भारत के वो तीन गांव, जो तीस साल पाकिस्तान में रहे

  • 2022
  • 8:27

साल 1971. इतिहास की तारीख़ों में दर्ज एक ऐसा साल जब भारत के पूर्वी छोर पर एक नया देश अस्तित्व में आया. अमरीकी हथियारों के दम पर बेखौफ हुए पाकिस्तान को भारत ने उसकी हदें दिखाई और पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश का गठन हुआ. पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने उस वक्त भारतीय सेना के आगे आत्मसमर्पण किया था. इतिहास की तारीख में ये साल  विश्व के सबसे बड़े मिलेट्री सरेंडर्स के रूप में दर्ज है.

साल 1971 को पाकिस्तान के आत्मसमर्पण करने, दो हिस्सों में बंटने और एक नए देश के गठन के लिए याद किया जाता है. लेकिन इसी दिन भारत के दूसरे छोर पर एक और महत्वपूर्ण घटना घटी जो दशकों तक गुमनाम रही और 2010 के बाद ही भारत सरकार ने इस ऐतिहासिक घटना से पूरी तरह से पर्दा उठाया. ये घटना थी पाकिस्तान में की गई एक सफल सर्जिकल स्ट्राइक जिसके बाद वहां के तीन गांव हमेशा के लिए भारत का हिस्सा हो गए.

भारत के सबसे उत्तरी छोर पर, काराकोरम शृंखलाओं के दामन में बसा एक खूबसूरत गांव है तुर्तुक. लेह से लगभग 200 किलोमीटर दूर साढ़े तीन सौ की आबादी वाले तुर्तुक गांव की सुबह कुछ वैसी ही होती है, जैसे उच्च हिमालयी गांवों की अलसाई सुबह शर्माते-बलखाते हुए आती है और हमारी अलसाई देह को उठने पर मजबूर कर देती है. स्कूल जाते बच्चों की शरारतें, खेत की मुंडेर से गुजरते मदमस्त गायों के झुंड, उनके गले में बंदी घंटियों से उठती मीठी धुनें, खेतों में पानी छोड़ते मर्द और ओस से भीगे पेड़ों से खुबानी-आड़ू झाड़ती औरतें.

तुर्तुक गांव के पास से होकर ही स्यॉक नदी बहती है जिसके पश्चिमी छोर पर एक पहाड़ सीना ताने खड़ा है. तुर्तुक का सूरज हर शाम इसी पहाड़ के पीछे छिपता है जिसकी चोटी पर मौजूद पाकिस्तानी चेक पोस्ट से एक मशीन गन हमेशा गांव की ओर झांकती रहती है. लेकिन इसकी परवाह न तो अब तुर्तुक के बच्चों को है और न किसी गांव वासी को.

इस गांव के इतिहास की बात करें तो ये कभी बाल्टिस्तान रियासत का हिस्सा हुआ करता था. सिर्फ़ तुर्तुक ही नहीं, बल्कि इसके आस-पास बसे त्यासी और चालुंगा गांव भी इसी रियासत का हिस्सा थे जो यब्गो राजवंश की हुआ करती थी. इस वंश के पहले राजा सारेल गजाली के वंशजों ने ही यहां 18वीं सदी तक राज किया. इस दौरान उन्होंने कई हमले झेले और कई बार अपनी जीत दर्ज की. सेंट्रल एशिया के तुर्कमेनिस्तान से आए यग्बो वंश ने ही बाल्टी समाज की नींव रखी थी. इसकी सीमाएँ लेह से लगभग 250 किलोमीटर ऊपर नुबरा घाटी से शुरू होकर पाकिस्तान प्रशासित गिलगिट-बाल्टिस्तान तक जाती थी.

बाल्टिस्तान के यब्गो राजाओं के दौर में कला और साहित्य को खूब बढ़ावा मिला. उनकी कुछ इमारतें तुर्तुक गांव में आज भी हैं जिन्हें अब म्यूजियम की शक्ल दे दी गई है. तुर्तुक राजाओं के वंशज आज भी इस गांव को अपना घर मानते हैं.

1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो जम्मू कश्मीर रियासत का तो भारत में विलय हो गया लेकिन ये इलाका पाकिस्तान के हिस्से चला गया था. 1947 से लेकर 1971 तक ये सभी गांव पाकिस्तान का ही हिस्सा रहे. फिर 1971 में हुए युद्ध के दौरान भारत ने इन्हें वापस पा लिया. लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच की खींच-तान का सीधा असर तुर्तुक पर हुआ और ये गांव बरसों तक बेरुखी का शिकार रहा. किसी ने भी यहां की कुदरती ख़ूबसूरती, यहां की सांस्कृतिक विरासत और सबसे अहम यहां के लोगों के बारे में सोचा ही नहीं.

एक दौर में ये इलाका मशहूर सिल्क रोड से जुड़ा हुआ था. यहां से भारत, चीन, रोम और फारस तक व्यापार होता था. तुर्तुक गांव बौद्धों के गढ़ लद्दाख में है, लेकिन यहां कि ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है. इन लोगों पर तिब्बत और बौद्धों का गहरा प्रभाव है. माना जाता है कि ये सभी इंडो-आर्यनों के वंशज हैं. मूल रूप से ये लोग बाल्टी भाषा बोलते हैं, लेकिन इनका खानपान और संस्कृति साझा है.

तुर्तुक गांव में अभी भी यब्गो वंश के राजा मोहम्मद खान काचू अपने महल में रहते है. कुछ साल पहले जब मैं अपनी एक यात्रा के दौरान तुर्तुक गांव पहुंचा तो मुझे राजा मोहम्मद खान काचू से मिलने का अवसर मिला. खान काचू ने मुझे बताया था कि, उनके पूर्वजों का तुर्तुक में बहुत बड़ा महल था. सैकड़ों साल तक उनके पूर्वजों ने ही इस हजारों किलोमीटर क्षेत्रफल पर राज किया. 1947 के बंटवारे के बाद उनके दो भाई पाकिस्तान के गिलकिट-बाल्टिस्तान चले गये. वहां भी उनके महल थे.

 खान काचू का परिवार तुर्तुक के महल में रहने लगा जो उस दौर में पाकिस्तान का हिस्सा हो गया था. उन्होंने सोचा था कि पाकिस्तानी हुकूमत उन्हें सम्मान देगी, लेकिन हुआ इसके उलट. तुर्तुक के महल को पाक फौज ने कब्जा लिया और नार्दन फ्रंटियर का मुख्यालय बना दिया गया. इससे खान काचू  और उनका परिवार बेघर हो गया. फौज के इस क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ उन्होंने पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में अर्जी भी दाखिल की. यहां से फैसला उनके हमारे पक्ष में आया और पाक फौज को उनका महल खाली करने का आदेश दिया गया. इससे पाकिस्तान की फौज तिलमिला गई और उन्होंने खान काचू का महल खाली करने के साथ ही उसे RDX लगा कर उड़ा दिया.

मेरी इसी यात्रा के दौरान खान काचू ने तुर्तुक समेत तीन गांवों के भारत में शामिल होने की दिलचस्प कहानी भी सुनाई थी. उनके अनुसार हुआ यूं था कि 1971 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ तो दोनों देशों की सेनायें पूर्वी मोर्चे की तरफ बढ़ी. पाकिस्तान युद्ध में घिरने लगा तो उसने नॉर्दन फ्रंटियर के इन गांवों से भी अपनी सेनाओं को युद्ध में झोंक दिया. इसका फायदा भारत ने उठाया.

मोहम्मद खान काचू बताते हैं, ‘जनाब आठ दिसंबर 1971 का दिन था. हम सोये हुए थे कि तभी हेवी आर्टिलरी फायर आया. ताबड़तोड़ मशीनगन की आवाजें आने लगी. हम सब डर कर गांवों के बीचों-बीच बनाए बंकरों में छुपने को भागे. कुछ देर बाद दोनों तरफ से फायर रुक गया और फिर भारतीय सेना, जिसमें लद्दाख स्काउट और नूब्रा गार्ड शामिल थे, गांव में पहुंचे. हम डरते-डरते बाहर निकले. हम सभी को पोलो ग्राउंड में बुलाया गया और एक लाइन में खड़े होने को कहा गया. हमें लगा कि हम सबको लाइन से गोली मार दी जाएगी. लेकिन तभी भारतीय सेना का एक ट्रक आया और उससे बच्चों के लिए बिस्कुट और हमारे लिए राशन उतरने लगा. हमें पहले विश्वास नहीं हुआ. सोचा जहर न हो. इसलिए बच्चों को हमने बिस्कुट खाने से रोका. फिर भारतीय सेना के एक बड़े अधिकारी ने हमारे बच्चों को पुचकारा और एक बिस्कुल खुद खाया. फिर हम भी खाने लगे.’

तुर्तुक गांव के लोग बताते हैं कि पाकिस्तान की सेना ने उनके आशियाने तक उजाड़ दिये थे. लेकिन जब से भारत की सेना ने इन गांवों को नियंत्रण में लिया है तब से यहां पक्की सड़कें और अस्पताल खुलने लगे हैं. गांव के कई युवा अब सरकारी नौकरी भी कर रहे हैं.

कई साल पाकिस्तान का हिस्सा रहे इन गांवों के लोग भारत के प्रति कितने वफ़ादार हैं इसका अंदाज़ा यहां रहने वाले गुलाम हुसैन की बातों से मिल जाता है. वो कहते हैं, ‘यहां के सभी गांव वासी भारत के प्रति वफादार हैं. हम तो कश्मीर के भी कई अपने साथियों से अक्सर कहते हैं कि तुम नहीं जानते पाकिस्तान कैसा देश है. हम तो उनके साथ तीस साल तक रह चुके हैं. उनके जुल्म और यातनायें हमने झेली है. जिसने झेला होता है, उससे बेहतर कौन बता सकता है जनाब.’

साल 2010 से पहले भारतीयों के लिए तुर्तुक जाना प्रतिबंधित था. लेकिन अब यहां टूरिस्ट आराम से घूमने जा सकते है. अगर आप भी तुर्तुक जाना चाहते हैं तो आपको पहले लेह पहुंचना होगा. फिर वहां से खारदुंगला दर्रे को पार करते हुए नुब्रा वैली में दाखिल होना होगा. एक बार नुब्रा पहुंच गये तो फिर स्यॉक नदी के किनारे किनारे लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर चलने पर आप तुर्तुक पहुंच चुके होंगे. काराकोरम श्रंखलाओं के ठीक पूर्वी दिशा में बसे तुर्तुक में भारतीय सेना की आखिरी चेकपोस्ट है. उसके बाद पाकिस्तान के गिलगित बाल्टिस्तान का हिस्सा लगता है जिसे पाकिस्तान की सेना नार्थन फ्रंटियर भी कहती है.

स्क्रिप्ट : मनमीत

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