‘निशां बाकी हैं’ के इस एपिसोड में हम आपको ले चलेंगे देहरादून शहर की एक ऐसी यात्रा पर जहां अफ़गानिस्तान के निशां आज भी मौजूद हैं. देहरादून शहर के कई इलाके आज भी उनके नाम से जाने जाते हैं. अफ़ग़ान राजा के यहां आने, क़ैद रहने और फिर रिहा किए जाने की एक दिलचस्प कहानी है. ये कहानी कैसे देहरादून के मशहूर बासमती चावल से भी जुड़ती है.
इस एपिसोड में हम आपको उस एतिहासिक दौर की यात्रा करायेंगे, जब अफगान के राजा और उसकी प्रजा मसूरी और देहरादून में बसी थी. यूं तो अंग्र्रेजों से युद्ध हारने के बाद अफगान के राजा दोस्त मोहम्मद खां, जिसे वहां की भाषा में ‘अमीर’ भी कहते थे कोे मसूरी में नजरबंद किया गया था, लेकिन उसके साथ ही उसके सगे संबंधी और महल के खास लोगों को भी दून में नजर बंद किया गया था. आज हम आपको उन्हीं जगहों की सैर करायेंगे, जहां पर इन अफगानों को रखा गया था और बाद में इनमें से अधिकांश हमेशा के लिये यहीं के होकर रह गये। लेकिन उन अफगानी इमारतों से गुजरने से पहले जरूरी है कि हम इतिहास के उस दौर में भी चहलकदमी कर लें.
ये घटना है 1839 की. जब अंग्रेज अफगान लड़ाई के बाद वहां के राजा दोस्त मोहम्मद खान की हार हुई. युद्ध हारने के बाद अंग्रेजों ने दोस्त मोहम्मत खान को गिरफतार कर लिया और उसे वहीं ब्रिटिश कैंप में बंदी बना कर रखा गया. लेकिन, फिर अंग्रेजों को चिंता हुई कि अफगानिस्तान में रहकर दोस्त मोहम्मद खान फिर से वहां की जनता को अंग्रेजों के विरूद्ध भड़का सकता है. लिहाजा, तय किया गया कि उसे भारत के किसी शहर में नजरबंद किया जाये. लेकिन, अंग्रेजों को इस बात का भी ख्याल रखना था कि राजा मोहम्मद खान जिस मौसम में अफगानिस्तान में रहते थे, उसी मौसम में उनको भारत में भी रखा जाये. इसलिये तय किया गया कि उन्हें मसूरी में नजरबंद किया जायेगा और उनके साथ आने वाले सग संबंधियों और दरबारियों को देहरादून में.
नवंबर 1840 के मध्य में दोस्त मोहम्मद और उनके बड़े बेटे अकबर खां के साथ ही उनके समर्थक दरबारियों को मसूरी और दून लाया गया. गर्मियों में दोस्त मोहम्मद को उस भवन में रखा जाता, जो एलन मेमोरियल ब्वायज स्कूल का हिस्सा था. जो बार्लोगंज से उपर और वाइनवर्ग गर्ल्स स्कूल से नीचे पहाड़ी पर बनाया गया था. इस भवन का नाम बालाहिसार रखा गया था। बाला हिसार अफगानी राजा के महल को कहते हैं. जिसका मतलब होता है उंचा किला. बाद में उनके यहां से चले जाने के बाद भी उस जगह को बालाहिसार ही कहते हैं.
आपने दून की प्रसिद्ध बासमती चावल के किस्से तो अक्सर सुने ही होंगे. अब तो दून की वो खूशबू फैलाने वाले बासमती का स्वाद बेहद मुश्किलों से ही लिया जा सकता है. क्योंकि अब अधिकांश खेतों में तो प्लाटिंग कर दी गई है. खैर, दून की ये बासमती भी दोस्त मोहम्मद खान के साथ ही अफगानिस्तान से भारत आई और फिर देहरादून तक पहुंची. दोस्त मोहम्मद अपने साथ अफगानिस्तान से कुणार चावल के कुछ बीज साथ लेकर आया था. दून की जलवायु और मिटटी उन बीचों के पनपने के लिये मुफीद साबित हुये और उसके बाद का इतिहास तो आप जानते ही हैं. बासमती की तरह ही लीची और चाय पत्ती अंग्रेज चीन से देहरादून लेकर आये थे.
1842 को दोस्त मोहम्मद खां को फिर से अफगानिस्तान भेज दिया गया. लेकिन दून का अफगानिस्तान कनेक्शन यहीं खत्म नहीं हो जाता. उसके कुछ साल बाद इतिहास ने खुद को दोहराया और एक बार फिर से अफगान और अंग्रेजों का युद्ध हुआ. जिसमें अंग्रेज फिर से जीते और अफगानिस्तान के राजा और दोस्त मोहम्मद के पौते याकूब खान को अंग्रेजों ने बंदी बना लिया. उसे भी नजरबंदी के लिये देहरादून ही लाया गया. देहरादून में उसे ईसी रोड पर करनपुर चौकी के पीछे स्थित एस्टेट में रखा गया. बाद में उसने दून में अपना एक छोटा दो मंजिला महल बाला हिसार बनाया. जो ईसी रोड पर ही है और अब वहां पर गढ़वाल कमिश्नर का आफिस है. याकूब खान के साथ ही बड़ी संख्या में उसके समर्थक अफगानिस्तान से दून आये थे. जिनमें उसके तीन प्रमुख सरदार, उसके संबंधी और कुछ निजी कर्मचारी थे. याकूब खान के साथ आये कुछ परिवारों के घर आज भी डालनवाला में है और उनकी पीढ़िया यहीं रहती है.
1919-20 में तीसरा अंग्रेज अफगान युद्ध हुआ. इस युद्ध में अंग्रेजों और अफगानों के बीच संधी मसूरी में होटल सैवाय में हुई. इस संधि पर हुये हस्ताक्षर को यादगार बनाने के लिये शाह अमानुल्लाह ने मसूरी के लाइब्रेरी चौक में एक मस्जिद बनवाई. इसे मस्जिद ए अमानिया या अमानुल्लाह की मस्जिद भी कहते हैं.
याकूब खान का नवंबर 1923 में देहरादून में मौत हो गई. उन्हें रिस्पना नदी के पास रायपुर मार्ग पर बने उनके पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया गया. आजकल याकूब खान के कई वंशज देहरादून में रहने हैं. जिनमें उनके पौते नबी खान के पुत्र सरदार आजम खान और आजम खान का पुत्र उस्मान खां देहरादून में ही रहते हैं.
स्क्रिप्ट: मनमीत