गढ़वाल के पहले डिग्री कॉलेज की संघर्ष गाथा

  • 2023
  • 15:12

 

15 सितम्बर 1971. पौड़ी के कलक्ट्रेट ऑफिस के बाहर सैकड़ों आंदोलनकारी जमा हो रहे थे. रात के आठ बजते-बजते भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि पुलिस और प्रशासन के माथे पर चिंता की लकीरें गहराने लगी थीं. ख़ुफ़िया विभाग के गुप्तचर इन आंदोलनकारियों की एक-एक हरकत पर पंजर बनाए हुए थे. ये वो दौर था जब पूरा पहाड़ शिक्षा के सवाल पर लामबंद हो रहा था और विश्वविद्यालय की मांग दिनों-दिन तेज होने लगी थी.

15 सितम्बर की पूरी रात गढ़वाल मुख्यालय में प्रदर्शन जारी रहा और अगली सुबह ‘उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति’ ने पूरे गढ़वाल बन्द का आह्वान किया. अब तक हज़ारों की संख्या में लोग पौड़ी पहुंच चुके थे. सुबह, करीब साढ़े दस बजे जब जिलाधिकारी हमेन्द्र कुमार पुलिस सुरक्षा के बीच अपने कार्यालय पहुंचे तो आंदोलनकारियों का एक प्रतिनिधि मंडल उनकी तरफ़ बढ़ा. इसके साथ ही पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच धक्का-मुक्की होने लगी. कुछ देर की गहमागहमी के बाद डीएम साहब को एक ज्ञापन सौंपा गया. इसमें लिखी गई मांग स्पष्ट थी, पहाड़ में उच्च शिक्षा के लिए एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए, ताकि यहां के बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर लखनऊ, कानपुर या इलाहाबाद न जाना पड़े.

पूरा पौड़ी शहर आंदोलनकारियों के नारों से गूंज उठा था. इनमें सिर्फ़ युवा ही नहीं बल्कि बच्चे, बूढ़े और महिलाएं भी शामिल थी. ‘हमको दो तुम विश्वविद्यालय, मांग रहा है आज हिमालय’ और ‘भीड़ नहीं चिंगारी हैं, हम गढ़वाली नारी हैं’ जैसे नारे लोगों में जोश भर रहे थे. प्रतिरोध धीरे-धीरे उग्र हो रहा था कुछ आंदोलनकारियों ने कलक्ट्रेट ऑफिस के लोहे के गेट को ज़ोर-ज़ोर से हिलाते हुए उखाड़ डाला था.

पुलिस भीड़ को नियंत्रित करने की तमाम कोशिशें कर रही थी, मगर भीड़ बेकाबू होने लगी थी. ऐसे में पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया और एक पुलिस दरोगा ने छात्र नेता कुंज बिहारी नेगी की छाती पर पिस्तौल तान दी. जाहिर तौर पर ऐसा आक्रोशित भीड़ को कुछ डराने के लिए किया गया था, लेकिन इससे लोग और भी ज़्यादा आक्रोशित हो उठे. पुलिस ने आंदोलन का नेतृत्व कर रहे स्वामी मनमंथन और छात्र नेता कुंज बिहारी नेगी समेत कई अन्य लोगों को गिरफ़्तार कर रामपुर जेल भेज दिया गया. गिरफ्तार हुए इन आंदोलनकारियों के समर्थन में कई अन्य लोगों ने भी इस दिन अपनी गिरफ्तारियां दी.

विश्वविद्यालय आन्दोलन के दौरान की ये एक प्रमुख घटना रही. पहाड़ियों के लिए विश्वविद्यालय पाने की ये लड़ाई आसान नहीं रही. कई गिरफ्तारियों, लाठी चार्ज और भूख हड़तालों के बाद आज उत्तराखण्ड के लोगों ने अपने उच्च शिक्षा के केंद्र हासिल किए.

गढ़वाल और कुमाऊं, दोनों ही विश्वविद्यालयों की स्थापना उत्तर प्रदेश सरकार के एक ही अधिनियम के तहत हुई. लेकिन दोनों के ही अपने-अपने संघर्ष और संघर्षों का अलहदा इतिहास है. इसलिए गढ़वाल विश्वविद्यालय और कुमाऊं विश्वविद्यालय दोनों की ही कहानी हम आपको अलग-अलग ऐपिसोड्स में बताएंगे .

साल 1960. देश को आज़ाद हुए एक दशक से ज़्यादा का समय बीत चुका था लेकिन पूरे गढ़वाल क्षेत्र में अब तक एक भी महाविद्यालय नहीं था. उच्च शिक्षा के लिए अब भी पहाड़ के छात्रों को लखनऊ, इलाहाबाद या कानपुर जैसे शहरों का रूख़ करना पड़ता था. ऐसे में महाविद्यालय खोले जाने की मांग पूरे पहाड़ में ज़ोर पकड़ रही थी. श्रीनगर गढ़वाल के नगर पालिका अध्यक्ष भाष्करानन्द मैठाणी, विधायक नरेन्द्र सिंह भण्डारी, मित्रानन्द घिल्डियाल और सुरेन्द्र अग्रवाल जैसे कई अन्य लोग श्रीनगर में डिग्री कॉलेज की मांग को लेकर लगातार सक्रिय थे.

इस कॉलेज के खुलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. हुआ ये कि उन दिनों देश के चर्चित उद्योगपति माधव प्रसाद बिड़ला अपने परिवार के साथ बद्रीनाथ धाम पहुंचे थे. उस दौर में चारधाम यात्रा के संचालन में बाबा काली कमली क्षेत्र एक लोकप्रिय संस्था होती थी. पौड़ी के धरिगांव(?) के रहने वाले पूर्णानन्द नौटियाल बाबा काली कमली क्षेत्र के प्रबंधक थे और बिड़ला की इस बद्रीनाथ यात्रा में सहयोगी सहायक के रूप में उनके साथ थे.

यात्रा के दौरान पूर्णानन्द नौटियाल ने माधव बिड़ला को श्रीनगर में डिग्री कॉलेज खोले जाने की मांग के बारे में बताया. बिड़ला का पहाड़ के प्रति लगाव था लिहाज़ा उन्होंने पूर्णानन्द नौटियाल की बात को न सिर्फ़ गम्भीरता से सुना बल्कि वे श्रीनगर में डिग्री कॉलेज खोलने के लिए तैयार भी हो गए.

तब नौटियाल और माधव बिड़ला के पुरोहित तामेश्वर प्रसाद भट्ट ने तुरन्त श्रीनगर में मौजूद आंदोलनकारियों को ये सूचना दी और बद्रीनाथ से वापसी के दौरान श्रीनगर में एक अभिनन्दन समारोह आयोजित करने को कहा. माधव प्रसाद बिड़ला जब श्रीनगर पहुंचे तो उन्होंने यहां महाविद्यालय बनाए जाने की घोषणा कर दी. इस घोषणा के बाद श्रीनगर में जमीन की तलाश शुरू हुई और कुछ स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से आगे आकर अपनी ज़मीन कॉलेज के लिए दान कर दी. बिरला परिवार की ओर से कॉलेज निर्माण के लिए दो लाख रुपए दिए गए. करीब एक साल चले निर्माण कार्य के बाद, जुलाई 1961 में श्रीनगर का डिग्री कॉलेज बनकर तैयार हो गया और इसका नाम पड़ा ‘बिड़ला राजकीय महाविद्यालय.’ गढ़वाल के पहाड़ों का पहला महाविद्यालय खुल चुका था लेकिन इस ‘बिड़ला राजकीय महाविद्यालय’ का ‘गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय’ बनने का सफ़र अब भी बेहद लम्बा और चुनौतीपूर्ण था.

आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध श्रीनगर के इस ‘बिड़ला राजकीय महाविद्यालय’ में बीए और बीएससी तो शुरू गई लेकिन पोस्ट ग्रैजूएशन के लिए युवाओं को अब भी मैदानों की तरफ ही पलायन करना पड़ता था. इसलिए अब श्रीनगर कॉलेज में पोस्ट ग्रैजूएशन की पढ़ाई शुरू करने का आंदोलन होने लगा. कई धरनों, प्रदर्शनों और भूख हड़ताल के बाद आख़िरकार छात्रों की ये मांग भी पूरी हुई और कॉलेज में हिन्दी और राजनीतिक शास्त्र में पोस्ट ग्रैजूएशन शुरू हो गया. इसके बाद तो जनता का आत्मविश्वास दोगुना हो चुका था. उन्हें लगने लगा कि जब श्रीनगर कॉलेज में पोस्ट ग्रैजूएशन शुरू हो सकता है तो विश्वविद्यालय क्यों नहीं? उनकी ये मांग बिल्कुल जायज़ भी थी. क्योंकि छात्रों को अब भी डिग्री और अन्य छोटे-छोटे कार्यों के लिए आगरा ही जाना पड़ रहा था. ऐसे में पहाड़ के छात्र-छात्राओं के लिए एक अलग पर्वतीय विश्वविद्यालय की ज़रूरत महसूस होने लगी. लिहाज़ा अब शुरू हुआ संघर्ष उत्तराखण्ड के पहले विश्वविद्यालय का.

पहाड़ के तमाम बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों के गहन सोच-विचार के बाद ‘उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति’ अस्तित्व में आई. इसके संरक्षक बने स्वामी मनमंथन और भाष्करानन्द मैठाणी. समिति का अध्यक्ष प्रेम लाल वैद्य को बनाया गया, उपाध्यक्ष विद्यासागर नौटियाल को और मंत्री बने कृष्णानन्द मैठाणी, प्रताप सिंह पुष्पवान और हजारी लाल जोशी. इसके अलावा ऋषिबल्लभ सुंदरियाल को समिति का प्रचार मंत्री बनाया गया और 20 अन्य सदस्यों को केन्द्रीय संघर्ष समिति में शामिल किया गया.

अक्टूबर 1969 का ये वही दौर भी था जब पेशावर विद्रोह के क्रांतिकारी नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली प्रदेश के 7 जनपदों का भ्रमण कर रहे थे. अपने इस भ्रमण के दौरान गढ़वाली ने पर्वतीय क्षेत्र में विश्वविद्यालय खोले जाने की वकालत की. गढ़वाली जब मसूरी में थे तो उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त और केन्द्र सरकार को पत्र लिखते हुए चेताया कि कुमाऊं और गढ़वाल में जल्द ही विश्वविद्यालय खोले जाएं अन्यथा वे भूख हड़ताल पर बैठेंगे. इस बात का ज़िक्र पोस्ट न्यूज सर्विस 18 अक्टूबर 1969 में भी किया गया है. गढ़वाली की इस घोषणा के बाद तो पहाड़ में विश्वविद्यालय की मांग ने और भी जोर पकड़ लिया.

26 जुलाई 1971 को समिति के संरक्षक स्वामी मनमंथन के नेतृत्व में श्रीनगर में एक विशाल जनसभा का आयोजन हुआ. इस दिन न सिर्फ़ श्रीनगर बल्कि कीर्तिनगर, कर्णप्रयाग, गौचर, चमोली, पीपलकोटी, जयहरीखाल, लैंसडाउन, मसूरी, दुगड्डा, कोटद्वार और नन्दप्रयाग जैसे शहरों में भी सरकारी कार्यालयों से लेकर बाज़ार तक, सब बंद रहा.

इसके बाद 15 अगस्त 1971 को टिहरी में जनसभा आयोजित की गई. अलग-अलग शहरों और कस्बों में संघर्ष समिति की उपसमितियों गठित होने लगी. जगह-जगह जनता से अपील की जा रही थी कि विश्वविद्यालय के आंदोलन में बढ़-चढ़ कर प्रतिभाग करें. उच्च शिक्षा की ये लड़ाई आख़िरकार उन्हीं के बच्चों के भविष्य के लिए लड़ी जा रही थी. लिहाज़ा दूरदराज के क्षेत्रों से भी लोग इन जनसभाओं का हिस्सा बनने आते जिनमें महिलाएं, बच्चे-बूढ़े सभी शामिल होते.

महन्त गोविन्द पुरी के नेतृत्व में श्रीनगर के राजकीय बालिका विद्यालय की जनसभा में तो 10 हजार से भी ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया. लेकिन तमाम प्रदर्शनों और जनसभाओं के बाद भी सरकार नींद से जागने को तैयार नहीं थी. ऐसे में 23 अगस्त 1971 को स्वामी मनमंथन और स्वामी ओंकारानन्द ने पौड़ी डीएम ऑफिस के बाहर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने की योजना बनाई. समिति के अन्य सदस्यों के नेतृत्व में करीब 10 हज़ार लोगों ने पूरे पौड़ी शहर में नारेबाजी कर जुलूस निकाला. दुकानें, ऑफिस, स्कूल समेत पूरा पौड़ी शहर एक बार फिर से बंद था.

स्वामी मनमंथन और स्वामी ओंकारानन्द की भूख हड़ताल जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, लोगों का आक्रोश भी इसके साथ-साथ बढ़ता जा रहा था. 29 अगस्त 1971 को फिर से विशाल जन प्रदर्शन हुआ. प्रशासन भी लगातार सख़्त होता जा रहा था और श्रीनगर व पौड़ी में धारा 144 लागू कर दी गई थी. उधर भूख हड़ताल पर बैठे दोनों आंदोलनकारियों की सेहत बिगड़ती जा रही थी. ऐसे में 2 सितम्बर 1971 को जनता के आग्रह पर उन्होंने भूख हड़ताल खत्म कर दी. लेकिन इससे जनता के हौसलों में कमी बिल्कुल नहीं आई. कई नेता भी जनता की जायज़ मांग का समर्थन कर रहे थे. मसलन मध्यप्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री डॉ महेन्द्र कुमार मानव जब चारधाम यात्रा पर आए तो उन्होंने भी उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय की मांग का समर्थन किया. लिहाजा सरकार पर दबाव बढ़ता जा रहा था.

16 सितम्बर 1971 के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा में 23 विधायक श्रीनगर में विश्वविद्यालय की मांग के लिए कार्य स्थगन प्रस्ताव भी ले आए थे. ये वही दिन था जब पौड़ी में हुए एक विशाल प्रदर्शन के चलते छात्र नेता कुंज बिहारी नेगी और स्वामी मनमंथन को गिरफ़्तार कर रामपुर जेल भेज दिया गया था. उनकी रिहाई के लिए एडवोकेट हुकुम सिंह नेगी ने पौड़ी के डीएम ऑफिस के बाहर भूख हड़ताल शुरू की. इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने आंदोलनकारियों की रिहाई के आदेश जारी किए.

एक तरह विश्वविद्यालय आंदोलन लगातार तेजी पकड़ रहा था तो दूसरी इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए सरकार तमाम हथकंडे अपना रही थी. विश्वविद्यालय की जगह को लेकर ऐसे शिगूफे छोड़े जाते कि गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच मतभेद पैदा किए जाएं. तत्कालीन वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने तो एक पत्रकार सम्मेलन में अपनी सुविधानुसार उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय की घोषणा भी कर दी थी. हालांकि ये सिर्फ एक हवाई घोषणा ही थी जो कभी धरातल पर नहीं उतरी. इसके अलावा एक खबर ये भी चलाई गई कि प्रधानमंत्री ने नैनीताल में विश्वविद्यालय के लिए 80 लाख रुपए का बजट जारी किया है.

तब स्वामी मनमंथन ने इन तमाम बातों पर कहा था – “गढ़वाल और कुमाऊं का विकास तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि उच्च शिक्षा का प्रसार नहीं होता. विश्वविद्यालय को लेकर गढ़वाल और कुमाऊं में विभेद पैदा करने के प्रयास सहन नहीं किए जाएंगे.”

पहाड़ की जनता को अब समझ आने लगा था कि सिर्फ एक विश्वविद्यालय की मांग ही गलत है. गढ़वाल और कुमाऊं के लिए दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों की ज़रूरत है. जिससे ना ही कुमाऊं और गढ़वाल की जनता के बीच आपसी मतभेद हों और ना ही सरकार हर बार जगह के चुनाव को लेकर जनता को गुमराह कर सके.

प्रदेश की जनता अब एकजुट हो चुकी थी. जनवरी 1973 को गढ़वाल और कुमाऊं की समस्त जनता ने  विश्वविद्यालय संशोधन अधिनियम को लेकर दिल्ली कूच की योजना बनाई. दिल्ली पहुंचकर वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष डॉ शंकर दयाल शर्मा, पंडित उमा शंकर दीक्षित, संचार मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा और प्रसार मंत्री इंद्र कुमार गुजराल से मिले. प्रतिनिधि भगवती प्रसाद कोटनाला ने गढ़वाल और कुमाऊं में दो अलग-अलग विश्वविद्यालय खोले जाने की बात कही.

इसके बाद फरवरी 1973 में संघर्ष समिति ने मुनि की रेती में दो दिन का विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया. इसमें गढ़वाल और कुमाऊं के तमाम बुद्धिजीवियों ने अपने विचार रखे और पहाड़ की जनता को एकजुट किया.

इस दौरान इंदिरा गांधी का श्रीनगर दौरा भी अहम माना जाता है. जब वो श्रीनगर में जीआईएंडटीआई मैदान में एक सभा को संबोधित करने वाली थी. मगर विश्वविद्यालय संघर्ष समिति के सदस्यों ने साफ़-साफ़ कह दिया था कि जब तक विश्वविद्यालयों के निर्माण को लेकर कोई निर्णय नहीं ले लिया जाता, तब तक उनकी सभा विरोध किया जाएगा. ऐसे में तत्कालीन केंद्रीय संचार मंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा की सलाह पर संघर्ष समिति के 7 आंदोलनकारियों और इंदिरा गांधी की वार्ता श्रीनगर स्थित एसएसबी बटालियन परिसर में हुई. बहुगुणा के साथ साथ इस वार्ता में उस वक्त के सीएम कमलापति त्रिपाठी और केसी पंत भी शामिल थे. वार्ता खत्म हुई और कुछ देर बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जीआईएंडटीआई मैदान में भाषण दे रही थी. इसी दौरान उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय और कुमाऊं विश्वविद्यालय की घोषणा कर दी. 

आख़िरकार अप्रैल 1973 में उत्तर प्रदेश सरकार ने गढ़वाल और कुमाऊं में विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए ज़रूरी प्रक्रियाओं की शुरुआत कर दी. गढ़वाल विश्वविद्यालय के लिए दिल्ली में शिक्षा विभाग के भूतपूर्व निदेशक रहे बीडी भट्ट को स्पेशल ऑफिसर ऑन ड्यूटी नियुक्त किया गया.

15 जून 1973 को प्रदेश में राज्यपाल ने विश्वविद्यालय अध्यादेश जारी किया जिसमें गढ़वाल और कुमाऊं विश्वविद्यालय की घोषणा कर दी गई. दोनों ही विश्वविद्यालयों के शुरुआती बजट के तौर पर 5-5 लाख रूपए स्वीकृत हुए. 13 सितम्बर 1973 के दिन उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय अधिनियम, 1973 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई.

अन्तत:23 नवम्बर 1973 को उत्तर प्रदेश सरकार ने अधिसूचना जारी कर विज्ञप्ति संख्या 10/8651/15/75 (85) – 64 द्वारा नैनीताल में कुमाऊं विश्वविद्यालय और श्रीनगर मे गढ़वाल विश्वविद्यालय खोले जाने की घोषणा की.

डॉ बीडी भट्ट, गढ़वाल यूनिवर्सिटी के और डॉक्टर डीडी पंत कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के पहले कुलपति नियुक्त हुए. नियुक्ति के बाद जब देहरादून में रोटरी क्लब में भट्ट का स्वागत किया गया तब उन्होंने कहा – न्यू यूनिवर्सिटी हैज़ बॉर्न .

तमाम औपचारिकताओं के बाद 1 अप्रैल 1975 से गढ़वाल विश्वविद्यालय में शैक्षणिक कार्य की शुरुआत हुई. वक्त के साथ छात्रों की संख्या बढ़ती गई और साल 1979 तक यहां छात्रों की संख्या करीब 25 हज़ार हो चुकी थी. 11 मई 1979 को गढ़वाल यूनिवर्सिटी का पहला दीक्षांत समारोह हुआ. इसी अध्यक्षता तत्कालीन राज्यपाल जीडी तापसे ने की और मुख्य अतिथि के रूप में केन्द्रीय मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने अपना अभिभाषण दिया. इस दीक्षांत समारोह में बहुगुणा को डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी दी गई. इसके करीब एक दशक बाद ही अप्रैल 1989 से गढ़वाल विश्वविद्यालय का नाम हेमवती नन्दन बहुगुणा के नाम पर रख दिया गया. 

उत्तराखण्ड में छात्रछात्राओं के लिए गढ़वाल विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ. अपनी इन अभूतपूर्व उपलब्धियों के कारण 15 जनवरी 2009 को हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और इस तरह श्रीनगर गढ़वाल के स्थानीयों द्वारा दी गई जमीनों पर शुरू हुए बिड़ला संघटक महाविद्यालय ने उत्तराखण्ड के एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने तक का सफर तय किया. 19 नवंबर 2023 को गढ़वाल विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे कर लेगा. कभी मात्र दो कमरों से शुरू हुआ गढ़वाल विश्वविद्यालय आज अपने बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर और भव्य कैंपस के लिए जाना जाता है.

आज यहां न सिर्फ देश के अलगअलग कोनों से बल्कि विदेशों से भी छात्र पढ़ने एवं शोध हेतु पहुंचते हैं. अब तक 20 लाख से भी ज्यादा छात्र गढ़वाल यूनिवर्सिटी से डिग्री ले चुके हैं. प्रदेश के तीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, त्रिवेन्द्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत गढ़वाल विवि से ही पढ़े हैं. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी गढ़वाल यूनिवर्सिटी ने शिक्षा हासिल की. यूजीसी के पूर्व चैयरमैन धीरेंद्र कुमार, NCERT के वर्तमान निदेशक दिनेश सकलानी, नेशनल फिजिकल लेब्रोटरी के पूर्व निदेशक दिनेश असवाल और भी न जाने कितने नाम हैं जो गढ़वाल यूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं. गढ़वाल यूनिवर्सिटी अब तक देश को 20 से भी ज्यादा आईएफएस दे चुका है.

स्क्रिप्ट: अमन रावत

 

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