शराबखोरी और जुएबाजी के किस्से इस गांव के बारे में खौफ का एक माहौल बनाते थे. इसी दौरान एक सनसनीखेज खबर आई कि पौड़ी की मालरोड पर एजेंसी के निकट मन्नू यानी मनमोहन सिंह और च्वींचा गांव के प्रभु दयाल के बीच तमंचेबाजी हुई है और प्रभु दयाल को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा है. इस गोलीकांड का तात्कालिक कारण जो भी रहा हो, लेकिन ये वर्चस्व की ही जंग थी.
इस घटना के बाद मन्नू और उसके साथियों की गिरफ्तारी हुई और च्वींचा के साथ उसकी दुश्मनी की स्थायी गांठ बंध गई. ये उसकी पहली गिरफ्तारी थी. लेकिन इसके बाद उसकी दबंगई का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि स्थानीय थाने में उसे ‘नंबरी’ का दर्जा मिला. हालाँकि स्थानीय पुलिस के लिए वो हमेशा एक ‘वीआईपी गैंगस्टर’ बना रहा.
पौड़ी में अपनी दहशत फैलाने के बाद मनमोहन सिंह नेगी ने कोटद्वार का रूख किया. सत्तर के दशक में कोटद्वार शहर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के माफियाओं की आरामगाह हुआ करता था. बड़े बड़े हिस्ट्रीशीटर पश्चिम यूपी में अपराधिक घटनाओं को अंजाम देकर कोटद्वार में शरण लिया करते थे, जहां उस वक्त कुख्यात बदमाश मेहरबान सिंह उर्फ मेहरू दाई का वर्चस्व था. मेहरू उस दौर में रंगदारी, फिरौती, सुपारी लेकर हत्या करने और डकैती जैसे अपराधों में उत्तर प्रदेश के छँटे हुए कुख्यातों में शामिल था. उसे नजीबाबाद के एक बड़े व्यापारी संरक्षण हासिल था.
वक्त अब अस्सी के दशक में आमद करने वाला था. मनमोहन सिंह नेगी अपनी बलशाली देह दुस्साहसी दबंगई से कोटद्वार के युवाओं को प्रभावित कर रहा था. अब तक टिंचरी सप्लाई के धंधे में उसने दस्तक दे दी थी और कोटद्वार में वो अपना एक छोटा-सा गैंग भी बना चुका था. उसकी दबंगई यहां तब कुछ और मजबूत हो गई जब कोटद्वार महाविद्यालय में छात्र संघ के चुनाव हुए. इन चुनावों में गोपाल काला और भुवन सिंह के बीच कांटे की टक्कर थी. चुनाव तय समय पर हो भी चुके थे और मतपत्रों को मतपेटियों में बंद कर स्ट्रोंग रूम में सुरक्षित रखा जा चुका था. लेकिन चुनावों में शामिल एक प्रत्याशी को जब ये अहसास हुआ कि उसका जीतना मुश्किल है तो उसने मनमोहन सिंह नेगी से मदद मांगी.
मनमोहन दिन दोपहर हथियार लहराते हुए कॉलेज के स्ट्रांग रूम दाखिल हुआ और फायरिंग करते हुए मतपेटी लूट कर ले गया. इस घटना से पूरे प्रशासन में हड़कंप मच गया और कॉलेज प्रशासन को चुनाव रद्द करने पड़े. मनमोहन की दबंगई के क़िस्से अब पौड़ी की पहाड़ियों से लेकर भाबर की तराई तक गूंजने लगे थे. पहाड़ में सप्लाई होने वाली हर वैध-अवैध शराब में अब उसकी पत्ती तय हो गई. उसका वर्चस्व जैसे-जैसे बढ़ रहा था, उसका गैंग भी उसी तेजी से विस्तार पा रहा था. कई छोटे-बड़े गुंडे उसके साथ शामिल होने को आतुर थे. इन्हीं में से एक था बलदेव सिंह.
मूल रूप से हिमाचल के कांगड़ा जिले का बलदेव कोटद्वार में ट्रक चलाया करता था. लेकिन उसका दिमाग भी मानो अपराध के लिए ही बना था. मनमोहन सिंह की शार्गिदी में आकर उसने कई हत्याकांडों को अंजाम दिया. इनमें सबसे कुख्यात हत्याकांड था कोटद्वार के बदमाश टिल्लू की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या करना.
उस दौर में पूरे उत्तराखंड में शराब के व्यापार पर गरीब दास का एकछत्र राज हुआ करता था. पर्वतीय जिलों में शराब का लगभग हर ठेका गरीब दास का था. ये शराब कोटद्वार से ही पहाड़ों पर चढ़ती थी जो अब मनमोहन सिंह नेगी के कब्जे में था. गरीब दास को जब पहाड़ों में शराब पहुंचाने में दिक्कत होने लगी तो उसने मनमोहन सिंह के सामने हथियार डाल दिए और कोटद्वार के ठेके में उसे दस पैसे की पत्ती दे द. ये पत्ती तो दस पैसे की थी, लेकिन इसी दस पैसे की पत्ती ने आगे चल कर मनमोहन सिंह को एक छुटभैया गुंडे से बड़े शराब माफिया बनने के रास्ते खोल दिए. पहली बार वैध रूप से शराब के धंधे में कूदे मनमोहन सिंह को ये काम बड़ा रास आया और देखते ही देखते उसने पूरे गढ़वाल से गरीब दास का वर्चस्व ही समाप्त कर दिया.
अब जगह-जगह मनमोहन सिंह नेगी के ठेके होने लगे. उसने पहाड़ों में इतना मज़बूत सिंडिकेट बनाया कि आगे चलकर पौंटी चडडा और डीपी यादव जैसे बड़े शराब माफिया भी इस ओर कभी रूख नहीं कर पाए. पहाड़ों के हर गांव और कस्बों में उसने अपने गैंग का इतना मजबूत नेटवर्क खड़ा किया कि कहीं पर भी कोई घटना होती थी तो कुछ ही देर में मनमोहन सिंह नेगी के पास उसकी सूचना पहुंच जाती. शराब के धंधों से मनमोहन सिंह ने अकूत संपत्ति बनाई. करोड़ों की संपत्ति और पूरे गढ़वाल में एकछत्र राज कायम करने के बाद अब मनमोहन सिंह की राजनीतिक महत्वकांक्षा हिलौरे मारने लगी थी.
ये वो दौर भी था जब राजीव गांधी की सरकार फेयरफैक्स और बोफोर्स घोटाले में फंस चुकी थी. भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए राजीव गांधी सरकार में रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह ने 13 अप्रैल 1987 को इस्तीफा दे दिया था और अपना जनमोर्चा संगठन बनाकर वो सरकार के खिलाफ पूरे देश में जन-यात्राएं कर रहे थे. वीपी सिंह के ही साथ पांच अन्य सांसदों ने भी इस्तीफा दिया था जिसमें पौड़ी संसदीय सीट से सांसद और पर्वतीय विकास मंत्री चंद्रमोहन सिंह नेगी भी शामिल थे. मनमोहन नेगी की सांसद चंद्रमोहन नेगी से अच्छी पहचान थी और इसी पहचान का फायदा उठाकर उसने वीपी सिंह से नजदीकियां बढ़ाना शुरू किया.
इस राजनीतिक संरक्षण का आगे चलकर मनमोहन नेगी को फायदा भी मिला. स्थानीय प्रशासन से लेकर सत्ता के गलियारों तक में उसकी मजबूत पैठ बनी लेकिन इसी दौर में कुछ लोग ऐसे भी थे जो निडर होकर मनमोहन सिंह नेगी के वर्चस्व को चुनौती दे रहे थे और उसके काले कारनामों के ख़िलाफ़ आवाज बुलंद कर रहे थे. इनमें सबसे बड़ा नाम था स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के कर्मचारी और ट्रेड यूनियन के सदस्य राजेंद्र रावत का.
राजेंद्र रावत को पौड़ी में अधिकतर लोग राजू भाई या कामरेड कहकर पुकारा करते थे. उनकी पत्रकार उमेश डोभाल से अच्छी दोस्ती थी. उमेश डोभाल तब पौड़ी में ही अमर उजाला के संवाददाता थे. ऐसे संवाददाता, जिनकी लेखनी की धार से पूरा देश पहाड़ की महिलाओं की पीड़ा, समाज की गुरबत और सरकारी बेरुख़ी से मुखातिब हो रहा था. उमेश डोभाल अपनी रिपोर्ट्स के माध्यम से शराब माफियाओं को भी खुली चुनौती दे रहे थे. वो भी तब, जब लगभग पूरा तंत्र शराब माफिया मनमोहन सिंह ने खरीद लिया था. ये अस्सी का वही दौर था जब अल्मोड़ा और नैनीताल में शराब के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन होने लगे थे.
कुमाऊं में दूरस्थ गांवों और छोटे-छोटे कस्बों-शहरों के हजारों लोग इस आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे. आख़िरकार जनता के भारी विरोध के आगे तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को झुकना पड़ा और इन क्षेत्रों में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया गया. हालांकि, आंदोलन के शांत होते ही शराब माफियाओं के दबाव में आकर सरकार ने ठेके फिर से खोल दिए थे. कुमाऊं क्षेत्र के 254 ठेकों के अनुबंधों की नीलामी एक शराब माफिया को कर दी गई थी.
सरकार के इस फैसले से आहत उमेश डोभाल ने पौड़ी जिले में अवैध शराब के कारोबार को लेकर धारदार लेख लिखना शुरू किया. उस दौरान अमर उजाला अखबार में लिखे गए उनके चर्चित लेख ‘बंदूक की नोक पर टेंडर कैसे लूटे जाते हैं’ से शराब माफियाओं की भौंहे उमेश डोभाल पर तन गई. उन्हें कई बार जान से मारने की धमकी दी जाने लगी लेकिन उन्होंने लिखना जारी रखा. फिर 25 मार्च 1988 की वो रात आई जब पौड़ी के सन एंड स्नो होटल में उमेश डोभाल की हत्या करने के बाद उनका शव ग़ायब कर दिया गया. इस हत्या के सीधे आरोप मनमोहन नेगी और उसके साथी बलदेव पर थे. लेकिन कई दिनों तक तो ये बात सामने ही नहीं आ सकी थी कि उमेश डोभाल की हत्या हो गई है.
शुरुआत में पौड़ी के लोगों यही लगा कि उमेश शायद शहर से बहार गए हैं. लेकिन उन्हें ग़ायब हुए जब एक महीने से ज़्यादा का समय बीत गया तो लोगों को कुछ गड़बड़ हो जाने का संदेह हुआ. लोगों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई तो पुलिस ने पहले तो उसका संज्ञान ही नहीं लिया. बाद में जब लोगों को इसका आभास हो गया कि उमेश डोभाल की उनकी धारदार पत्रकारिता के चलते हत्या कर दी गई है तो लोग सड़कों पर उतर आए. उन्होंने मनमोहन सिंह और उसके साथियों के खिलाफ नामजद तहरीर दी तो पुलिस बैकफुट पर आना पड़ा. पत्रकारों की पहल पर उमेश डोभाल खोज संघर्ष समिति का गठन किया गया. भारी दबाव के चलते आख़िरकार तीन मई को पुलिस ने मामला दर्ज किया. इसके 27 दिन बाद यानी 30 मई को ये मामला क्राइम ब्रांच मेरठ को ट्रांसफर कर दिया गया लेकिन इसके बावजूद भी ठोस कार्रवाई नहीं हुई. तब जून और जुलाई के महीनों में लखनउ, दिल्ली, कुमाउ और गढ़वाल के तमाम पत्रकारों के साथ ही आम लोगों ने विरोध प्रदर्शन और रैलियां निकालनी शुरू किया. ये आंदोलन ज़ोर पकड़ ही रहा था कि तभी एक ऐसी घटना हुई जिससे इस संघर्ष को बड़ा झटका लगा.
जैसा कि हमने पहले भी जिक्र किया, ये वो दौर था जब वीपी सिंह का जनमोर्चा देश के विभिन्न राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ रैलियां आयोजित कर रहा था. ऐसी ही एक रैली और जनसभा दिसम्बर महीने में कोटद्वार से शुरू होकर बद्रीनाथ तक जानी थी. कहा जाता है कि इस जनसभा और रैली के लिए पूरी व्यवस्था मनमोहन सिंह नेगी ने की थी. उसने अपने पूरे गैंग को इस रैली की तमाम व्यवस्था संभालने में लगा दिया था. इस रैली का आयोजन करवा कर पौड़ी संसदीय सीट से इस्तीफा दे चुके चंद्रमोहन सिंह नेगी वीपी सिंह के कुछ और करीब आ गये थे.
चंद्रमोहन नेगी ने इसका इनाम देते हुए मनमोहन सिंह नेगी की पीठ थपथपाई. इससे मनमोहन को बड़ा फायदा हुआ और सत्ता के गलियारों में उसकी अच्छी खासी धाक हो गई. इस दौर में मनमोहन नेगी की इतनी पहुंच हो गई थी कि उसने एक अनाम व्यक्ति पृथ्वी पाल सिंह चौहान को एमएलसी तक बनवा दिया. कहा जाता है कि भारी धनबल के जरिये मनमोहन सिंह ने न केवल एमएलसी बनवाया, बल्कि पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश और अब के उत्तराखंड के जिलों में ये साफ संदेश दे दिया कि सत्ता के गलियारों में भी उसकी बेहद मजबूत पैठ है. उधर, पौड़ी में उमेश डोभाल संघर्ष समिति आंदोलन छेड़े हुए थी. उन्होंने उमेश की हत्या के खिलाफ पौड़ी मुख्यालय में प्रदर्शन का आयोजन रखा था जिसे कुचलने के लिए शराब माफिया और उसका अंडरवर्ल्ड कमर कसे तैयार था. समूचा प्रशासन तंत्र खरीद लिया गया था और लगभग पूरा पौड़ी शहर शराब माफिया के पक्ष में छपे उन पोस्टरों से पाट दिया गया था जिन पर लिखा था ‘माफिया नहीं, मसीहा है.’ शहर के कई नेता, कथित बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार तक घबराकर दुबक गए थे या शराब माफिया के पाले में जा खड़े हुए थे. प्रदर्शन के तय समय पर शमशेर बिष्ट, वाचस्पति गैरोला, रमेश पहाड़ी, सीएम लखेड़ा, राजीव कोठारी, बच्ची राम कौंसवाल आदि बेखौफ होकर पौड़ी पहुंच चुके थे. लेकिन वे लोग ये देखकर बेहद निराश हो गए कि पौड़ी के लोग आखिर अपने उमेश डोभाल के लिये क्यों सड़क पर नहीं है.
इन प्रदर्शनकारियों की उम्मीदें टूटने ही वाली थी कि तभी उन्होंने देखा च्वींचा गांव के ग्रामीणों का एक बड़ा जत्था लेकर राजेंद्र रावत सन्नाटे को चीरते हुए बढ़े चले आ रहे थे. मुनादी की जा रही थी कि उमेश का कत्ल किया गया है और कातिल यही शराब माफिया है. कुमाऊं और गढ़वाल के विभिन्न इलाकों से आए पत्रकारों ने तब स्थानीय रामलीला मैदान में बड़ी सभा की और शराब माफिया को खुलकर ललकारा. इसके बाद उमेश की हत्या के खिलाफ पूरे देश में पत्रकारों ने एकजुटता दिखाई. जो च्वींजा गांव कभी अपनी दादागिरी के लिए बदनाम था, उसके लोगों ने दिखा दिया था कि वक्त आने पर वो जनसरोकारों के लिए किसी से भी टक्कर लेने की कुव्वत रखता है.
शराब माफिया की धमकियों से बेपरवाह राजू भाई और ओंकार बहुगुणा ने इस हत्या के खिलाफ लखनऊ से लेकर दिल्ली तक पत्रकार बिरादरी को एकजुट करने और इस हत्याकांड को सीबीआई के हवाले कराने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. आखिरकार हत्या के आरोपित पकड़े गए. मनमोहन सिंह नेगी और बलदेव समेत उस समय के एक रसूखदार नेता के बेटे को भी सीबीआई ने गिरफ्तार किया. जांच के बाद सीबीआई ने मनमोहन नेगी समेत 13 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की, लेकिन 1994 में ये सभी सबूतों के अभाव में बरी कर दिये गए. हत्या के इस आरोप से बारी हो जाने के बाद तो मनमोहन सिंह नेगी का पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश में और भी ज्यादा दबदबा हो गया. सरकारी मिशनरी तक उसके सामने कुछ और ज्यादा झुकने लगी. प्रशासन में नीचे से ऊपर तक, सभी अधिकारी और कर्मचारी उसके लिए काम करने लगे.
मनमोहन सिंह की दबंगई का अंदाज 90 के दशक में हुई एक और घटना से लगाया जा सकता है. तब कोटद्वार महाविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव में समाजवादी विचारधारा से लैस नए छात्रों की पौध निकलनी शुरू हुई थी. देश के हालातों से इन युवाओं के अंदर गुस्सा और कुछ गुजरने का जोश भरा हुआ था.
इसी दौरान छात्रसंघ चुनाव में सचिव पद पर अविकल थपलियाल जीत कर आए. उनका चुनाव जीतना था कि उसी वक्त कॉलेज के गेट बाहर शराब का एक ठेका खुल गया. इस ठेके से न केवल कॉलेज का माहौल बिगड़ने लगा था बल्कि शराब पीकर अराजक तत्व कॉलेज की छात्राओं के लिए भी परेशानी का सबब बनने लगे थे. इस परेशानी से निपटने में दिक्कत ये थी कि ये ठेका भी शराब माफिया मनमोहन सिंह नेगी का था और उसके गुर्गे हथियारों से लैस होकर वहीं बैठे रहते थे. ऐसे में छात्र संघ ने निर्णायक लड़ाई लड़ने की ठानी और सचिव अविकल थपलियाल के नेतृत्व में छात्र ठेके के बाहर ही धरने बैठ गए. पूरे शहर में भारी हो हल्ला हुआ.
मनमोहन सिंह के गुर्गों ने छात्रसंघ के नेताओं को खुले आम गोली मार देने की धमकी भी दी और कई छात्रों के साथ मारपीट भी की. लेकिन इसके बाद भी जब छात्रसंघ के पदाधिकारी नहीं झुके तो प्रशासन ने सभी को वार्ता के लिए बुलाया. तत्कालीन एसडीएम और तहसीलदार के साथ हुई इस वार्ता में तय हुआ कि ठेके को एक महीने के भीतर कहीं और शिफ्ट कर दिया जाएगा. इस सहमति पर छात्रसंघ के पदाधिकारी धरने से उठ गए. लेकिन एक महीने बाद भी जब ठेके को वहां से नहीं हटाया गया और छात्रसंघ के पदाधिकारी अधिकारियों से मिले तो उन्होंने ठेका हटाने से साफ इंकार कर दिया. छात्रों के समझ में आ गया था कि मनमोहन सिंह के खौफ के आगे अब अधिकारी कुछ नहीं करेंगे. आखिरकार छात्रसंघ के सचिव अविकल थपलियाल ने अपने पद से ही इस्तीफा दे दिया. इस पूरे विवाद ने ये साबित कर दिया था कि मनमोहन सिंह नेगी की ताकत के आगे पूरा तंत्र पंगु बन चुका था.
मनमोहन नेगी का वर्चस्व अब उत्तर प्रदेश में दूर-दूर फैलने लगा था. उसने मेरठ तक के शराब के ठेकों पर कब्जा कर लिया था. लेकिन बढ़ते वर्चस्व के साथ ही उसकी दुश्मनी भी अब बढ़ने लगी थी. पौंटी चड्ढा और डीपी यादव समेत वेस्ट यूपी के तमाम बड़े माफिया और कुख्यात मनमोहन सिंह नेगी से रंजिश रखने लगे थे. मनमोहन ने पूरे गढ़वाल के धंधे की जिम्मेदारी अपने खास बलदेव को सौंप दी थी और वो ख़ुद दिल्ली में बैठकर बासमती चावल एक्सपोर्ट करने का नया धंधा शुरू करने लगा था. उसने दिल्ली के केवल विहार में एक लग्जरी फ्लैट खरीद लिया था, जहां वो अपने गुर्गों के साथ रहा करता था. अपने बढ़ते साम्राज्य के नशे में मनमोहन सिंह इस कदर मदमस्त था कि उसे इस बात का अंदाजा तक नहीं हुआ कि उसके इर्द गिर्द रहने वाले उसके खासमखास ही उसके लिए सबसे बड़ा नासूर बनने वाले हैं.
असल में, मनमोहन सिंह का खास आदमी बलदेव उसके लिए हर आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया करता था. हत्या से लेकर वसूली और पूरे धंधे को संभालने का काम बलदेव के पास ही था. लेकिन बलदेव के पास पैसे के लेनदेन का अधिकार नहीं था. उधर, मनमोहन सिंह दिल्ली में बैठकर सफेदपोशों के साथ अपनी सियासी महत्वकांक्षाओं को नई उड़ान देने में जुटा था. ऐसे में बलदेव और उसके साथियों को अगर पैसों की जरूरत होती तो वे कई दिनों तक मनमोहन नेगी के पीछे दिल्ली में घूमते रहते. उन्हें छोटी छोटी रकम के लिए भी उसकी खुशामद करनी पड़ती. इसी दौरान बलदेव की बहन का ऑपरेशन होना था, जिसके लिए उसने मनमोहन सिंह से पैसे माँगे. बताया जाता है कि मनमोहन सिंह ने उसे पैसे नहीं दिए और यहीं से बलदेव की नजरों में उसका गुरू चढ़ गया.
गैंग का एक अन्य सदस्य पहले से ही मनमोहन सिंह को रास्ते से हटाने की फिराक में था. उस सदस्य ने फिर बलदेव के साथ मिलकर मनमोहन की हत्या की साजिश रची. इन्होंने सहारनपुर से दो और बदमाशों को अपने साथ लिया और दिल्ली जा पहुंचे. दिल्ली में बलदेव ने मनमोहन सिंह को फोन किया और बताया कि यूरोप का कोई डीलर चावल की बड़ी खरीद अच्छे दामों पर करना चाहता है और इस संबंध में वो उससे मिलना चाहता है. बलदेव ने मनमोहन से कहा कि वो अपने केवल विहार वाले फ़्लैट में पहुंचे ताकि ये डील फाइनल हो सके.
मनमोहन नेगी जब अपने फ्लैट में पहुंचा तो उसका नौकर जय सिंह वहां पहले से मौजूद था. बलदेव और उसके तीन अन्य साथी भी इस फ्लैट में पहुंच चुके थे. बलदेव ने नौकर जय सिंह को टूथपेस्ट लाने के बहाने से बाहर भेज दिया और फिर अपने तीनों साथियों के साथ मनमोहन के कमरे में दाखिल हो गया. नाश्ता कर रहे मनमोहन ने निवाला तोड़ा ही थे कि बलदेव ने पहली गोली उस पर दाग दी. वो गोली मनमोहन के दाहिने पैर पर लगी. उसने ऊपर देखा तो सामने बलदेव था. वो कुछ समझ पाता उससे पहले ही बलदेव के साथियों ने कई राउंड फायर करते हुए मनमोहन सिंह को मार गिराया. इसके कुछ ही देर बाद जब नौकर जय सिंह लौटा तो इन लोगों ने उसकी भी गोली मारकर हत्या कर दी और फिर दोनों के शरीर को मनमोहन सिंह की ही कार में डालकर हरियाणा की किसी नहर में फेंक दिया.
मनमोहन सिंह का शव कभी बरामद नहीं हुआ. बताते हैं कि अपने जीते जी वो अक्सर बलदेव से कहा करता था कि इटली के माफियाओं की तरह पहले हत्या करो और उसके बाद डेड बॉडी गायब कर दो. इससे कोर्ट में हत्या साबित करना बेहद मुश्किल हो जाता है. अपने गुरु की इस सलाह को बलदेव ने उसी पर चरितार्थ कर दिखाया. मनमोहन सिंह नेगी की हत्या के बाद एक आपसी गैंगवार में बलदेव की भी हत्या हो गई और उनका पूरा गैंग बिखर गया. कहा ये भी जाता है कि इस गैंग का एक सदस्य सारा पैसा लेकर गायब हो गया था. मनमोहन सिंह की मौत के बाद पौंटी चडडा और डीपी यादव के सिडिकेंट की गढ़वाल में आमद हुई और फिर कई सालों तक इन्होंने ही शराब के व्यपार में एकछत्र राज किया.
स्क्रिप्ट : मनमीत
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