टिहरी: जहां दफ़्न है एक सभ्यता

  • 2024
  • 21:36

दूर तक फैले पानी के इस विस्तार के नीचे एक पूरी सभ्यता दफ़्न है, इतिहास का एक काल-खंड दफ़्न है और दफ़्न है एक ऐसा शहर जहां कभी तीन नदियाँ मिला करती थी. वो शहर जहां राजे-रजवाड़े और सामंत भी रहे तो कई संग्रामी और साहित्यकार भी. शहर, जो यक्ष, गंधर्व, भिल्ल-किरात जैसी आदिम जनजातियों की रंगभूमि रहा, नाग और खसों की कर्मभूमि रहा, वीर-योद्धाओं की समरभूमि रहा और क्रांतिकारियों की शहादत का गवाह भी. एक ऐसा शहर जिसने गुमानी, मोलाराम, मूरक्रोफ़्ट, विल्सन, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ जैसे लोगों का खूब आतिथ्य किया लेकिन मुग़ल कभी यहां दाखिल भी नहीं हो सके.

हम बात कर रहे है उस टिहरी शहर की जिसके बसने और उजड़ने, दोनों की अपनी अलहदा कहानी है.

टिहरी में बसासतों का इतिहास सदियों पुराना है. दसवीं शताब्दी में जब कत्यूर नरेश सुभिक्ष-राजदेव का शासन था, उस दौर के कुछ दान-पत्रों में टिहरी के आस-पास के कई गांवों का नाम दर्ज मिलता है. भागीरथी घाटी में चौहान वंश रहा हो, गढ़वाल रियासत का पंवार वंश या गोरखाओं का निरंकुश शासन, टिहरी की बस्तियों का उल्लेख इतिहास के तमाम काल-खंडों में मिलता ही है. लेकिन एक मुकम्मल शहर के रूप में टिहरी के विकसित होने की असल कहानी शुरू होती है 19वीं सदी से. साल था 1815. पंवार वंशीय राजा सुदर्शन शाह, ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से अपनी खोयी हुई विरासत गोरखों से वापस ले चुके थे. लेकिन इसकी एक बड़ी क़ीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी. गढ़वाल रियासत दो हिस्सों में बांट दी गई थी. उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर गढ़वाल और अलकनंदा पार का पूरा क्षेत्र अंग्रेजों ने अपने पास रख लिया था जो फिर ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया. ऐसे में राजा सुदर्शन शाह को अपनी रियासत के लिए एक नई राजधानी तलाशनी पड़ी और इसी तलाश में वो 29 दिसम्बर 1815 को टिहरी पहुंचे. किंवदंती ये भी है कि टिहरी के लोक देवता कालभैरव ने राजा सुदर्शन शाह की शाही सवारी को रोक कर उन्हें टिहरी में ही राजधानी स्थापित करने का संकेत दिया था. 30 दिसम्बर 1815 के दिन, सुदर्शन शाह ने विधिवत टिहरी को गढ़वाल रियासत की राजधानी घोषित कर दिया. टिहरी तब 2278 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा-सा गाँव था, जिसे टिरी के नाम से जाना जाता था.

वरिष्ठ पत्रकार महिपाल नेगी अपनी किताब ‘टिहरी की जलसमाधि’ में लिखते है कि ‘1815 से पहले टिहरी एक छोटी-सी बस्ती थी. गढ़वाली भाषा में छोटी को ‘टीरी’ भी कहा जाता था. शायद इसी के चलते इस जगह का नाम टिरी पड़ा हो. गढ़वाली भाषी लोग और टिहरी उत्तरकाशी के अधिकांश गाँव-कस्बों में लोग आज भी इसे ‘टीरी’ ही कहते हैं.’

इतिहासकार एटकिंसन ने ‘हिमालयन गजेटियर’ में लिखा है कि 1808 में ‘टीरी’ एक छोटा गाँव था. मूरक्राफ्ट, जिन्होंने 1820 में टिहरी की यात्रा की, उन्होंने भी ने इसे ‘टिरी’ ही लिखा है. लेकिन देहरी विलियम आर्चर ने ‘इंडियन पेंटिंग्स फ्रॉम द पंजाब हिल्स’ और बैरिस्टर मुकंदी लाल ने ‘गढ़वाल पेंटिंग’ में ‘टेहरी’ शब्द लिखा. राहुल सांकृत्यायन और काका कालेलकर ने भी अपने संस्मरणों में ‘टेहरी’ ही लिखा है. कुछ लोगों का मानना हैं कि ‘तिहरी’ का विकास ‘त्रिहरी’ से हुआ है, जिसका अर्थ है तीन हरि यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश. हालाँकि, इस संदर्भ में कोई प्राचीन पांडुलिपि नहीं मिलती.

बहरहाल, जब राजा सुदर्शन शाह टिहरी पहुंचे तो उन्होंने सात सौ रूपयों मे तीस छोटे-छोटे मकान यहां बनवाये जिनका मासिक किराया चार आने रखा गया, ताकि राज्य की कुछ आमदनी हो. राजा के लिए आर्थिक समस्या तब बडी जटिल थी. हालांकि इतना कम किराया रखने के बाद भी राजा को किरायेदार मिलने में कठिनाई हुई. राजधानी आने वाले लोगों को तब खुले मैदान में या तम्बुओं में ठहरना पड़ता था.

महिपाल नेगी अपनी किताब में लिखते हैं कि राजा सुदर्शन शाह ने राजपरिवार के सदस्यों को टिहरी में बसाने के साथ ही रियासत के कामकाज के लिये वज़ीर, राजगुरू, राजपुरोहित, पुजारी, ज्योतिषी, धर्माधिकारी, लेखवार, सुरक्षाकर्मी, राजमिस्त्री, दीवान, फौजदार, चोपदार, जागीरदार, मुआफीदार और दास-दासी आदि को भी रियासत के विभिन्न हिस्सों सहित पुरानी राजधानी श्रीनगर गढ़वाल से बुलाया और फिर टिहरी में बसाया.

इस तरह शुरू में राजवंशी परमार और पंवार, राजगुरू नौटियाल, राजपुरोहित पाण्डेय, राजज्योतिषी जोशी, बजीर पैन्यूली, दीवान बहुगुणा, मुआफीदार व मुखत्यार सकलानी, रसोईया ड्यूंढी और अन्य प्रतिष्ठित परिवार खण्डूड़ी, रतूड़ी, घिल्डियाल, डंगवाल, पंत, गैरोला, राणा, बुटोला, परमार, नेगी, कंडल के पंवार आदि टिहरी में बसाये गये.

कुछ ही सालों में वहाँ कुछ व्यवसायी जैन और मुस्लिम परिवार भी बसाये गये. बाद में धारकोट के नेगी, पडियारगाँव के सकलानी, खाण्ड के नेगी, सुनारगाँव के असवाल आदि जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक थी, वे भी टिहरी शहर में बसने लगे. लोग यहां बसने लगे तो टिहरी में मकान बने और बस्ती बनने लगी. धीरे-धीरे राज्य की आर्थिक स्थिति भी ठीक होने लगी. अब राजमहल का निर्माण शुरू हुआ, जो पूरे 30 साल तक चला. सौ कमरों वाला, तीन मंजिला राजमहल बनाया गया और उसके सामने के मैदान में एक शानदार द्वार जिसे लोग ‘कांगचा खोली’ कहते थे. टिहरी, जो पहले एक छोटा-सा गाँव था, महाराजा सुदर्शन शाह के समय में एक चमकता हुआ शहर बन गया.

साल 1815 में टिहरी राज्य की स्थापना से पहले यहां कुछ ही दर्जन लोग रहा करते थे और धुनारों की एक बस्ती होती थी. धुनार गढ़वाल का प्रमुख शिल्पकार समुदाय रहा है. ये लोग मछली पकड़ने के साथ ही यात्रियों को नदी पार करवाने का काम किया करते थे. 17वीं शताब्दी में राजा महीपतशाह के सेनापति रिखोला लोदी यहां आए और धुनारों को भिल्लंगना नदी के पार जमीन दी. स्कन्द पुराण के ‘केदारखण्ड’ और महाभारत में टिहरी और भागीरथी घाटी में यक्ष, रक्ष, गंधर्व, नाग, भील और किरात जैसे आदिम निवासियों का उल्लेख मिलता है. इन जनजातियों को आर्यों ने अपने आगमन के बाद निचली जातियों में धकेल दिया और उन्हें दानव, राक्षस और पिशाच जैसे नाम देकर उनका दमन किया. टिहरी का प्रारंभिक इतिहास इन आदिवासी जातियों से ही जुड़ा हुआ है. टिहरी के पास यक्षों के निवास के प्रमाण भी स्कन्द पुराण में मिलते हैं, जहां इसे ‘गणेश प्रयाग’ कहा गया है.

भागीरथी घाटी में गंधर्वों द्वारा गंगा हरण की कथा भी है और इसी घाटी में पांडवों के वनवास के दौरान यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछे थे. पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा सूरसेन की पुत्री माल्यवती ने टिहरी के पास मालीदेवल गाँव में एक राजकुमार से गंधर्व विवाह किया था. ये गाँव अब टिहरी बांध के कारण डूब चुका है. टिहरी के डूबने और बांध के बनने का क्रम हम आगे विस्तार से बताएंगे. फिलहाल वापस आते है पौराणिक टिहरी पर. इस क्षेत्र में भील और किरात रूपधारी शिव और अर्जुन के बीच युद्ध की भी कथा है, जिसके कारण भिल्लंगना नदी और घाटी का नाम पड़ा.

टिहरी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में नागवंशियों का भी प्रभुत्व रहा है. कृष्ण द्वारा कलिया नाग को पराजित करने के बाद, अनेक नागवंशियों ने हिमालय की घाटियों में शरण ली. भागीरथी घाटी के रैका, मौल्या और कछोरा गढ़ नागवंशियों के नियंत्रण में थे जिन्होंने 12वीं शताब्दी तक गढ़पति चौहानों के रूप में शासन किया. बाड़ाहाट जो आज उत्तरकाशी के नाम से जाना जाता है, कभी नाग राजाओं की राजधानी हुआ करती थी.

19वीं सदी में राजधानी बसने के बाद टिहरी की आर्थिक स्थिति तेजी से सुधारने लगी थी. अंग्रेज सरकार ने गोरखा युद्ध में जीत के बाद जब महाराजा सुदर्शन शाह को टिहरी का राज्य सौंपा तो रवाँई क्षेत्र उन्हें नहीं दिया था. लेकिन कुछ समय बाद राजा की प्रशासकीय योग्यता को देखकर साल 1824 में रवाँई क्षेत्र भी राजा सुदर्शन शाह को दे दिया गया. तब उन्होंने इस क्षेत्र के काम संभालने के लिए अधिकारी नियुक्त किए और दो अदालतें स्थापित की गई.

राजा ने यह भी जरूरी समझा कि वहाँ के फौजदार, गोविन्द सिंह बिष्ट को खुश रखने के लिए कुछ गाँव जागीर के रूप में दे दिए जाएँ. तब उन्हें बरसारी, नंदगाँव आदि दिए गए और उनके साथी शिवदत्त को भी उनके अधीन सहायक हाकिम बनाया गया. लेकिन गोविंद सिंह बिष्ट और उसके साथी शिवदत्त ने जनता पर अत्याचार बढ़ा दिए और राजस्व बढ़ाने की आड़ में खुद अधिक धन बटोरने लगे.

उधर सकलाना के कुछ मुआफीदार, जिन्हें अंग्रेज अधिकारी ने राजा से पहले ही सनद दी थी, वे भी खुद को राजा से बड़ा मानने लगे थे. सत्य प्रसाद रतूड़ी अपनी किताब ‘टिहरी राज्य के जन संघर्ष की स्वर्णिम गाथा’ में लिखते हैं कि ‘रवाईं का फ़ौजदार गोविंद सिंह बिष्ट राजा की उपेक्षा करने लगा था और सकलानियों को भी राजा के विरुद्ध उकसाने लगा था. सुदर्शन शाह को अब इन उलझनों को निपटाना था.

उन्हीं दिनों की बात है. साल 1835 में सकलाना के मुआफीदार सामंती क्रूरता में बहुत आगे बढ़ गए थे. उनके कारिंदों के क्रूर-कठोर व्यवहार से तंग आकर तब ग्रामीण उच्च अधिकारियों से मिले और मामले की जांच के बाद राजा के आदेश पर मुआफीदारों द्वारा वसूले जा रहे कारों में कमी की गई.’

इसी कड़ी में आगे चल कर साल 1851 में, जब सकलाना के मुआफीदारों ने टिहरी के पास बसे अठूर के किसानों से उपज का तीसरा हिस्सा ‘तिहाड़’ कर के रूप में वसूलना शुरू किया, तो भी विद्रोह हुआ. तब बद्री सिंह असवाल के नेतृत्व में किसानों ने ‘तिहाड़’ देने से इनकार किया और एक लम्बे संघर्ष के बाद ‘बारह आना बीसी’ नियम स्वीकृत किया गया. फिर 1861 में भूमि बंदोबस्त किया गया और किसानों की मांगे पूरी हुई. टिहरी के जन संघर्षों के इतिहास में ये किसान आंदोलन एक अहम पड़ाव बना.

राजा सुदर्शन शाह ने पूरे चवालीस साल शासन किया और फिर 7 जून 1859 में 75 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई. तब उनके बेटे भवानी शाह ने राजगद्दी संभाली और अगले 12 साल टिहरी में शासन किया. उनके शासनकाल में टिहरी में हाथ से कागज बनाने का ऐसा उद्योग शुरू हुआ कि अंग्रेजी सरकार के अधिकारी भी यहां से कागज खरीदने लगे.

सत्य प्रसाद रतूड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि राजा भवानी शाह के काल में, राज्य की मुख्य आय भू-कर से होती थी. लेकिन धीरे-धीरे जंगलों से भी आय के स्रोत भी बनने लगे. अंग्रेज शिकारी फ्रेडरिक विलसन ने 1 अप्रैल 1858 को महाराजा सुदर्शन शाह के कार्यकाल में भागीरथी नदी के दोनों किनारों पर स्थित वनों के पेड़ काटने का ठेका लिया था. महाराजा सुदर्शन शाह का 1859 में निधन हो गया था, जिसके बाद 1860 में विलसन ने भवानी शाह से देवप्रयाग से टकनौर और टौंस नदी तक के वनों का ठेका भी 4 साल के लिए 4 हजार रुपये सालाना में ले लिया.

सत्य प्रसाद रतुड़ी की किताब में ये भी जिक्र मिलता है कि भवानी शाह ने राज्य की आय बढ़ाने के लिए गंगा जल का ठेका भी देना शुरू किया. कंडियाल गांव के कुछ लोगों ने 3301 रुपये सालाना के हिसाब से 20 साल के लिए गंगा जल का ठेका लिया. भवानी शाह ने हाथी पकड़कर लाने पर प्रति हाथी 150 रुपये का इनाम देने की घोषणा भी की थी. हाथियों की बिक्री से भी राज्य की आय बढ़ाने का प्रयास किया गया. अपने शासन काल के दौरान राजा ने टिहरी में कुछ मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया और पहली बार बड़े बागीचे भी लगाए गए.

साल 1871 में भवानी शाह के बेटे प्रताप शाह ने टिहरी की गद्दी संभाली. उनका राज्याभिषेक भिल्लंगना नदी के बाएं किनारे सेमल तप्पड़ में हुआ. प्रताप शाह के शासन में टिहरी में कई नए निर्माण कार्य हुए. राजमहल से रानी बाग तक सड़क बनाई गई, कोर्ट भवन और खैराती अस्पताल का निर्माण हुआ, रियासत के पहले विद्यालय हेवेट संस्कृत पाठशाला की स्थापना हुई जो कुछ सालों बाद ऐंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल बना और आगे चलकर प्रताप कॉलेज के रूप में जाना गया. इसके अलावा नगर में चिकित्सालय भी खुलवाया जिसमें आयुर्वेदिक और ऐलोपैथिक दोनों तरह का इलाज होता था. नगर में ही न्यायालय की स्थापना की गई ताकि न्याय मिलने में देरी न हो. उन दिनों न्यायालय की भाषा फारसी थी और लिपि देवनागरी.

राजा प्रताप शाह ने भू व्यवस्था के साथ वन व्यवस्था की तरफ भी विशेष ध्यान दिया. प्रताप शाह हमेशा टिहरी नगर के विकास के लिए काम करते रहे. उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा एक प्रेस भी स्थापित की जिसमें राजकाज से जुड़े दस्तावेज छपते थे. ये टिहरी राज्य की पहली प्रेस थी जिसे प्रताप प्रिंटिंग प्रेस कहा गया. राजस्व में वृद्धि के साथ, प्रताप शाह ने 1877 में टिहरी से लगभग 12 किलोमीटर उत्तर में ऊंचाई पर स्थित पहाड़ी पर प्रताप नगर भी बसाया.

प्रताप नगर बनने से टिहरी राज्य का विस्तार हुआ. प्रतापनगर तक पहुंचने के लिए भिल्लंगना नदी पर झूला पुल का निर्माण हुआ, जिससे नदी पार की जनता का टिहरी आना-जाना भी आसान हो गया. अब टिहरी राजधानी होने के साथ-साथ शिक्षा और व्यापार का केंद्र भी बन गई.

राजा प्रताप शाह के निधन के बाद साल 1887 में उनकी पत्नी महारानी गुलेरिया ने शासन संभाला. क्योंकि जिस समय उनकी मृत्यु हुई तब उनके बेटे कीर्ति शाह मात्र 13 साल के थे. राज माता गुलेरिया ने राज्य के सुचारू संचालन के लिए एजेन्सी कौंसिल नाम की एक संरक्षण समिति का निर्माण किया. इसके तीन सदस्य बनाये गए, शिवदत्त डंगवाल, केवल राम रतूड़ी तथा विश्वेश्वरदत्त सकलानी. समिति के सचिव का पद रघुनाथ भट्टाचार्य नाम के एक सुयोग्य बंगाली व्यक्ति को दिया.

कीर्ति शाह अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वापस टिहरी पहुँचे और राजगद्दी संभाली. उन्होंने टिहरी में ‘कैसल दरबार’ नामक एक और राजमहल का निर्माण करवाया, मिडिल स्कूल को हाई स्कूल में बदला, कैम्बल बोर्डिंग हाउस और मदरसा स्थापित करवाया. इसके साथ ही उन्होंने  ’चीफ कोर्ट’ भवन का भी निर्माण करवाया जो साल 1993 तक जिला और सत्र न्यायालय के रूप में कार्यरत रहा.

साल 1897 में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती के मौके पर टिहरी में एक घंटाघर बनाया गया. इसी दौरान टिहरी को नगर पालिका का दर्जा भी मिला. साल 1902 में जब स्वामी रामतीर्थ टिहरी आए, तो राजा ने उनके लिए सिमलासू में शीशमहल के पास ‘गोल कोठी’ नामक आवास बनवाया. 1903 में टिहरी में बिजली उत्पादन भी शुरू हुआ. इसके लिए भैंतोगी गाड से टिहरी तक दो किलोमीटर लम्बी नहर बनवाई गई. हालाँकि बिजली सिर्फ़ राज महल तक ही पहुँच सकी. टिहरी में प्रेस तो प्रताप शाह के कार्यकाल में ही खुल चुकी थी, कीर्तिशाह ने उस प्रेस से एक पाक्षिक पत्र ‘रियासत टिहरी गढ़वाल दरबार गजट’ के नाम से प्रकाशित करना शुरू किया. गजट प्रत्येक माह की पहली और पन्द्रहवीं तारीख को छपता था और इसका वार्षिक मूल्य दो रुपए था. नगर में लेन-देन की सुविधा के लिये ‘बैंक ऑफ गढ़वाल’ की स्थापना भी की गई. महाराजा कीर्तिशाह ने अपनी राजधानी टिहरी को हर तरह से आधुनिक नगर बनाने का प्रयास किया.

प्रताप शाह ने जैसे प्रताप नगर बसाया, वैसे ही कीर्ति शाह ने श्रीनगर गढ़वाल के पास अलकनंदा नदी के तट पर ‘कीर्तिनगर’ बसाया, लेकिन उनका ध्यान हमेशा टिहरी पर ही रहा. कीर्ति शाह ने ही पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी का लेखन के प्रति लगाव देखकर उन्हें गढ़वाल का इतिहास लिखने का कार्य सौंपा था. गढ़वाल के इतिहास के बाद हरिकृष्ण रतूड़ी ने गढ़वाल और टिहरी से सम्बन्धित अन्य पुस्तकों की भी रचना की.

साल 1913 में 39 साल की उम्र में कीर्ति शाह की मृत्यु हुई. उनके बेटे नरेंद्र शाह तब 15 साल के थे. राजपाठ का भार एक बार फिर से महारानी गुलेरिया ने संभाला. राजकाज संचालन के लिए फिर से एक संरक्षण समिति का गठन किया गया और समिति के अध्यक्ष का पद राजमाता को सौंपा गया. कुछ समय बाद राजमाता गुलेरिया के स्वास्थ्य खराब होने के कारण कुमाऊँ कमिश्नर के प्रस्ताव पर शेमियर नाम के एक अंग्रेज को समिति का अध्यक्ष बना दिया गया.

शेमियर ने अध्यक्ष के रूप में अच्छा काम किया लेकिन साल 1916 में हैजे की बीमारी से प्रतापनगर में उनका देहान्त हो गया. समिति के काल में ही प्रथम विश्वयुद्ध भी छिड़ गया था.

देश की अन्य रियासतों की तरह टिहरी ने भी इस युद्ध में पूरा सहयोग दिया. कीर्ति शाह के शासन में बनी ‘सेना सैपर्स’ को भी युद्ध क्षेत्र में भेजा गया. गढ़वाली युवक इस सेना में काफी बड़ी संख्या में भर्ती हुए. उन्होंने उस युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई. दरबान सिंह नेगी और गबर सिंह नेगी ने तो युद्ध का सर्वश्रेष्ठ वीरता पदक ‘विक्टोरिया क्रास’ भी प्राप्त किया.

संरक्षण समिति ने अपने कार्यकाल में 1916 में ही राज्य का भू-व्यवस्था का काम भी शुरू किया. इसे अच्छी तरह से किए जाने के लिए सुयोग्य अधिकारी के रूप में जोध सिंह नेगी को बुलाया गया. तमाम रियासती जमीन की डोरी पैमाइश का काम जोध सिंह ने बड़ी तत्परता और योग्यता से करवाया. भूव्यवस्था का ये काम लगभग 10 साल चला और अक्टूबर 1926 में पूरा हुआ. इस दौरान तिब्बत से होने वाले व्यापार की सुरक्षा और सुव्यवस्था के साथ ही तिब्बत से लगी सीमा की अनिश्चितता को भी समुचित रूप से ठीक किया गया.

साल 1919 में इस संरक्षण समिति का कार्यकाल समाप्त हुआ और नरेंद्र शाह ने प्रशासन की बागडोर संभाली. अपने पूर्वजों की तरह नरेंद्र शाह ने भी अपने नाम पर ऋषिकेश से 10 मील ऊपर पाँच हजार फिट की ऊँचाई पर अपनी नई राजधानी के रूप में ओडाथली गाँव के स्थान पर नरेन्द्र नगर की स्थापना की. टिहरी से नरेंद्र नगर तक एक अच्छी सड़क का निर्माण कराया गया. नरेंद्र शाह को गाड़ियों का बहुत शौक़ था. इसी शौक़ के चलते टिहरी तक सड़क पहुँचने से लगभग दो दशक पहले ही गाड़ी पहुंचा दी गई थी. साल 1921-22 के करीब टिहरी में बाजार से से राज दरबार और सिमलासू तक छोटी गाड़ी के चलने सड़क बनवाई गई. फिर ऋषिकेश में एक कार को अलग-अलग पार्ट्स में तोड़कर खच्चरों पर लादा गया और टिहरी पहुँचाया गया. जहां मिस्त्री ने उन्हें जोड़ कर गाड़ी तैयार की जिसे राजा ख़ुद चलाया करते थे. संयोग देखिए गाड़ियों और ड्राइविंग के शौक़ीन नरेंद्र शाह की मौत भी आगे चल कर एक कार दुर्घटना में ही हुई.

राजा नरेंद्र शाह के शासन काल में 1920 में टिहरी में पहला कृषि बैंक स्थापित हुआ और 1923 में ‘पब्लिक लाइब्रेरी’ की स्थापना हुई, जिसे बाद में सुमन लाइब्रेरी के नाम से जाना गया. नरेन्द्र शाह ने  साल 1925 में प्रथम विश्वयुद्ध के अपने राज्य के वीर गबर सिंह नेगी का स्मारक चम्बा में बनवाकर उसका उद्घाटन किया. साल 1938 में यहां काष्ठ कला विद्यालय खोला गया और 1940 में प्रताप हाई स्कूल को इंटर कॉलेज में बदला गया.

अपनी तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ उन्हें उनकी यात्राओं के लिए भी जाना जाता है. पूरे देश में भ्रमण करने के साथ ही उन्होंने 6 बार यूरोप की यात्रा की. 1924 से 1941 तक ये यात्रायें चलीं. साल 1942 में टिहरी के पहले प्राइवेट स्कूल ‘हिमालय विद्यापीठ’ की स्थापना हुई. उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणी बडोनी इसी स्कूल के छात्र थे. 1946 में राजा नरेन्द्र शाह ने अपनी मर्जी से राजगद्दी अपने बेटे मानवेन्द्र शाह को सौंप दी थी, जिन्होंने सिर्फ़ दो साल ही शासन किया.

साल 1947 में देश तो आजाद हुआ लेकिन टिहरी रियासत में अब भी राजशाही क़ायम थी. लेकिन आम जनमानस के मन में अब तक राज शाही से आजादी का विचार घर कर चुका था. परिणामस्वरूप जन्म हुआ टिहरी की जनक्रान्ति का.  साल 1948 में जनक्रांति के साथ ही राजशाही का अंत हुआ और 1949 में टिहरी का भारत में विलय हो गया.

भारत में विलय होने के बाद भी टिहरी में संघर्षों का एक नया दौर शुरू हुआ. आज़ादी के बाद टिहरी एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन की ओर बढ़ रहा था. अब टिहरी की लड़ाई न तो अंग्रेजों से थी और न ही राजशाही से, बल्कि अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई थी. ये लड़ाई उस बांध के निर्माण से जुड़ती है जो आज एशिया में तीसरा सबसे बडा बांध है.

इसकी शुरुआत 1961 में हुई, जब भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग ने भागीरथी घाटी में शुरुआती सर्वेक्षण और बांध के लिए तकनीकी अध्ययन शुरू किया. अध्ययन के बाद, टिहरी शहर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर भागीरथी नदी की निचली घाटी को टिहरी डैम के लिए चुना गया. दो साल बाद, 1963 में विस्तृत सर्वेक्षण किया गया और 1965 में केंद्रीय सिंचाई मंत्री केएल राव ने टिहरी का दौरा कर बांध बनाने की घोषणा की.

साल 1972 में केंद्रीय जल आयोग ने टिहरी बांध परियोजना को मंजूरी दे दी. हालांकि, लोगों में पहले से ही बांध को लेकर शंका थी और जब निर्माण कार्य शुरू हुआ, तो टिहरी और उत्तरकाशी जिलों के लगभग सभी राजनीतिक दलों और पंचायतों ने इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित किए.

इस विरोध को संगठित करने के लिए बांध विरोधी संघर्ष समिति का गठन किया गया, जिसमें सभी राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए और स्वतंत्रता सेनानी वीरेंद्र दत्त सकलानी इसके अध्यक्ष नियुक्त किए गए.

बांध के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका भी दायर की गई, लेकिन इसके बावजूद निर्माण कार्य चलता रहा. साल 1987 में पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने भी बांध के विरोध में समिति का समर्थन किया और बांद विरोध के लिए लम्बा संघर्ष किया.

1970 के दशक में टिहरी बांध परियोजना की परिकल्पना की गई, जिसका उद्देश्य बिजली उत्पादन, सिंचाई और पानी की आपूर्ति करना था. लेकिन इस परियोजना ने टिहरी की प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर को बदल कर रख दिया. 21वीं सदी की शुरुआत में जब बांध निर्माण पूरा हुआ और टिहरी के साथ ही आसपास के गाँव जलमग्न होने लगे तो हजारों लोगों को अपने पुश्तैनी घर छोड़कर पलायन करने को विवश होना पड़ा. एक ऐतिहासिक शहर धीरे-धीरे जल समाधि लेना लगा. टिहरी सिर्फ एक शहर नहीं था, बल्कि इतिहास, संस्कृति और सभ्यताओं का अद्भुत संगम था. टिहरी में सिर्फ़ इमारतों ने ही जल समाधि नहीं ली बल्कि इतिहास के एक पूरे काल-खंड ने समाधि ले ली. टिहरी के डूबने पर कई कविताएँ और गीत भी लिखे गए हैं जिनमें गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह का गाया गीत तो आज तक भी लोगों की आंखें नम कर जाता है.

 

स्क्रिप्ट: प्रगति राणा

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