शांगरी-ला. ये शब्द आपने कभी न कभी जरूर सुना या पढ़ा होगा. एशिया से लेकर अफ़्रीका और मिडल ईस्ट से लेकर नोर्थ अमेरिका तक, शांगरी-ला फ़ाइव स्टार होटलों की चैन फैली हुई है. लेकिन आपने कभी ये गौर किया कि ये नाम आख़िर आया कहाँ से या इसका मतलब क्या है? आप गूगल करेंगे तो पाएंगे कि शांगरी-ला एक ऐसी काल्पनिक जगह है जो धरती पर होते हुए भी स्वर्ग से ज़्यादा सुंदर है. चर्चित उपन्यासकार जेम्स हिल्टन ने 1933 में आए अपने उपन्यास ‘लॉस्ट हरायज़ॉन’ में इसका विस्तृत ज़िक्र किया है. इसमें उन्होंने बताया है कि शांगरी-ला एक ऐसी रहस्यमयी, अलौकिक, खूबसूरत और जादुई दुनिया है जहां रहने वाले लोगों की उम्र हजारों साल तक की होती है. शांगरी-ला का ऐसा वर्णन जेम्स हिल्टन ने सिर्फ़ अपनी कोरी कल्पनाओं के चलते नहीं किया. उन्होंने ऐसा किया क्योंकि तिब्बती धार्मिक ग्रंथों में शांगरी-ला का ऐसा ही वर्णन सदियों पहले से दर्ज मिलता है.
तिब्बती भाषा में शांग का मतलब होता है दैवीय पशु और ला का मतलब है दर्रा. तिब्बती धर्म ग्रंथों के अनुसार, शांगरी-ला कभी शांग-शुंग राज्य का प्रवेश द्वार हुआ करता था. शांग-शुंग उत्तराखंड से लगता पश्चिमी तिब्बत का वो इलाका है, जहां पर कैलाश मानसरोवर स्थित है. तिब्बती ग्रंथों में ये भी कहा गया है कि ये शांगरी-ला का इलाका इतना खूबसूरत है, मानो स्वर्ग का रास्ता हो. न तो यहां तिब्बत की तरह शीत पठार हैं और न ही अन्न की कोई कमी. मखमली घास के मैदान, खूबसूरत नदी, झरने और हिमाच्छादित चोटियां यहां के सौंदर्य को सम्मोहित करने वाला बना देती हैं. लेकिन शांगरी-ला असल में भी कहीं है और है तो कहाँ है, इसे आज तक कोई नहीं खोज सका. लगभग तीन सौ सालों से इस इलाके की खोज खुद तिब्बती लोग भी कर रहे हैं और पश्चिमी देशों के कई अन्वेषक भी. लेकिन ये तमाम लोग जिस शांगरी-ला को तिब्बत में खोजते आए हैं, वो उत्तराखंड में भी हो सकता है, इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया. तमाम पश्चिमी यात्री उत्तराखंड के सीमांत दारमा, ब्यास, चौंदास और जोहार घाटी में इसकी तलाश करते कभी आये ही नहीं. क्योंकि तिब्बती धर्म ग्रंथ लू बूम में जिस शांग-शुंग इलाके का जिक्र है, वह कैलाश मानसरोवर वाला क्षेत्र है. लेकिन मानसखंड के अनुसार, ये पूरा इलाका कभी तिब्बती प्रभाव में न होकर एक अलग राज्य था, जो भारत के प्रभाव में हजारों सालों तक रहा. इसी इलाके के प्रभाव में पिथौरागढ़ की दारमा, ब्यास, चौंदास और जोहार घाटी रही. दिलचस्प ये है कि जोहार घाटी में ही एक गांव है शांगरी और उससे कुछ ही दूरी पर है ला गांव. यहीं से वो रास्ता भी गुजरता है, जो सीधे कैलाश मानसरोवर को जाता है. इस क्षेत्र पर एक दिलचस्प किताब लिखी है तिब्बतोलॉजिस्ट और पूर्व आईएएस सुरेंद्र सिंह पांगती ने. आज के प्रोग्राम में हम पिथौरागढ़ की इन्हीं रहस्यमयी खूबसूरत घाटियों की यात्रा पर आपको ले चलेंगे.
कार्यक्रम की शुरुआत एक क़िस्से से करते हैं. क़िस्सा उस दौर का जब गोरखाओं ने कुमाऊं की राजधानी अल्मोड़ा पर कब्जा कर लिया था और उनकी नजर अब गढ़वाल पर थी. भूकंप से तबाह हो चुकी गढ़वाल रियासत पर जीत हासिल करना कोई मुश्किल भी नहीं था. इसी आत्मविश्वास के चलते गोरखाओं ने सिरमौर रियासत तक अपना परचम लहराने के मंसूबे बना लिए थे. लेकिन इधर अल्मोड़ा महल में गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा एक गहरी चिंता में डूबा हुआ था. वो चिंता थी, कुमाऊं की सुदूर पूर्व जोहार घाटी में उसकी सेना को मिली हार. इस हार ने उसके सिपाहियों के ज़हन में कुछ हद तक डर बैठा दिया था. साल गुजरते गए और गोरखाओें ने गढ़वाल रियासत के साथ सिरमौर रियासत तक कब्जा कर भी लिया. लेकिन जोहार. जोहार अभी भी अजेय था. प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिंसन के अनुसार, गोरखा सेना के लिए ये डूब मरने वाली बात थी क्योंकि उस दौर में जोहार की कुल आबादी तीन हजार से भी कम थी. यानी, जोहार में सिर्फ़ पुरूषों ने ही हथियार नहीं उठाये थे बल्कि उनकी महिलायें भी फ्रंट लाइन में लड़ रही थी. उनके बच्चे लड़ रहे थे और उनके बुजुर्ग भी. पूरा जोहार अपनी अस्मिता के लिए युद्धरत था. दस साल तक गोरखा जोहार में घुस न सके और जब वे जीते भी तो उसके पीछे कोई शौर्य या वीरता नहीं, बल्कि एक संधि थी. क्या थी वो संधि इस पर आगे बात करेंगे. लेकिन क़िस्से से आप समझ गए होंगे कि जोहार के लोग न सिर्फ़ मेहनती होते हैं, बल्कि साहस और वीरता इनके डीएनए में है.
ये साहस जोहार, दारमा और ब्यास के लोगों को कहां से मिला, इसका भी एक दिलचस्प इतिहास है. ऐतिहासिक संदर्भों में जोहार-मुनस्यार क्षेत्र को स्वर्णगोत्री स़्त्री राज्य कहा गया है. यानी स्वर्णवंशीय रानी का प्रदेश. कुछ और आसान शब्दों में कहें तो सोने के आभूषणों से समृद्ध रानी का राज्य. लोक परंपराओं के अनुसार, जोहारी स्त्री इस पूरे क्षेत्र की शासक हुआ करती थी जबकि पुरूष वर्ग, विभिन्न दिशाओं में हमलावरों से जूझने में और वस्तु विनिमय वाला व्यापार यानी बार्टर ट्रेड, खेती-बाड़ी और पशुपालन जैसे कामों में व्यस्त रहता था. तिब्बतोलॉजिस्ट और जोहार के ही निवासी एसएस पांगती बताते हैं कि लोक मान्यताओं के अनुसार यहां की महिलायें पुरूषों के कपड़े पहनकर हमलावरों से युद्ध भी करती थी. सम्भवतः यही कारण है कि गोरखाओं के ख़िलाफ़ युद्ध में पूरे उत्तराखंड में सिर्फ़ यहीं की महिलायें उतरी थी. अपनी व्यावहारिक दक्षता और शारीरिक पराक्रम की बदौलत जोहारी शौकाओं ने पश्चिमी तिब्बत के थोक डोरोक्पा की सोने की खदानों से सबसे ज़्यादा सोना हासिल किया था. इस आधार पर स्वर्ण का व्यापार करने वाली जोहारी महिलाओं ने स्वर्णगोत्रीय स़्त्री वंश का विशेषण हासिल किया.
सेंट्रल और वेस्ट एशिया के भूगोल में लगभग छह ऐसे स्त्री राज्यों का उल्लेख मिलता है जहां नागरिक शासन-प्रशासन लागू करने की जिम्मेदारी महिलाओं के पास होती थी. ऐसा एक राज्य तिब्बत की राजधानी ल्हासा के पास भी था और मध्य हिमालय की जोहार घाटी में भी ऐसी ही व्यवस्था थी. इस स्त्री राज्य के बारे में वेद व्यास द्वारा लिखे गए मार्कण्डेय पुराण के अध्याय आठ में विस्तार से पढ़ा जा सकता है. इतिहासकार डॉक्टर यशवंत सिंह कटौच की किताब ‘मध्य हिमालय का पुरातत्व’ में भी इस स़्त्री राज्य का विस्तृत वर्णन मिलता है.
शौकाओं का धार्मिक इतिहास भी बड़ा जटिल है. इसे समझने की शुरुआत उस प्रागैतिहासिक से करते हैं जहां नाग वंश के हल्दुवा – पिंगलुवा जातियों की दंत-कथा मौजूद है. कहानी कुछ यूं है कि हल्दुवा – पिंगलुवा जातियों को पक्षी के रूप में रहने वाला दैत्य पुरू, जो आकाश में उड़ने वाला एक तांत्रिक गुरू था, उससे घनघोर संघर्ष करना पड़ा. वो तिब्बत से उड़कर यहां आता और हल्दुवा – पिंगलुवा जाति के लोगों पर झपटा मारकर उन्हें खा जाता.
अब आगे बढ़ने से पहले ये जान लेते हैं कि इन जातियों का नाम आख़िर हल्दुवा और पिंगलुवा क्यों पड़ा. एसएस पांगती इस बारे में कहते हैं कि प्राचीन ग्रंथों में इस पूरे क्षेत्र में नाग जाति का निवास बताया गया है. ग्रंथो के अनुसार जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना कर रहे थे तो उन्होंने विभिन्न प्राणियों को उनके रहने के लिए जगह आवंटित की. तब नागवंश के निवास के लिए उन्होंने इस पूरे इलाके को चुना. तिब्बत की सीमा से मल्ला जोहार तक हल्दुवा जाति का और गोरी-फाट या मुनस्यारी से तल्ला जोहार तक पिंगलुवा जाति का राज था. हल्दुवा का मतलब पीले रंग की हल्दी से है और पिंगलुवा का मतलब भी पीला रंग ही है. इतिहासकारों का मत है कि यहां के लोग सैकड़ों साल पहले से तिब्बत की सोने की खदानों से काफी सोना यहां लाए. इसलिये भी यहां की जातियों के नाम सोने के रंग से जुड़े और ये इलाका स्वर्णगोत्री राज्य कहलाया. महाभारत के प्रथम भाग के अध्याय 35 में गिनाए गए कई नागवंशी योद्धाओं में हरद्रिक और पिंगलक नागों का उल्लेख भी मिलता है. ये थे तो नाग वंश के, लेकिन स्थानीय रूप से इन्हें हल्दुवा और पिंगलुवा कहा गया.
अब वापस लौटते हैं आकाश में उड़ने वाला तांत्रिक पुरू की कहानी पर. हल्दुवा पिंगलुवा जाती के लोड जब पुरु से त्रस्त हो गए तब लपथल में रहने वाला बौन तांत्रिक गुरू साक्या लामा के एक शिष्य ने उसकी हत्या की. पुरू एक तिब्बती शब्द है, जिसका मतलब है लंबे बालों वाला पक्षी. ऐसी ही एक कहानी महाभारत में भी मिलती है. महाभारत के आस्तिक पर्व के अध्याय 5 में जिक्र है कि विनीता और कुद्रू के पुत्र गरूड़ और नागों के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था. इसमें गरूड़ ने नागों का बड़ा जनसंहार किया. इस युद्ध के क्षेत्र का भी जो वर्णन है, वो जोहार घाटी से काफी मिलता जुलता है.
कालांतर में ये घाटियां जब बसती चली गय तो इनमें हेलंबा, तितरपा, घोनरपा, निखुर्पा, ल्वांल, बुर्फाल और रहलम्वाल उपजाति के लोग पंजरी कहलाए. ये लोग पल्थी-फाफर की खेती करते और सर्दियों में जमीन में गड्ढा खोद कर रहते. पहाड़ पत्रिका के एक लेख में इतिहासकार डॉक्टर शेर सिंह पांगती लिखते हैं कि वर्तमान के जोहारियों की अपेक्षा इनकी बोली भी अलग थी. ये पंजज्वारी लोग सर्दियों में गोरी नदी के बर्फ से ढक जाने पर दक्षिण में मुनस्यारी तक आते और यहां के मूल निवासी बारह थोक बरपटियों से तिब्बत से लाए गए नमक के बदले अनाज लेते वापस तिब्बत पहुँचते. उस वक्त मुनस्यारी क्षेत्र को इतना समृद्ध माना जाता कि कहावत ही चलती थी, ‘आधा संसार, आधा मुनस्यार’. कत्यूरियों के शासनकाल तक भारत-तिब्बत व्यापार अपने चरम पर आ गया था जो कि 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध तक बना रहा.
कई इतिहासकार मानते हैं कि नाग देवता की पूजा पद्धति की शुरुआत कुमाऊँ क्षेत्र में ही हुई और यहीं से फिर ये गढ़वाल और बाक़ी इलाक़ों में फैली. इतिहासकार देवी दत्त शर्मा अपनी किताब ‘उत्तराखंड का ज्ञान-कोष’ में लिखते हैं कि रूद्रप्रयाग जनपद में लस्या पटटी के चिरबटिया खाल के कुंड का सौड़-धान्यो का सेरा एक लोक परम्परा पर आधारित है. इस परम्परा के अनुसार, कैलाखुरी थात के निवासी नाग देवता का जन्म मिलम ग्लेशियर के शीर्ष पर हरदेवल चोटी के साथ स्थित त्रीशूलीकांटा के निकट गोरी उडयार यानी गोरी गुफा में हुआ था. वहीं, जहां गोरी गंगा का उद्गम स्थल है. पंवाणा शैली में गाई जाने वाली एक लोक गाथा में भी नाग देवता की वंशावली जोहारी बरमो शैली में दी गई है. कहा जाता है कि शौका जनजाति के लोग तिब्बती नमक के अलावा ऊन, सुहागा और घोड़े का भी आयात कर उत्तरायणी के दिन बागेश्वर मेले में पहुंचते थे जो उस दौर में उत्तर भारत की सबसे बड़ी मंडियों में से एक होता था. निचली घाटी और मैदानी क्षेत्र के लोग, विशेष कर गढ़वाल और कुमाऊँ के हजारों व्यापारी शौकाओं से इन वस्तुओं को लेने बागेश्वर पहुंचते. नमक के इन खरीददारों को गढ़वाल के लोग लूणी कहते थे.
एक रात शौका लोगों ने अपने शिविर में खैरालिंग के नागनाथ के भैरव गणनाथ कालू भैरव की आत्मा का आहवान कर उन्हें मानव माध्यम में अवतरित करने के लिए तांत्रिक अनुष्ठान किया. जब ये सब हो रहा था तो लस्या पट्टी के लूणी भी वहां मौजूद थे. मानव शरीर में देवता के अवतरण पर जोहार के लोग उसे फांफर के आटे का भोग अर्पित करते थे. अवतरित देवात्मा भक्तों की व्यक्त आशंकाओं का मानवीय भाषा में समाधान बताने लगे. ये सब देखकर पहले टिहरी और अब के रूद्रप्रयाग जिले के लस्या पट्टी के लूणी बेहद प्रभावित हुए. उन्होंने धीमी आवाज में कहना शुरू किया कि ‘जोहार के लोग देवता को सिर्फ़ फांफर का भोग चढ़ा रहे हैं. यदि नागनाथ हमारे लस्या पट्टी आ जाते तो हम इन्हें बासमती का भोग चढ़ाते.’ किवदंती है कि देवता ने लस्या पटटी वालों की बात सुन ली और अगले ही दिन लूणियों की वापसी यात्रा में, उनके साथ चल दिए.
बागेश्वर से वापसी के पहले दिन लूणियों का पड़ाव ग्वालदम में पड़ा. ऊँचाई वाले ठंडे शिविर में नमक की टोकरियां एक तरफ रख कर वो रात्रि निवास के साथ ही भोजन की व्यवस्था में जुट गए. पर्याप्त सूखी लकड़ी जमा करने के बाद उन्होंने आग जलाने के प्रयत्न शुरू किए. उस दौर में आग जलाने के लिए स्फटिक यानी डांसी पत्थर के टुकड़े पर लोहे के उपकरण को जोर से घिस कर चिनगारी पैदा की जाती थी. एक लूणी ने अपनी जेब से डांसी पत्थर निकाला और आग जलाने की बार बार कोशिश की, लेकिन वो सफल नहीं हुआ. एक के बाद दूसरे ने कोशिश की, फिर तीसरे ने लेकिन कोई भी आग जलाने में सफल नहीं हुआ. थकान, भूख और जनवरी की ठंड से उनकी हालत दयनीय हो गई थी. तभी उनमें से एक लूणी धाम सिंह नेगी को वहीं एक अन्य डांसी पत्थर का टुकड़ा मिला. जैसे ही उसने इस डांसी पत्थर पर अगेला रगड़ा, आग जल उठी. भोजन पकाया गया और रात की ठंड से बचने के लिए धूनी भी जला दी गई. अगली सुबह जब सभी लूणी अपनी-अपनी नमक की टोकरियाँ पीठ पर उठा कर अगले पड़ाव की ओर बढ़ने लगे तो धाम सिंह नेगी ने पाया कि उनकी टोकरी बहुत भारी हो चुकी है. कई लूणियों ने मिलकर भी उस टोकरी को उठाना चाहा लेकिन फिर भी वह टोकरी हिली तक नहीं. लूणियों को अहसास हुआ कि जोहार के नागनाथ देवता ने बासमती के भोग की बात सुन ली है और अब देवता उनके साथ ही चल रहे हैं. उन्होंने ये भी मान लिया कि डांसी का वो पत्थर जो बीती रात धाम सिंह को मिला था, उसी में नागनाथ प्रतिस्थापित हैं. इसके बाद लस्या पटटी के रास्ते में जहां जहां लूणियों ने पड़ाव डाला, वहां उन्होंने नाग देवता को प्रतिस्थापित किया. आगे चलकर इन्हीं जगहों पर स्थानीय लोगों ने नाग देवता के थान बनाए और उनकी पूजा करना शुरू किया. इतिहासकारों ने भी इसी आधार पर ये स्थापित किया है कि नाग पूजा पद्धति की उत्पत्ति कुमाऊँ में हुई और वहां से नेगी राजपूतों के ज़रिए ये गढ़वाल में आई. जोहार के नाग देवता को आहवान करती एक लोक-कथा में कहा गया है:
जनम हवेगे तुमरो शांवला ज्वार,
बाचापुरी कैला-खुरी कै नाग,
पाल्यान पटयाल देवता काटी जालो खैरा
विनु ज्वार बिटी ऐसी पिठुरी का गढ़ा
इसका मतलब है ‘हे नागदेवता, तुम्हारा जन्म शांवला जोहार में हुआ है. हे अपने वचन के पक्के कैलाखुरी के नाग, जैसे ही तुमने निर्जन बियाबान स्थान में जन्म लिया, तुम ऐसे निर्जन जोहार से पिथौरागढ़ चले गए.’
इसी तरह इतिहासकारों का मत है कि जौनसार में भी नाग देवता बागेश्वर के उत्तरायणी से ही आए. इस पर एक कहानी भी प्रचलित है कि एक बार जब सिरमौर के राजा अपने क्षेत्र में नर भक्षी बाघ को मारने में असफल रहे उन्होंने गढ़वाल के राजा मान शाह से मदद मांगी. उन्होंने कहा कि अगर उनके राज्य का कोई वीर इस नर भक्षी बाघ को मार देगा तो वो उसे अपने राज्य का कुछ हिस्सा देंगे और अपनी बेटी का विवाह भी उससे करवा देंगे. तब राजा मानशाह ने अपने प्रतिनिधि इंदुवाण को नरभक्षी को मारने के निर्देश दिए. इंदुवाण अपने छोटी भाई की मदद से बाघ को मारने में सफल भी रहा लेकिन सिरमौर के राजा अपने वायदे से मुकर गए और इंदुवाण की ही हत्या की साज़िश करने लगे. इंदुवाण और उसके भाई को जैसे ही इस साजिश की भनक हुई, उन्होंने सिरमौर के राजा की हत्या कर दी. इसके बाद इंदुवाण ने राजा की बेटी का विवाह अपने छोटे से करवाया और उन्हें अपने साथ कालसी ले आए. लोक मान्यताओं के अनुसार, इंदुवाण जाति का मूल पुरूष कैलाखुरी थात से था. एसएस पांगती बताते हैं कि इस लोक मान्यता में एक बात ध्यान देने वाली ये है कि इंदुवाण की तरह ही रुद्रप्रयाग की लस्या पट्टी के नागनाथ को भी कैलाखुरी का ही निवासी बताया जाता है. संभव है कि जौनसार से भी लूणी व्यापारी बागेश्वर आते होंगे और वे भी ऐसे ही नाग देवता से प्रभावित होकर उसे अपने साथ ले आए हों.
‘जोहार के शौका’ लिखने वाले इतिहासकार डॉक्टर शेर सिंह पांगती के अनुसार, एटकिंसन और बद्रीदत्त पांडे की अपेक्षा स्थानीय इतिहासकार पंडित नैन सिंह रावत और बाबू राम सिंह ने हल्दुवा और पिंगलुवा की कहानी को ज्यादा महत्व नहीं दिया है. हालांकि उन्होंने भी शाक्य मुनि जिसे शाक्य लामा भी कहते थे, उसकी कहानी ज़रूर लिखी है. यह शाक्य लामा उस बौन धर्म का था जिसमें लामाओं के आकाश में उड़ने और ख्युंग पक्षी की मान्यता है. वैष्णव धर्म के विपरीत दाहिने से बाईं दिशा की ओर धर्म चक्र घुमाने और मठों की परिक्रमा उल्टी दिशा में करने के अलावा बकरी की छाती चीर कर हृदय निकालने जैसे बौन तांत्रिक अनुष्ठान के कुछ लक्षण आज भी जोहार के समाज में मिल जाते हैं. नागिन की पूजा करने और चरखमियां जंगपांगी लोगों को नाग की संतान कहे जाने की कहानी के आधार पर कहा जाता है कि जोहार में नागवंशी लोग निवास करते थे. बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से पहले मंगोलिया, चीन, तिब्बत, नेपाल, सिक्कम और भारत के हिमालयी भूभाग पर बौन धर्म के अनुयायी निवास करते थे. बौन धर्म के बारे विस्तार से जानने के लिए आप बारामासा का ये कार्यक्रम देख सकते हैं जिसका लिंक डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.
कुमाऊँ में कत्यूरी वंश के अवसान और चंद वंश की शुरुआत के समय ये पूरा इलाका नेपाल के डोटी शासन के अधीन था. चंद शासन काल की जब शुरुआत हुई तो गढ़वाल, कुमाऊँ, नेपाल और कुछ अन्य जगहों से भी लोग आकर जोहार में बसने लगे थे. इस दौरान यहां पहले से रहने वाले लोगों और बाद में बसे लोगों के बीच जबरदस्त संघर्ष भी हुए. फिर साल 1597 में राज रूद्रचंद ने सभी गुटों के बीच समझौता करवाया. राजा रूद्रचंद के शासन में ही इस पूरे इलाके को जीत कर चंद वंश में मिला लिया गया. धीरे धीरे पूर्व निवासी पंज्वारी और बाद में आये लोगों के बीच वैवाहिक और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुए और कालांतर में बौन अथवा बौद्ध धर्म का प्रभाव यहां कम होता गया. कुमाऊँ के निकट संपर्क में रहने के कारण इस पूरे समाज ने फिर वैदिक धर्म को अपना लिया.
18 वीं सदी के मध्य में भादू बूढ़ा की चौथी पीढ़ी में पैदा हुए कोनच्यो बूढ़ा ने बमन गांव के जयदेव नाम के एक द्विवेदी ब्राह्मण को आमंत्रित कर उन्हें मिलम वालों का पुरोहित नियुक्त किया. उनके बाद जोशी, पंत, पांडे, त्रिपाठी, लोहनी आदि पंडित आकर जोहार के पुरोहित बने. इसी अवधि में अलग-अलग इलाकों से शिल्पकार और मिरासी वर्ग के लोग भी यहां आकर शौकाओं के आश्रय में रहने लगे जिससे यहां वर्ण के आधार पर सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हुई.
सन 1670 में भादू मिलम्वाल और लोरू ब्रिजवाल ने कैलाश मानसरोवर यात्रा करने गए राजा बाजबहादुर चंद का मार्गदर्शन किया था. इससे खुश होकर बाजबहादुर चंद ने इन्हें जोहार के कई गांव बतौर जागीर दिए. कुमाऊँ में गोरखा शासन स्थापित होने से पहले चंद शासकों की दुर्बलता के कारण जोहार एक स्वतंत्र क्षेत्र की तरह रहा. यहां पर जसपाल बूढ़ा मिलम्वाल का स्वच्छंद शासन चलता था. साल 1790 में गोरखों ने बड़ी सरलता से कुमाऊँ को जीत कर अगले कुछ सालों में गढ़वाल और फिर कांगड़ा तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया. लेकिन जोहार के तत्कालीन प्रधान जसपाल बूढ़ा ने दस साल तक गोरखाओं को जोहार में घुसने नहीं दिया. हालांकि युद्ध के हालात में लगतार कमजोर पड़ते व्यापार और आर्थिक स्थिति के कारण जसपाल बूढ़ा ने गोरखाओं के साथ संधि कर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली. आगे चल कर जसपाल बूढ़ा का पुत्र विजय सिंह नेपाल दरबार से लाल मुहर हासिल करने में सफल हुआ और यहां का निरंकुश शासक बना. नेपाल दरबार में जब उसकी शिकायत हुई तो विजय सिंह को नया प्रधान नियुक्त किया गया. इन्हीं विजय सिंह की चौथी पीढ़ी के उत्तम सिंह रावत ने साल 1878 में पूरे कुमाऊँ में सबसे पहले ईसाई धर्म अपनाया. हालांकि स्थानीय लोग इस धर्म परिवर्तन से खुश नहीं थे लेकिन पादरी उत्तम सिंह रावत और उनके पुत्र प्रिंसिपल हेनरी जॉन रावत और डॉ आर्थर रावत ने जो जनहित और शिक्षा के क्षेत्र में काम किए, उससे शौका समाज का भला ही हुआ.
साल 1812 में विलियम मूरक्राफट के तिब्बत भ्रमण से लौटने और इस सीमांत व्यापार के फायदे देखने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस पूरे क्षेत्र को गोरखाओं से जीतकर अपने अधीन कर लिया. बाद में कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने इस क्षेत्र से होने वाले तिब्बत व्यापार पर विशेष ध्यान देना शुरू किया. असल में कंपनी सरकार को इस व्यापार के जरिये तिब्बत की रैकी करने का अवसर मिल गया था. विलियम ट्रेल ने तब इस पूरे इलाके के व्यापारियों के लिए ट्रैंज़िट टैक्स भी समाप्त कर दिया जिससे शौका समाज की आर्थिक स्थिति और भी बेहतर हुई. उनकी ये समृद्धि तब तक बनी रही जब तक 1960 के दशक में भारत-चीन युद्ध के चलते व्यापार बंद नहीं हो गया. इस व्यापार का बंद होना जोहार-मुनस्यारी क्षेत्र के लिए बाद झटका था क्योंकि उनकी पूरी आर्थिकी इसी पर निर्भर थी. लेकिन इसके बाद भी इस क्षेत्र के लोगों ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई और बेहद दुर्गम इस इलाक़े से निकल कर वे देश-दुनिया में छाए.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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