कैसे हज़ार साल से खड़ी हैं ये पहाड़ी इमारतें?

‘डांडी-कांठी’ के इस  एपिसोड में हम बात कर रहे हैं पहाड़ों में भवन निर्माण की एक शैली पर जो हजार साल से भी ज़्यादा पुरानी है. कोटी-बनाल नाम की यह शैली वास्तुकला का ऐसा नायाब उदाहरण है जिस पर देश-दुनिया के शोधकर्ता काम कर रहे हैं और इसे हिमालयी क्षेत्रों के लिए सबसे मुफ़ीद निर्माण शैली बता रहे हैं.

20 अक्टूबर 1991 की बात है. रात का तीसरा पहर था और शांत पहाड़ी गांव अगली सुबह की सुनहरी धूप में नहाने की बाट जोह रहे थे. लेकिन इस सूर्योदय से पहले एक तबाही आने वाली थी. ऐसी तबाही, जो उत्तरकाशी ज़िले के इतिहास की सबसे त्रासद घटनाओं में दर्ज होने जा रही थी, जिसमें सैकड़ों लोगों के लिए ये रात, उनके जीवन की आख़िरी रात होने वाली थी और जिसमें पहाड़ के सैकड़ों गांव तबाह होने वाले थे.

रात के दो बजकर 53 मिनट का समय था जब उत्तरकाशी के जामक गांव की जमीन के ठीक नीचे, ऐसी भौगोलिक हलचल हुई कि आस-पास का पूरा इलाका कांप उठा. एक भयानक भूचाल ने करीब 13 सौ गांवों में बिखरी तीन लाख की आबादी को झकझोर के रख दिया था. अगली सुबह की पौ फटने से पहले ही 768 लोग मौत के मुँह में समा गए.

6.8 रिक्टर स्केल के इस भूकंप ने उत्तरकाशी ज़िले के सैकड़ों गांवों का भूगोल बदल के रख दिया. 42 हजार से ज़्यादा मकान इसकी चपेट में आने से तहस-नहस हो गए थे. लेकिन इतनी भयानक आपदा के बीच भी कुछ सदियों पुराने मकान जब जस-के-तस खड़े रहे, तो उन्होंने देश-दुनिया के शोधकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा. 

भूकंप के जिन बड़े झटकों ने छोटे-छोटे पहाड़ी मकानों को भी भूलुण्ठित कर दिया था, उन झटकों को आख़िर ये सदियों पुराने पांच-पांच मंजिला मकान कैसे झेल गए? आइए विस्तार से समझते हैं. 

हिमालयी राज्य उत्तराखंड भूकंप के लिहाज से बेहद संवेदनशील है. वैज्ञानिक कई बार ये आशंका जता चुके हैं कि यहां कभी भी आठ रिक्टर स्केल या उससे भी बड़ा भूकंप आ सकता है. वाडिया इन्स्टिट्यूट के भूकंप वैज्ञानिक डॉ. सुशील रोहिल्ला बताते हैं कि उत्तराखंड में बड़े भूकंप साल 1334 और 1505 में आए थे. फिर साल 1905 में हिमाचल के कांगड़ा ज़िले में 7.8 रिक्टर का भूकंप आया. उसके बाद से उत्तर भारत में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है लेकिन वैज्ञानिक मानते हैं कि इसकी संभावनाएँ काफी ज़्यादा हैं.

भूकंप आने की सटीक भविष्यवाणी करना सम्भव नहीं है. लेकिन इसकी संभावना को गंभीरता से लेते हुए इससे होने वाले नुक़सान को जरूर कम किया जा सकता और ये बात हमारे पुरखे बहुत अच्छे से समझते थे. उनकी जीवनशैली कई मामलों में आज से कहीं ज़्यादा वैज्ञानिक थी और पहाड़ के कठिन भूगोल से साम्य बैठाना वे हमसे बेहतर समझते थे. इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज से क़रीब एक हज़ार साल पहले बने वही खूबसूरत घर हैं, जो बीती कई सदियों से भूकंप के कई झटके झेलने के बाद भी अपनी पूरी बुलंदी के साथ खड़े हैं.

साल 1991 में जब उत्तरकाशी में भूकंप आया था तो ईंट, सिमेंट और कंक्रीट से बने तमाम भवन ज़मींदोज़ हो गए लेकिन सैकड़ों साल पहले पुराने इन पांच-पांच मंजिला भवनों को कोई नुक़सान  नहीं हुआ. इसी घटना के बाद देश-दुनिया का ध्यान इस निर्माण शैली की ओर गया और तब इस पर रिसर्च शुरू हुई. इस शैली को साल 1991 की रिसर्च के बाद ‘कोटि- बनाल’ नाम दिया गया और वैज्ञानिकों ने माना कि सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों के लिए भी यह सबसे मुफ़ीद निर्माण शैली है.

‘कोटि-बनाल’ असल में यमुना घाटी के एक गांव का नाम है जो अपने भूकंप प्रतिरोधी भवनों के लिए प्रसिद्ध है. इसी गाँव के नाम पर इस निर्माण शैली को भी ‘कोटि-बनाल’ नाम मिला है. आपदा प्रबंधन विभाग के इग्ज़ेक्युटिव डाइरेक्टर पीयूष रौतेला ने इन भवनों पर रिसर्च की है. उनकी रिसर्च में जिक्र मिलता है कि रेडियो-कार्बन डेटिंग के अनुसार ये भवन 900 से 1000 पहले बनाए गए थे.

‘कोटि-बनाल’ शैली के ये भवन मुख्यतः यमुना घाटी के राजगढ़ी इलाके में पाए जाते हैं. इसके अलावा सतलज और टोंस की घाटी के कुछ गांवों में इन्हें बनाया जाता रहा है. ये भवन न सिर्फ़ सुरक्षित होते हैं बल्कि बेहद ईको-फ्रैंडली भी होते है क्योंकि इनके निर्माण में उन्हीं चीजों का इस्तेमाल किया जाता है जो आस-पास के इलाक़े में आसानी से उपलब्ध हों. यानी ये ‘Vernacular Architecture’ का भी एक बेहतरीन उदाहरण है.

इन घरों की ढलानदार छत पत्थरों को तिकोने आकार में रखते हुए बनाई जाती है. इन पत्थरों को लकड़ी के बीम का सहारा दिया जाता है. इस तरह का आकार इसलिए भी दिया जाता है  ताकि स्नोफॉल होने पर छत पर गिरी बर्फ़ ख़ुद ही फिसल कर नीचे आ गिरे. खिड़की और दरवाजों की ऊँचाई बहुत कम रखी जाती है ताकि घर के अंदर गर्माहट बनी रहे. 

‘कोटि-बनाल’ शैली के दो से लेकर सात मंजिला घर तक पहाड़ों में देखे जा सकते हैं. हर फ़्लोर का अपना अलग नाम और अलग काम होता है. सबसे नीचे वाले यानी ग्राउंड फ़्लोर को खोली कहा जाता है. इसकी ऊँचाई काफी कम रखी जाती है और इसे जानवरों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. खोली के ऊपर होता है फ़र्स्ट फ़्लोर जिसे मँजुआ कहते हैं, सेकंड फ़्लोर को बौंद और थर्ड फ़्लोर को बरौर कहा जाता है. 

पांच मंजिला घरों को पंचपुरा कहा जाता है और इनकी ख़ूबसूरती देखते ही बनती है. तिलोथ के वीर भड़ नरू-बिजोला, रैथल के राणा गजे सिंह और झाला गांव के वीर सिंह रौतेला के पंचपुरा घर सबसे पुराने बताए जाते हैं. इन्हें देख कर आपको उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास की भी झलक मिलती है और पहाड़ की समृद्धि की भी. 

इन घरों की मज़बूती और भूकंप झेलने की क्षमता का भी एक विज्ञान है. पीयूष रौतेला के रिसर्च पेपर में इस विज्ञान का विस्तार से जिक्र किया गया है. इसमें बताया गया है कि लड़कियों की जिस बुनावट के साथ ये मकान खड़े गए हैं, वो इन्हें भूकंप के लिहाज़ से सबसे सुरक्षित बना देते हैं. लकड़ी मज़बूत होने साथ ही लोहे और सीमेंट के पिलर की तुलना में काफी हल्की होती है. लिहाज़ा भूकंप के दौरान पैदा होने वाली कंपन्न भी इन मकानों में उतनी ऊर्जा पैदा नहीं कर पाती जितनी कंक्रीट के मकानों में होती है. लकड़ी का अपना लचीलापन भी इन घरों को भूकंप के नुक़सान से बचाता है.

‘कोटि-बनाल’ शैली की दीवारों में लकड़ी के मोटे-मोटे बीम दोनों दिशाओं में लगाए जाते हैं. इन्हें एक-दूसरे से इस तरह जोड़ा जाता है कि ये एक कमाल का ‘stress distribution system’ बनाते हैं. यानी भूकंप आने पर जमीन से जो कंपन्न पैदा होती है, वो पूरे घर में बराबर बंट जाती है और इमारत को कोई नुक़सान नहीं होने देती. 

यही तमाम कारण हैं कि साल 1334,1505 और 1991 जैसे बड़े भूकंप झेलने के बाद भी ये घर अपनी पूरी बुलंदी के साथ सीना ताने खड़े हैं. लेकिन चिंता की बात ये है कि हजारों साल पहले हमारे पुरखों ने पहाड़ में आर्किटेक्चर का जो नायाब नमूना बनाया, उसे आगे बढ़ाने में हम लगभग पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं. इस शैली के घर अब बेहद कम ही देखने को मिलते हैं. 

विशेषज्ञ मानते हैं कि जागरूकता की कमी के चलते समय के साथ इस शैली का उपयोग कम होता चला गया और इसकी जगह सीमेंट और कंक्रीट के घरों ने ले ली. ये इसलिए भी हुआ क्योंकि इनकी मरम्मत के लिए इस्तेमाल होने वाली लकड़ी और पत्थर की उपलब्धता में भी कमी आई है. ये लकड़ियाँ आज अगर मिलती भी हैं तो इतनी महँगी होती हैं कि एक पंचपुरा मकान बनाना आज किसी बहुमंज़िला मकान बनाने से कई गुना महँगा सौदा हो गया है. फिर इस शैली की बारीकियाँ समझने वाले कारीगरों का लगभग विलुप्त हो जाना भी एक बड़ी चिंता का विषय है.

अपने परंपरागत ज्ञान और पुरखों की सीख को नजरअंदाज कर हम वो गलतियां कर रहे हैं जो एक नई आपदा को दावत दे रही हैं. लेकिन इन निराशाओं के बीच कुछ उम्मीद जगाती किरणें भी हैं. बीते कुछ सालों में पहाड़ के कई युवाओं ने महानगरों से वापसी का जो रास्ता चुना है, वह पहाड़ में एक नई सुबह की तरह देखा जा सकता है. कई युवाओं ने इस दौरान पहाड़ी संस्कृति, पहाड़ी भोज और पहाड़ी निर्माण शैली के इर्द-गिर्द कुछ प्रयास किए हैं जिनके ज़रिए वो न सिर्फ़ हाशिए पर जा रही पहाड़ी विरासतों को संजोने का काम कर रहे हैं बल्कि पहाड़ी युवाओं के लिए रोज़गार के नए साधन भी मुहैया करा रहे हैं. देहरादून के आउटस्कर्ट में बना ‘पठाल’ भी ऐसा ही एक उद्यम है. यहां लगी खूबसूरत नक़्क़ाशी वाली दशकों पुरानी ‘तिबरी’ कई पर्यटकों को अपनी ओर खींच रही है और पहाड़ी समाज को ये बोध भी करवा रही है कि बिसरा दी गई उनकी पारंपरिक विरासत, असल में कितनी खूबसूरत और अलहदा है. 

 

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