आठ राजाओं का तख्तापलट करने वाले हर्ष देव जोशी की कहानी

  • 2022
  • 23:02

पहाड़ी रियासतों के कुछ किस्से एम्पायर सिरीज़ के पिछले एपिसोड्ज़ में हम आपको सुना चुके हैं. उन किस्सों में सामंतों की आपसी अदावतें हैं तो लालच, महत्वकांक्षा और खूनी संघर्ष भी. शौर्य की पटकथाएं हैं तो महलों की ढहती दीवारों की अनकही कहानियां भी.

इस सिरीज़ में अब तक आपने राजा रानियों के रोचक किस्से सुने, लेकिन आज हम आपको एक ऐसे शख्स का किस्सा सुनाने जा रहे हैं, जो असल मायनों में एक किंग-मेकर था. एक ऐसा शख़्स जिसे इतिहास ने कई उपमाएं दी. कहीं वो वीर नायक के रूप में दर्ज हुआ तो कहीं राजनीतिक चालबाज के रूप में. ऐसा राजनीतिक चालबाज जो आठ राजाओं को सत्ता में बैठाता है और उतनों का ही तख्ता-पलट भी करता है. 

उसका किरदार इतना उलझा हुआ है कि कभी वो एक कुशल प्रशासक नजर आता है तो कभी घर का भेदी. कभी उसे गढ़वाल और कुमाऊं के बीच भाईचारे की बुनियाद डालने वाले के रूप में याद किया जाता है तो कभी गढ़वाल का कसाई तक कह दिया जाता है. कहीं वो कुमाऊं का चाणक्य कहलाता है, कहीं कुमाऊँ का शिवाजी और कहीं अर्ल ऑफ़ वारविक. 

आखिर कौन था ये शख्स जिसके इतिहास में इतने रूप मिलते हैं? जिसकी चर्चा हमेशा विवादों से घिरी रही है लेकिन बावजूद इसके गढ़वाल और कुमाऊं के इतिहास की किताबें उसके बिना अधूरी हैं. गोरखाओं के लिये राजनीतिक बिसात बिछाने वाले और अंग्रेज हुकूमत के साथ कूटनीतिक संबंध बनाने वाले अठारहवीं शताब्दी के इस नायक या खलनायक का नाम है पंडित हर्ष देव जोशी.

पंडित हर्ष देव जोशी का जन्म अठारहवीं सदी में कुमाऊँ के झिझार क्षेत्र के प्रसिद्ध जोशी परिवार में हुआ था. उनके पिता शिव देव जोशी कुमाऊँ नरेश कल्याण चन्द्र और उनके बाद उनके पुत्र दीप चन्द्र के प्रमुख मंत्री रहे. हर्ष देव को बचपन से ही शासन कार्य व सैन्य संचालन की अच्छी शिक्षा अपने पिता से मिली थी. पिता-पुत्र पर्वतीय क्षेत्र की रक्षा के लिए दिल्ली के बादशाह और नजीबाबाद के नवाब से मधुर सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयास करते रहते. उस समय राज्य की पड़ोसी रियासत रूहेलखंड में रुहेले ख़ासे शक्तिशाली थे. लेकिन हर्ष देव और उनके पिता ने कुमाउं की सेना को इस कदर शक्तिशाली बना दिया था कि रियासत पर कोई नजर उठाने की जुर्रत नहीं करता. 

1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई जिसमें दिल्ली के बादशाह अहमद शाह अब्दाली और मराठा सेनापति सदाशिव राव भाउ आपने-सामने थे. इस युद्ध में पंडित हर्ष देव जोशी ने अब्दाली की सहायता के लिए चार हजार सैनिक भेजे. एक कुशल प्रशासक के तौर पर वो अब तक इतने विख्यात हो चुके थे कि नवाब नजीबुदौला जब स्वयं बादशाह की मदद के लिए पानीपत के मैदान में गया, तो उसने भी अपनी गैर-हाज़िरी में राज्य प्रबन्धन के लिये हर्ष देव जोशी को ही नियुक्त किया. हर्ष देव ने बड़ी कुशलता से इस दौरान रूहेलखंड पर राज किया. 

हर्ष देव जोशी की क़वायदों से कुमाऊँ व गढ़वाल में भी परस्पर भाईचारा व प्रेम भाव बढ़ा. 1764 ई. में कुमाऊँ के राज परिवार में एकाएक गृह-कलह शुरू हो गया. कुँवर मोहन सिंह ने नरेश दीप चन्द्र को बन्दी बनाकर उनकी रानी शृंगार मंजरी का कत्ल कर दिया. पंडित हर्ष देव तुरन्त देश रक्षा के लिए आगे आए. एक शक्तिशाली सेना का गठन कर शीघ्र ही कुंवर मोहन सिंह को राज्य से खदेड़ दिया और दीप चन्द्र को मुक्त कराया. लेकिन तभी एक नई मुसीबत सामने आ गई. समाचार मिला कि काशीपुर में नियुक्त फौजदार नन्द राम, कुमाऊँ राज्य के तराई इलाके को राज्य से अलग कर, लखनऊ के नवाब की सल्तनत के अन्तर्गत ले जाने का कुत्सित षड्यंत्र कर रहा है. हर्ष देव जोशी को ये बात पता चली तो वो तुरंत एक छोटी-सी सेना लेकर काशीपुर पहुंचे और नंद राम को वहां से खदेड़ दिया.

नन्द राम और कुंवर मोहन सिंह ने मिलकर कुमाऊँ राज्य पर अधिकार करने की कई बार साजिश की. कुंवर मोहन ने चालाकी से राज्य में प्रवेश की राजाज्ञा भी प्राप्त कर ली थी. कुछ समय बाद 1771 में मोहन सिंह ने पंडित हर्ष देव के भाई जय कृष्ण की हत्या कर दी और हर्ष देव को गिरफ्तार कर बन्दी गृह में डाल दिया. इसके बाद नन्द लाल के साथ स्पष्ट रूप से देशद्रोह में शामिल होकर कुंवर मोहन सिंह ने काशीपुर का मैदानी क्षेत्र अवध के नवाब के सुपुर्द कर दिया. रुद्रपुर को भी कुमाऊँ से अलग कर नवाब के इलाके में शामिल करने के लिए फरमान जारी कर दिया गया.

पंडित हर्ष देव जोशी को जेल में जब यह सूचना गुप्त रूप से मिली तो उन्हें बहुत दुख हुआ. उन्होंने किसी प्रकार बन्दी गृह से ही गढ़वाल एवं डोटी के नरेशों को सूचना भिजवाई और उनसे मदद माँगी. टिहरी के राजपरिवार में जन्मे कैप्टन शूरवीर अपनी किताब में लिखते हैं कि यह पहला मौका था जब पंडित हर्ष देव जोशी ने कुमाऊँ और गढ़वाल की अखंडता के लिये एक संयुक्त सैनिक अभियान की वकालत की.

इसके बाद गढ़वाल नरेश ललित शाह ने तुरन्त अपने प्रधान सेनापति प्रेम पति खंडूरी के नेतृत्व में एक विशाल सेना कुमाऊं की ओर रवाना की. मोहन सिंह अब तक ख़ुद को कुमाऊँ नरेश घोषित कर चुका था और उसने अपना नाम मोहन सिंह से बदल कर मोहन चंद रख लिया था. उसने अपने भाई लाल सिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सेना से मोर्चा लेने के लिये 1779 के पूर्वाद्ध  में सेना भेजी. यह दोनों सेनाएं बगवाली पोखर में भिड़ी और इसमें मोहन सिंह की सेना की हार हुई. इसके कुछ ही समय बाद हर्ष देव जोशी भी जेल से रिहा कर दिए गए.

मोहन चन्द में वीरता की कमी थी. वह भागकर टनकपुर होते हुए अवध के नवाब के पास पहुँचा. उसे वहां से भी जब सहायता नहीं मिली तो वो रामपुर के नवाब फैजुल्ला खाँ के पास पहुँचा. मोहन चन्द की सहायता से नवाब रामपुर ने काशीपुर पर आक्रमण कर लूट-पाट तो की, लेकिन कुमाऊँ के विरुद्ध सैन्य अभियान की हिम्मत रामपुर नवाब की भी नहीं हुई. इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साबित हो गई कि गढ़वाल नरेश ललित शाह व कुमाऊँ के जन नायक हर्ष देव जोशी की संगठित शक्ति के समक्ष मैदानी भाग के शासकों ने अपने को कमजोर पाया.

हालांकि मोहन चन्द व नन्द राम के राजद्रोही षड्यंत्र फिर भी चलते रहे. अल्मोड़ा के राज महल में भी गुटबाजी शुरू हो चुकी थी क्योंकि पूरी रियासत बिना किसी शासक के थी. ऐसे में कोई निर्णायक कदम उठाया जाना जरूरी था. पंडित हर्ष देव जोशी जानते थे कि बाहरी आक्रमणकारियों से अगर रियासत को बचाना है तो किसी न किसी को शासन की कमान सम्भालनी ही होगी. लिहाज़ा वे गढ़वाल रियासत के राजा ललित शाह से मिले. लंबी बैठकों के बाद ये तय हुआ कि ललित शाह के दूसरे पुत्र राजकुमार प्रद्युम्न शाह अल्मोड़ा जाएंगे और वहां की गद्दी सम्भालेंगे. लेकिन इसमें एक दिक्कत थी. दिक्कत ये कि अगर राजकुमार प्रद्युम्न शाह कुमाऊँ का राजकाज सम्भालते हैं तो बाहरी होने के कारण जनता उतना सहयोग न करे और महल में फिर से गुटबाजी होने लगे. 

इसका तोड़ भी पंडित हर्षदेव जोशी ने निकाला. उन्होंने 1779 में प्रद्युम्न शाह को स्वर्गीय नरेश दीप चन्द के धर्म पुत्र के रूप में वहां के राज्य सिंहासन पर बैठा दिया और खुद हर्ष देव उनके प्रधानमंत्री मंत्री और रक्षा सलाहकार के रूप में सहायक बने. 

इधर गढ़वाल में ललित शाह की मृत्यु होने पर उनका बड़ा बेटा जयकृत शाह गढ़वाल की गद्दी पर बैठा. कुछ स्वार्थी व उपद्रवी तत्वों की कुमंत्रणा पर गढ़वाल नरेश ने यह दावा कर दिया कि प्रद्युम्न शाह चूँकि उनके छोटे भाई हैं, लिहाज़ा कुमाऊँ रियासत को उनके आधीन होना चाहिए. प्रद्युम्न शाह और पंडित हर्ष देव ने इसका कड़ा विरोध किया. वो जानते थे कि ऐसा होने पर दोनों क्षेत्र की जनता में आपसी टकराव होने की पूरी आशंका थी. लेकिन जयकृत शाह के दिमाग में ये सनक घर कर चुकी थी. इसी सनक के चलते उसने अल्मोड़ा की तरफ अपनी विशाल सेना को रवाना कर दिया. ये बात जैसे ही पंडित हर्ष देव जोशी को पता चली तो उन्होंने भी अपनी सेना तैयार की और उसका नेतृत्व खुड़ अपने हाथों लिया. इस भीषण युद्ध में गढ़वाल के राजा जयकृत शाह की हार हुई.

इस युद्ध के कुछ समय बाद ही जयकृत शाह की मौत हो गई. लेकिन संकट के बादल अभी भी नहीं छंटे थे. जयकृत का तीसरा भाई पराक्रम शाह भी महत्वाकांक्षी होने के साथ ही दंभी स्वभाव का था. गढ़वाल की गद्दी पर बैठने के लिए उसने तुरन्त प्रयास शुरू कर दिए. पं. हर्ष देव चाहते थे कि जयकृत शाह की मृत्यु के बाद अब प्रद्युम्न शाह ही बड़े होने के कारण सम्पूर्ण उत्तराखण्ड, यानी कुमाऊँ व गढ़वाल के सम्मिलित क्षेत्र पर शासन व सुव्यवस्था का प्रबन्ध अल्मोड़ा से करें. लेकिन पराक्रम शाह के षड्यंत्रों को देखते हुए उन्होंने प्रद्युम्न शाह को तुरंत ही श्रीनगर गढ़वाल जाकर राज्य भार अपने हाथ में लेने की सलाह दी. 

प्रद्युम्न शाह श्रीनगर लौटे ही थे कि मोहन चन्द और नन्द राम ने पराक्रम शाह के साथ मिलकर कुमाऊं पर हमला कर दिया. इस बार पराक्रम शाह के पास पहले से बड़ी सेना थी. लिहाजा नैथाणा गढ़ी में हुई इस लड़ाई में वो पंडित हर्ष देव की सेना को हराने में सफल हो गए. पंडित हर्ष देव ने तराई में भाग कर गढ़वाल रियासत में प्रद्युम्न शाह से संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया. उधर, पराक्रम शाह ने मोहन चंद को कुमाऊँ की राजगद्दी पर बैठा दिया और खुद श्रीनगर की तरफ चल दिए. श्रीनगर की गद्दी पर प्रद्युम्न शाह बैठ चुके थे. इसलिये पराक्रम शाह ने राजधानी के बाहर ही पड़ाव डाल दिया. 

उधर, कुछ ही समय बाद कुमाऊँ रियासत में अराजकता फैल गई. राजकोष लूट लिया गया और सेना को वेतन देने तक के लाले पड़ गए. हर्ष देव जोशी ने इस मौके का फ़ायदा उठाया और एक छोटी-सी सेना बनाकर ही मोहन चंद को गद्दी से उतार दिया और सत्ता अपने हाथों ले ली. इसकी सूचना पराक्रम शाह को मिली तो उन्होंने फिर से अल्मोड़ा पर हमला किया और हर्ष देव को हरा दिया. हर्ष देव किसी भी तरह राजा प्रद्युम्न शाह को अल्मोड़ा के मामले में हस्तक्षेप करने के लिए मनाना चाहते थे. इसके लिए वो गुपचुप तरीके से श्रीनगर में उनके महल पहुंचे, लेकिन पराक्रम शाह के समर्थकों ने उन्हें वहां से खदेड़ दिया. 

ख़ुद को बेहद अकेला पाते हुए हर्ष देव जोशी ने अब नेपाल का रुख़ किया. एडविन एटकिंसन के गैज़ेटियर में जिक्र मिलता है कि इस पूरे घटनाक्रम के बाद पंडित हर्षदेव ने नेपाल के राजा को पत्र लिखकर कुमाऊँ में फैली अराजकता को खत्म करने को कहा. नेपाल के लिए ये एक बड़ा मौका था. वो कभी भी हमला करने वाले थे. लेकिन गोरखों को पहले कुमाऊँ और फिर गढ़वाल में दाखिल कराने का ये ही वो दाग भी था, जो अब पंडित हर्ष देव जोशी के दामन पर इतना गहरा लगने वाला था कि इतिहास में उन्हें ग़द्दार और लालची के रूप में भी दर्ज किया गया.

काली पार से गोरखों के आक्रमण की यह आशंका सच साबित हुई. गोरखों ने अपने बड़े सेनापतियों चौंतरिया बहादुर शाह, काजी जगजीत पांडे, अमर सिंह थापा और सूरत सिंह थापा के संयुक्त नेतृत्व में कुमाऊं के दो हिस्सों में धावा बोल दिया. हर्षदेव जोशी को नेपाल के राजा का लाल मुहर वाला एक पत्र भी आ गया. इसमें उन्हें गोरखों की मदद करने के लिए कहा गया था. 

गोरखाओं के आक्रमण के साथ ही पूरे कुमाऊं क्षेत्र में खलबली मच गई. गोरखा सूबेदार अमर सिंह ने कुमाऊं की फौज पर गंगोली में भारी हमला बोल दिया. लेकिन महेन्द्र चंद की सेना ने इस मोर्चे पर उसे हरा दिया. यहां से हारने के बाद गोरखा सेना काली कुमाऊं की ओर भागी. वहां लाल सिंह मोर्चा संभाले थे. जब तक महेन्द्र चंद अपने चाचा की सहायता के लिए काली कुमाऊं पहुंचते, गोरखा सेना ने वहां लाल सिंह को हरा दिया. कोटालगढ़ के निकट गौतोड़ा गांव में दो सौ कुमाउनी सैनिकों को मारकर गोरखों ने लाल सिंह को तराई की ओर भागने को विवश कर दिया था. अब महेन्द्र चंद भी अल्मोड़ा में बचने की आशा छोड़ मैदान की ओर भागे. इससे गोरखों ने अपना रास्ता साफ देखकर अल्मोड़ा पर चढ़ाई कर दी. एक साधारण से युद्ध के बाद हवालबाग में 1790 को गोरखों का कुमाऊं में कब्जा हो गया. यहीं से शुरू होती है दमन और अत्याचार में आकंठ डूबे एक ऐसे शासन की कहानी, जिसने पच्चीस साल तक कुमाऊं और गढ़वाल को अपने खूनी पंजे में दबोचे रखा. इतिहास में इस क्रूर समय को सब ‘गोरख्याली राज’ के रूप में जानते हैं.

कुमाऊं का राजपरिवार भाग कर तराई चला गया. गोरखाओं को कुमाऊं और गढ़वाल पर हमला करने का न्यौता देने का आरोप पंडित हर्ष देव जोशी पर ताउम्र रहा. इस पर विस्तार से प्रसिद्ध इतिहासकार और यात्री एडविन एटकिंसन  ने लिखा है. हालांकि कई इतिहासकार हर्ष देव जोशी को दोषी नहीं मानते. इनमें सबसे पहले हैं टिहरी राजवंश के कुंवर और पंडित हर्ष देव जोशी पर ‘अखंड उत्तराखंड के स्वप्नदृष्टा’ किताब लिखने वाले कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार. वे एटकिंसन की बातों को ख़ारिज करते हुए लिखते हैं कि उस वक्त की परिस्थितियों पर अगर बारीक नजर डाली जाए तो ऐसा कोई पुख़्ता माण नहीं मिलता, जो सीधे पंडित हर्षदेव जोशी को दोषी ठहराता हो.

उधर, गोरखाओं ने पंडित हर्ष देव जोशी को आश्वासन दिया था कि जब वो कुमाऊं पर कब्जा कर लेंगे तो शासन हर्ष देव को सौंप दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नेपाली प्रशासक अमर सिंह थापा ने पंडित हर्ष देव को भी बंदी बना लिया. इस बीच चीन की नेपाल के साथ संधि हो गई नेपाल से आदेश आया कि कुमाऊं और गढ़वाल का राज किसी को न दिया जाए. जब पंडित हर्ष देव जोशी को लगा कि अब गोरखा उन्हें छोड़ेंगे नहीं तो वो उनकी कैद से भागकर जोहार की ओर चले गए. गोरखाओं को लगा कि हर्षदेव जोशी अब भी पाली और बारामंडल में अपना प्रभाव रखते हैं और वे वहां की जनता को गोरखाओं के खिलाफ भड़का सकते हैं. इसलिए उन्हें जोहार में नेपाली हुकूमत के कहने पर फड़त्याल धड़े ने नजरबंद कर दिया. गोरखाओं को यह भी लगता था कि हर्ष देव कभी भी अपने पुराने मित्र गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह के साथ मिलकर कुमाऊं से भी गोरखों को हटवा सकते हैं. इसकी सूचना लाल सिंह और महेंद्र चंद्र को भी भेजी गई तो उन्होंने हर्ष देव जोशी की हत्या के लिए पद्म सिंह नाम के अपने एक रिश्तेदार को रवाना किया.

लेकिन पंडित हर्ष देव जोशी कूटनीति जानते थे. उन्होंने बड़ी चालाकी से पद्म सिंह को बताया कि कुमाऊं के असली वारिस तो आप हैं. आप कहां इन चक्करों में पड़े हो. हर्ष देव का यह दांव सही पड़ा. जो कुंवर पद्म सिंह उनकी हत्या करने निकला था उसे राजा बनाने का सपना दिखाकर हर्ष देव ने अपनी तरफ कर लिया. फिर उसी की मदद से वे गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह से मदद मांगने गए. लेकिन प्रद्युम्न शाह ने पुराने अनुभवों से सबक लेते हुए कुमाऊं की राजनीति में कोई दखल न देने की बात कही और हर्ष देव की कोई भी मदद करने से इनकार कर दिया. वे श्रीनगर में रहकर ही अपने अस्तित्व को बचाने की उधेड़बुन में लगे रहे. 

इस बीच रोहिल्ला सरदार गुलाम मुहम्मद खां गढ़वाल के भाबर क्षेत्र के ‘फत्तेचौड़’ नामक स्थान तक घुस आया. वहां पर गढ़वाली सेना तो थी, लेकिन नेतृत्व करने वाला कोई नहीं था. ऐसे में पंडित हर्ष देव जोशी तुरंत ही वहाँ पहुंचे और उन्होंने गढ़वाली सेना का नेतृत्व करते हुए मुहम्मद खां को वहां से भगाया. इस घटना के बाद हर्ष देव एक बार फिर से गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह के निकट आ गए थे. प्रद्युम्न शाह ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर उस समय के पॉलिटिकल एजेंट मिस्टर चेरी के पास बनारस भेजा. वहां हर्ष देव जोशी ने अंग्रेज अफसर चेरी से गोरखाओं के खिलाफ हमला करने का आग्रह किया. इसी घटना के चलते इतिहास में हर्ष देव जोशी पर एक और आरोप चस्पाँ हो गया. वो ये कि उन्होंने ही अंग्रेजों के कुमाऊ में दाखिल होने का रास्ता बनाया.

हर्षदेव जोशी ने मिस्टर चेरी के साथ जो लिखा-पढ़ी की वह भले ही अंग्रेजी हुकूमत के लिए मुफीद हो रही थी, लेकिन कुमाऊं और गढ़वाल का गोरखों के क्रूर शासन से मुक्ति का द्वार भी यहीं से खुलता था. लेकिन यहां से इतिहास एक नया मोड़ लेने वाला था. 1799 में मिस्टर चेरी की हत्या कर दी गई और हर्ष देव जोशी का एक बड़ा कूटनीतिक चक्रव्यूह टूट गया. इस घटना के कुछ समय बाद उन्होंने राजनीतिक कार्यों से सन्यास ले लिया और हरिद्वार के कनखल गंगा किनारे आकर रहने लगे. 

लगभग यही वो समय भी था जब गढ़वाल एक भयानक भूकंप की त्रासदी झेल रहा था. ऊपर से राजशाही भी आंतरिक संकट के चलते अपने बेहद कमजोर दौर में थी. इसी का फ़ायदा उठाते हुए गोरखाओं ने साल 1803 में गढ़वाल पर हमला कर दिया. प्रद्युम्न शाह और उनके मंत्री-सलाहकार चाहते थे कि ऐसे समय में हर्ष देव जोशी जैसे रणनीतिकार को अपने साथ शामिल कर लेना चाहिए. लेकिन उनके भाई पराक्रम शाह इसके लिए तैयार नहीं हुए. 

गढ़वाल रियासत में प्रशासनिक दृष्टि से गृहयुद्ध जैसी स्थितियां बन रही थी जिसका फ़ायदा गोरखाओं को मिला. 

गोरखा सेनापति सुब्बा अमर सिंह थापा, हस्तिदल चौंतरिया, बमशाह चौंतरिया और रणजोर थापा ने एक बड़ी सेना लेकर गढ़वाल पर चढ़ाई कर दी. राजा प्रद्युम्न शाह ने अपने राज्य के बचाने के लिये अपने सोने का सिंहासन और आभूषण बेचकर लंडौर के गूजर राजा रामदयाल सिंह से सहायता माँगी और लगभग बारह हजार की फौज इकट्ठा की. इसी फौज के सहारे वो गोरखाओं से लड़े लेकिन देहरादून के खुड़बुड़ा में हुए युद्ध में गढ़वाली सेना की हार हुई और महाराजा प्रद्यम्न शाह वीरगति को प्राप्त हुए. पराक्रम शाह कांगड़े के राजा संसार चंद के यहां भाग निकले लेकिन कुंवर प्रीतम शाह को बंदी बनाकर नेपाल भेज दिया गया. इस प्रकार 1804 में कुमाऊं और गढ़वाल में पूरी तरह गोरखों को शासन हो गया. यहीं से शुरू हुई ‘गोरख्याली’. यानी कुमाऊं-गढ़वाल के इतिहास का एक ऐसा काला कालखंड जिसने अपने अत्याचारों की कहानी खून से लिखी.

गढ़वाल में गोरखाओं का दमन और अत्याचार फिर लगातार बढ़ता गया. गांव से लेकर कस्बों तक लोगों को बेरहमी से काटा गया, महिलाओं के साथ अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी गई, मासूम बच्चों तक की हत्याएँ हुई और लाखों गढ़वालियों को मंडियों में बेच दिया गया. कई तरह के लगान और कर लोगों से वसूले जाते. भूमि का लगान तो था ही, उत्सव-मेलों के लिए भी कर वसूला जाने लगा. यहां तक कि गाय-भैंस पालने पर भी कर चुकाना होता और महिलाएं अगर अपने घर की छत पर जाती तो उसका भी कर वसूला जाता. गोरखा सैनिकों का आदेश न मानने पर महिलाओं के स्तन तक काट दिए जाते. 

गढ़वाली लोगों को हरिद्वार में आठ-दस रुपये तक में बेचे जाने के समाचार आने लगे. हरिद्वार शहर गढ़वालियों की मंड़ी में तब्दील हो गया. इतिहास में जिक्र मिलता है कि इस दौरान दो लाख से अधिक लोगों को बेचा गया. हालांकि गढ़वाल में कुछ जगह इस दमन का प्रतिकार भी हुआ, लेकिन गोरखों ने गढ़वाल में 11 साल और  कुमाऊं में 25 साल अपना अत्याचारी शासन चलाया.

राजा प्रद्युम्न शाह के बेटे कुंवर सुदर्शन शाह हरिद्वार के पास लंढ़ौरा रियासत में शरण लिये हुए थे. पंडित हर्ष देव जोशी राजनीति से सन्यास लेकर कनखल में जीवन यापन कर रहे थे लेकिन गोरखाओं के अत्याचार ने उन्हें भी विचलित कर दिया था. लिहाज़ा अपना सन्यास छोड़ वो एक बार फिर से राजनीतिक तौर से सक्रिय हुए. अपने कूटनीतिक अनुभव और संबंधों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कनखल के ‘पहाड़ी मोहल्ले’ से अपनी राजनीति संचालित की. गोरखों को हटाने के लिए उन्होंने उत्तर भारत के सभी राजाओं और अंग्रेजों से मदद मांगनी शुरू की. अंग्रेज पहले से ही गोरखों के खिलाफ अपने अभियान में सक्रिय थे और कुमाऊं-गढ़वाल में अपना अधिकार जमाने की जुगत में लगे थे. हर्ष देव जोशी की लिखा-पढ़ी अंग्रेजों के साथ होने लगी. उस समय जनरल मारटिलडेल की सेना के पॉलिटिकल एजेंट डब्ल्यू फ्रेजर थे. कनखल में कप्तान हेरसी ने 1814 में हर्ष देव जोशी और सुदर्शन शाह को फ्रेजर से मिलवाया. 

राजा सुदर्शन शाह, हर्षदेव जोशी और डब्ल्यू फ्रेज के बीच हुए करार से अब गोरखों के खिलाफ लड़ने का नया मोर्चा बना. अपनी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेजों ने अपने सेनापति गिलेस्पी के नेतृत्व में 26 से 31 अक्टूबर, 1814 तक देहरादून के पास नालापानी में गोरखों से मोर्चा लिया. गोरखा सेनापति बलभद्र ने बड़ी बहादुरी से पांच दिन उन्हें रोके रखा लेकिन आखिर में अंग्रेजों ने गोरखों को हराकर गढ़वाल को ग्यारह साल के अत्याचारी शासन से मुक्त कराया. 

इस लड़ाई में अंग्रेज सेनापति गिलेप्सी भी मारा गया. इसी युद्ध के बाद गढ़वाल का दो भागों में विभाजन भी हुआ. हुआ यूं कि युद्ध के बाद अंग्रेजों ने सुदर्शन शाह से युद्ध खर्च के रूप में इतनी बड़ी धनराशि की माँग की जो उनके लिए चुकाना संभव ही नहीं था. तब तय हुआ कि गढ़वाल में गंगा पार का एक हिस्सा टिहरी के रूप में सुदर्शन शाह को सौंपा जाएगा जबकि पौड़ी में अंग्रेजों का शासन होगा. इतिहास में इस घटना को अलकनंदा की संधि के नाम से जाना गया.

गढ़वाल को गोरखाओं से मुक्त कराने के बाद अब कुमाऊँ को मुक्त कराया जाना बाक़ी था. हर्ष देव जोशी से हुई बातचीत को अमली जामा पहनाने के लिये अंग्रेजों ने काशीपुर से रणनीति बनाना शुरू कर दिया. हर्ष देव जोशी की उम्र अब तक भले ही 68 साल की हो गई थी, लेकिन उनकी रणनीति, बहादुरी और निर्णय लेने की क्षमता में कोई असर नहीं पड़ा था. उन्हें अब इस बात की उम्मीद हो गई थी कि अंग्रेज कुमाऊं से भी गोरखों को हटाकर उन्हें फिर सत्ता के केन्द्र में ला सकते हैं. 

वे काशीपुर पहुंचे और अंग्रेजों को कुमाऊं फतह करने के लिए सहयोग करने लगे. उन्होंने एक बार फिर अपने को सेनापति के रूप को साबित किया. अपने राजनीतिक चातुर्य और पुराने संबंधों को पुनः पिरोते हुए उन्होंने काशीपुर में महर, फरत्याल और तड़ागी आदि की सेनाएं इकट्ठी की और उन्हें अंग्रेज कप्तान हेरसी की फौज की सहायता के लिए तैयार कर लिया. इसी सेना के साथ फिर वो अल्मोड़ा आए. 

कुमाऊं अब एक नए कालखंड की ओर बढ़ रहा था. बड़ी तैयारी के साथ कर्नल गार्डनर चिलकिया-कोसी के रास्ते अल्मोड़ा की ओर तो कप्तान हैदरयंग हियरसे पीलीभीत से काली कुमाऊं और चंपावत की ओर बढे़. पहले उन्होंने गोरखों से ढिकुली नाम की जगह खाली करवाई. यहां से फिर अंग्रेज सेना चूकम, कोटागढ़ी टंगुड़ाघाट, काठ की नाव, अंगुडाघाटा, लोगलिया से भुजान तक पहुंच गई. फिर स्याहीदेवी कूमपुर होते हुए स्यूंनी और कटारमल होकर अल्मोड़ा की ओर वे सिटोली तक पहुंचे. 

उधर काली कुमाऊं में सेनापति हस्तिदल के नेतृत्व में नेपाली सेना ने अंग्रेज सेना के हेरसी को हरा दिया था. लेकिन गोरखे इसका फायदा न उठा सके. गोरखा प्रशासक बमशाह ने नेपाली सेना को कटारमल में ठहरी अंग्रेज सेना से मुकाबला करने अल्मोड़ा भेजा. सेनापति हस्तिदल ने एक सैन्य टुकड़ी के साथ गणनाथ में डेरा जमाया. गोरखे इस पड़ाव को गुप्त रखना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजों को इसका पता चला तो कर्नल निकोल्स ने एक बड़ी सैनिक टुकड़ी के साथ गणनाथ पर चढ़ाई कर दी. अचानक हुए इस हमले से गोरखों की सेना संभल नहीं पाई. गोरखा सेनापति हस्तिदल के सिर में एक गोली लगी और उसकी मौत के साथ ही गोरखा सेना तितर-बितर हो गई. इसके साथ ही कुमाऊं से भी गोरखों का अंत हो गया. इस अंतिम युद्ध के समय भी हर्ष देव जोशी गणनाथ में ही थे. 

इतिहास का एक कालखंड अब नई करवट ले चुका था. इतिहास अब एक नए पड़ाव की ओर बढ़ रहा था. गोरखों के अत्याचारों से मुक्ति का रास्ता तो निकल आया था लेकिन औपनिवेशिक दासता की इबारत लिखी जानी अब शुरू हो रही थी.

1815 में पंडित हर्ष देव जोशी का निधन हुआ. आज भी जब इतिहास के इस किरदार पर चर्चा होती है तो ये सवाल बार-बार उठता है कि उसका जिक्र एक नायक की तरह किया जाए किसी खलनायक की तरह. लेकिन इस बहस के बीच जो बात सर्वमान्य है वो ये कि हर्ष देव जोशी का नाम कुमाऊँ और गढ़वाल के इतिहास से अनदेखा कभी नहीं किया जा सकता. वो उस दौर में कितने महत्वपूर्ण थे इसका एक उदाहरण वो पत्र भी है जो साल 1815 में अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यू फ्रेजर ने ब्रिटेन में बैठे अपने उच्च अधिकारियों को भेजा था. इस पत्र में लिखा था, ‘हर्ष देव जोशी राजाओं का निर्माता और कुमाऊं का ‘अर्ल ऑफ़ वारविक’ है. उसमें अदभुत कर्मण्यता और अदम्य उत्साह है. सभी पहाड़ी राज्यों पर, सतलज के उस पार भी उसका बड़ा प्रभाव है. वह हमारा मुख्य उपकरण है, जिससे प्रभावित होकर हजारों कुमाउंनी हमारा साथ देने का तैयार हैं. उसका नाम सुनते ही गोरखे कांप उठते हैं.’ 

 

स्क्रिप्ट : मनमीत

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