मसूरी और देहरादून की अनकही कहानियां

  • 2024
  • 18:29
देहरादून! प्राकृतिक सौंदर्य के भरी ऐसी घाटी जिसके एक तरफ मध्य हिमालय की पहाड़ी से झांकता मसूरी है तो दूसरी तरफ शिवालिक पर्वत शृंखला से लगता राजाजी नेशनल पार्क के जंगलों का विस्तार. बीच में कई सारी नदियां और उनसे निकलती नहरें! यकीन मानिये, आज आपको भले ही गाड़ियों की रेलमपेल और अतिक्रमण के बीच देहरादून थोड़ा टाइट लगता हो, लेकिन वक्त में आज से महज 40 साल पीछे तक की चहल-कदमी करें, तो ठंडी हवाओं के झोंके, हरे-भरे फलों से लक-दक बगीचे और बासमती की खुशबू यहां आपका स्वागत किया करती थी. अब इतिहास में चहल-कदमी करने का मन बना ही लिया है तो फिर आपको ले चलते हैं कुछ ऐसी ऐतिहासिक इमारतों की तरफ, जो गाहे-बगाहे आपको दिख तो जाती हैं लेकिन आप रोज़मर्रा की जिंदगी की एक नॉर्मल रील मानकर उनसे आगे बढ़ जाते हैं. आज हम आपको देहरादून और उसके आसपास के इलाकों में मौजूद कुछ ऐसी ही ऐतिहासिक इमारतों का वो रोचक इतिहास बताएंगे, जिनकी दीवारों में एक काल-खंड की चुगलख़ोरी से लेकर अट्टहास और साज़िशें तक दफ़्न हैं.

देहरादून की इमारतों पर बात करने से पहले एक चक्कर मसूरी का लगा आते हैं. वही मसूरी जहां साल 1823 में कैप्टन यंग ने कैमेल्स बैक वाली पहाड़ी पर एक शिकार घर बनाया था. ये ही मसूरी में बना सबसे पहला घर भी था. इसके बाद जो दूसरा घर बना, वो भी कैप्टन यंग का ही था जो उन्होंने कुलड़ी पर बनवाया था. पहले मसूरी और लंढौर बिल्कुल अलग अलग कस्बे थे. लंढौर में साल 1827 में अंग्रेज सरकार ने एक सैनिटोरियम का निर्माण करवाया. यहां तब तक छावनी भी स्थापित हो चुकी थी जिसके कमाण्डेंट कैप्टन यंग हुआ करते थे. लिहाजा, कैप्टन यंग ने अपना तीसरा घर मलिगांर की पहाड़ी पर बनाया. इसे आज भी मलिगांर ही कहते हैं और अब यहां कई सारे परिवार रहते हैं.

1829 आते-आते मसूरी में कितने ही मकान बनाए जा चुके थे. वैसे मसूरी का नाम मसूरी पड़ने की भी एक दिलचस्प कहानी है. आपको ये जानकर हैरत होगी कि ये नाम एक झाड़ी के नाम के चलते पड़ा. ये झाड़ी थी मसूर की जिसका बॉटनिकल नाम कोरियेरिया नेपालेंसिस है. अंग्रेज भी जब इसे मसूरी ही कहने लगे तो ये ही इस जगह का अधिकारिक नाम हो गया. साल 1842 में मसूरी नगर पालिका का गठन हुआ. हालांकि उस वक्त इसे सिटी बोर्ड कहते थे. लेकिन बड़ी बात ये है कि कोलकाता के बाद मसूरी में देश का दूसरा सिटी बोर्ड बना था. सिटी बोर्ड बनने से पहले यानी मई 1833 की शुरुआत में सर जार्ज ऐवरेस्ट भारत के पहले सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया और ‘हतमंज जतपहवदवउमजतपबंस ेनतअमल’ के अधीक्षक नियुक्त हुये तो उन्होंने अपना कार्यालय और प्रयोगशाला मसूरी के पार्क स्टेट में स्थापित किया. अगले दस सालों तक उन्होंने मसूरी के इसी ऑफ़िस को ग्रीष्मकालीन मुख्यालय भी बनाया और सर्दियों में देहरादून बैठने लगे. सर्वेयर जनरल जॉर्ज एवरेस्ट का एक किस्सा ऐसा है, जिससे ये भी पता चलता है कि तब भी नौकरशाहों के बीच कुछ वैसी ही खींचतान चला करती थी, जैसी आज भी आजाद भारत में चलती है.

किस्सा कुछ यूं है कि एक बार सर्वे विभाग के एक रिटायर भारतीय कर्मचारी ने उस समय के तत्कालीन जिलाधिकारी को अपनी पेंशन संबंधी पत्र दिया. उस कर्मचारी ने नासमझी में इस पत्र में सर्वेयर जनरल जॉर्ज एवरेस्ट को ‘कम्पास वाले साहब’ संबोधित किया था. अंग्रेज जिलाधिकारी ने भी शरारत करते हुए उसी पत्र को जॉर्ज एवरेस्ट को मार्क कर प्रेषित कर दिया. पत्र जब जॉर्ज एवरेस्ट ने पढ़ा तो वो बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर एशिया में अपने बहुमूल्य हतमंज जतपहवदवउमजतपबंस ेनतअमल से लेकर तमाम काम गिना दिए और आखिर में लिखा कि आइंदा उन्हें सर्वेयर जनरल किश्वरे हिंद लिखकर ही पत्र भेजें.

मसूरी में जहां जॉर्ज एवरेस्ट रहा करते थे, वो पूरा इलाका द पार्क इस्टेट कहलाता था. इसे बाद में कई अंग्रेज अधिकारियों ने खरीदा और कुछ समय बाद देहरादून के एक व्यापारी शाह ने. हालांकि आज़ादी के बाद इसका भारत सरकार ने ही अधिग्रहण कर लिया. जॉर्ज एवरेस्ट का देहरादून में ‘9 ओल्ड सर्वे रोड’ पर भी एक घर था, जो उनके सहायक मरे ने उनसे खरीद लिया था.

इसी तरह मसूरी में ‘क्लाउड ऐंड’ की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. मेजर स्वेटनहम लंढौर में सेनोटोरियम के कमांडेंट हुआ करते थे. एक दिन वो और उनके कुछ अंग्रेज साथी शिकार खेलने मसूरी से कुछ दूर स्थित जंगल गए हुए थे. जब वो जंगल में भटक रहे थे, तभी मेजर स्वेटनहम एक महिला के गाने की आवाज से चौंके. गाने के बोल गढ़वाली में थे, लिहाजा, शब्द तो मेजर स्वेटनहम को समझ नही आए, लेकिन आवाज इतनी मखमली थी कि वो उस पर मोहित हो गए. उधर महिला ने जब देखा कि कुछ अंग्रेज अधिकारी जंगल में उसकी तरफ आ रहे हैं तो वो डर कर गांव की तरफ भागी. मेजर स्वेटनहम भी उसका पीछा करते करते गांव तक पहुंच गए. वहां उन्होंने जब उस महिला को देखा तब तो पूरी तरह ही सम्मोहित हो गए. उन्हें ये भी पता चला कि वो वहां के स्थानीय गढ़वाली जमींदार की बेटी है. किसी तरह से उन्होंने जमींदार को उसकी बेटी संग विवाह के लिए मना लिया. बाद में ये विवाहित जोड़ा उसी जमींदार के ऐस्टेट में रहने लगा. वहां उन्होंने एक मकान बनाया और उसे क्लाउड एंड नाम दिया. उन दोनों के छह लड़के हुए और सभी ब्रिटिश सेना में कर्नल बने. बाद की पीढ़ियों में इस संपत्ति को लेकर विवाद भी हुआ. आखिर में साल 1965 में इस पूरे एस्टेट को दुर्गा राम अग्रवाल को 37 हजार रूपये में बेच दिया गया. दुर्गा राम अग्रवाल ही देहरादून में मौजूद कौलागढ़ टी एस्टेट के अंतिम प्रबंधक भी रहे.

वैसे मेजर स्वेटेनहम की संपत्ति सिर्फ़ क्लाउड ऐंड ही नहीं हुआ करती थी बल्कि मसूरी लाइब्रेरी का भवन भी उनका ही था. कभी उन्होंने ये भवन मिस्टर स्कॉट और मिस्टर पिट से ख़रीदा था. साल 1843 में मसूरी पुस्तकालय समिति बनाई गई थी. इसका पहला अध्यक्ष ‘सुपरिनटेंडेंट ऑफ दि दून’ मिस्टर वैंसिटार्ट को बनाया गया. चंदे में 2500 रुपए इकट्ठा हुए थे. लाइब्रेरी दूसरी मंजिल पर है. पहले यहां पर एक ब्रिटिश रेजिमेंट का बैंड हर बुधवार और शनिवार की शाम को एक घंटा बैंड बजाया करता था. पहले इस लाइब्रेरी में केवल गोरी चमड़ी के लोगों को प्रवेश करने का ही अधिकार था. बाद में हाईकोर्ट के एक भारतीय जज ने इस आदेश को पलट दिया था.

मसूरी में ऐसी ही एक और दिलचस्प जगह है वहां का प्रसिद्ध सेवोय होटल जो कभी स्टोक्स ब्वायज स्कूल हुआ करता था. स्कूल बंद होने के बाद इस संपत्ति को लखनऊ के बैरिस्टर लिंकन ने खरीद लिया था. साल 1902 में ये होटल जनता के लिए खोल दिया गया. दूसरे विश्वयुद्ध में यूरोप में युद्ध में अपनी भागीदारी पूरी करने के बाद अंग्रेज अधिकारी इस होटल में छुट्टी बिताने आया करते थे. ये होटल उस समय ही विश्वविख्यात हो गया था. ऐसा इसलिये, क्योंकि सेवाय होटल के खुलने के कुछ साल बाद यानी 1911 में 49 साल की फ्रंासिस गार्नेट ओर्म मसूरी के सेवाय होटल के कमरे में मृत पाई गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि फ्रांसिस को साइनाइड मिला जहर के साथ ही प्रूसिक एसिड दिया गया था. 36 साल की उनकी दोस्त इवा माउंट स्टीफेंस पर हत्या का आरोप लगा था. बीबीसी की खबरों के मुताबिक जिन खास हालात में ये हत्या हुई थी, इसकी वजह से उस समय यह पूरी दुनिया में सुर्खी बना था. आस्टेलियन अखबारों के साथ ही इंग्लैंड और अमेरिका में खबरों की हेडिंग हुआ करती थी मसूरी मर्डर टायल या सेवाय होटल मिस्टी. कुछ समय बाद हत्याकांड की खबरों पर लोगों की नजरें हटी तो चर्चित उपन्यासकार और क्वीन ऑफ क्राइम के नाम से प्रसि़़द्व अगाथा क्रिस्टी का उपन्यास द मिस्टीरियस अफेयर एट स्टाइल्स पाठकों के बीच आ गया. उस समय कहा गया कि ये उपन्यास मसूरी के सेवाय होटल में हुये हत्याकांड पर आधारित है। एक बार फिर से मसूरी का नाम पूरी दुनिया में आ गया. 1947 में ये होटल लिंकन के पुत्रों से कैप्टन कृपा राम ने ख़रीदा.

इसी तरह मसूरी का चर्चित वुडस्टॉक स्कूल भी पहले ऐसा नहीं था, जैसा आज दिखता है. 1854 में भारत में स़्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाले ‘लंदन सोसायटी फॉर प्रोमोशन ऑफ फीमेल एजुकेशन इन दि ईस्टश् ने मसूरी में प्रोटेस्टेंट गर्ल्स स्कूल खोलने का निर्णय लिया. स्कूल के लिये 1856 में वुडस्टॉक ऐस्टेट खरीदी गई. जब एक बार स्कूल खुल गया तो इसे वुडस्टॉक ही कहा जाने लगा. बाद में इस संपत्ति को अमेरिकन प्रस्बाइटेरियन चर्च के बोर्ड ऑफ फारेन मिशन ने खरीद लिया था.

साल 1857 हमारे देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इस साल मेरठ छावनी में विदेशी शासन के खिलाफ पहला राष्ट्रीय गदर हुआ. इसका असर मसूरी में भी हुआ. अंग्रेजों की पत्नियाँ डर गई और सुरक्षा के लिये हिमालय क्लब हाउस में इक्कथा हुई. पूरे मसूरी में अंग्रेज सिपाहियों की गश्त बढ़ा दी गई. लेकिन दिक्कत ये थी कि ज्यादातर सैनिकों को मेरठ में गदर से निपटने के लिए भेज दिया गया था. ऐसे में मसूरी के मैडोक्स स्कूल के छात्रों को एक दिन का हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया और उनसे क्षेत्र में पैट्रॉलिंग करवाई गई. लेकिन दहशत फिर भी कम नहीं हुई. दहशत इसलिये भी ज्यादा थी क्योंकि ये वक्त गर्मियों का था और सैकड़ों यूरोपियन अपने परिवार के साथ मसूरी में छुट्टी बिताने आए हुए थे. ऐसे में टिहरी गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह ने एक बड़ी धनराशि और 200 सैनिकों की टुकड़ी मसूरी की सुरक्षा के लिए भेजी. ये टुकड़ी राजपुर और मसूरी के बीच तब के पैदल मार्ग पर तैनात की गई थी. कहा जाता है कि नजीबाबाद के नवाब ने सुदर्शन शाह को मनाने की कोशिश की थी कि वे अंग्रेजों का साथ न दें और गदर में शामिल हो जाएं. लेकिन राजा सुदर्शन शाह ने इसे नकार दिया और पूरी तरह राजभक्त बने रहे. बाद में जब गदर की आग ठंडी पड़ी तो अंग्रेजों ने राजा सुदर्शन शाह को बतौर ईनाम बिजनौर वाला क्षेत्र, जिसमें नजीबाबाद भी शामिल था, देने की पेशकश की. राजा सुदर्शन शाह ने उसके बजाय दून घाटी और ब्रिटिश गढ़वाल या पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र वाला इलाका देने की मांग रख दी. इस बारे में बातचीत चल ही रही थी कि सुदर्शन शाह का जून 1859 में देहांत हो गया. इसके साथ ही अंग्रेजों ने भी बातचीत की फाइल हमेशा के लिये बंद कर दी.

मेरठ के गदर के बाद ही 1865 में अंग्रेजों ने एक तोप कैमल्स बैक की उस पहाड़ी पर रख दी जिसे अब जनता गनहिल कहती है. इसी गनहिल में मसूरी की जल आपूर्ति करने वाला एक बड़ा टैंक भी बनाया गया. ये तोप काशीपुर आयुध निर्माणी ने सप्लाई की थी. तोप हर दिन दोपहर को समय बताने के लिए दागी जाती थी. जिस कर्मचारी को इसमें गोला दागने की जिम्मेदारी दी गई थी, उसे हर रोज बतौर मेहनाताना छह पेंस अंग्रेज सेना देती थी और इतने ही पैसे  नगर पालिका भी. आज तो समय बताने के लिये तोप से गोले दागने की बात बड़ी रोमांचक लगती है. हालाँकि उस वक्त भी अंग्रेजों ने इस तोप को समय बताने के लिये नहीं बल्कि आम लोगों के भीतर डर पैदा करने के लिये रखा था. 1857 के गदर के बाद अंग्रेज ऐसी हरकत देश भर में कर रहे थे. वैसे मसूरी के लोगों को ये बहुत बाद में पता चला कि तोप से कोई गोला नहीं दागा जाता, बल्कि उसके बदले गीली घास, सूखा गूदड़ और बारूद भर कर आवाज पैदा की जाती थी और तोप की नाल दून घाटी या माल रोड की तरफ होती थी. एक बार इसी तोप के कारण बड़ी हाय-तौबा मची. हुआ यूं कि तोप पर कुछ ज्यादा ही बारूद भर दिया गया. जब उसे दागा गया तो उसी वक्त एक अंग्रेज महिला माल रोड पर डांडी से जा रही थी. वो जलता हुआ तोप का गोला सीधे महिला की गोद पर गिरा. महिला तो बच गई, लेकिन उसने जो हल्ला काटा उसकी आवाज तोप के गोले से ज्यादा महसूस की गई. साल 1919 तक ये तोप दागी जाती रही. फिर इसे फिजूलखर्ची मानकर बंद कर दिया गया. 1940 में जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया तो इस तोप को गलाने के लिये फिर से आयुध निर्माणी भेज दिया गया. तोप तो चली गई, लेकिन आज भी उसको गनहिल में पहुंचाने वाले पहिये वहीं पर देखे जा सकते हैं.

1884 में डयूक और ‘डचेज ऑफ़ कनाटश् दून घाटी होते हुए मसूरी गए थे. इस दौरान वे बार्लाेगंज में जहां रूके, उनमें मसूरी का वो मकान भी था, जो बाद में होटल बना और उसका नामकरण भी कनाट कैसेल होटल हुआ. बार्लाेगंज के इस होटल के स्थान पर ही अब फाइव स्टार जेपी होटल है. वैसे बार्लाेगंज को अपना यह नाम जनरल बार्नाे के नाम से मिला था. ये उनकी ही एस्टेट हुआ करती थी. यहीं पर सेंट जोर्जेस कॉलेज भी है जो भारत के टॉप स्कूलों में से एक है.

मौसी झरना भी इसी एस्टेट में आता है. इस झरने का पहले कोई नाम ही नहीं था. फिर एक दिन क्या हुआ कि एस्टेट के मालिक का परिवार इस झरने के पास घूम रहा था. उनके साथ हिमालय बैंक का मैनेजर मिस्टर मौस भी बतौर मेहमान था. उसके दोस्त मिस्टर मौस को प्यार से मौसी कहा करते थे. घूमने के दौरान जब मौसी झरने के ऊपर मौजूद पत्थरों पर चल रहा था तभी उसका पैर फिसल गया और वो नीचे झरने के कारण बने तालाब में जा गिरा. ये देखते ही सभी आसपास के लोग चिल्लाये, ‘मौसी फाल्स-मौसी फाल्स’. बस तभी से इस झरने को मौसी फॉल पड़ गया. अभी तक आप शायद इसे मम्मी की बहन जिन्हें आप मौसी कहते हैं, उनके नाम पर समझ रहे थे न?

एक और किस्सा है, जो बहुत मजेदार है. ये लाल रंग और पत्थरों से बनी आलीशान इमारत आपने अक्सर परेड ग्राउंड के समीप देखी ही होगी. आप ये भी जानते ही होंगे कि ये बिल्डिंग उस प्रतिष्ठित दून क्लब की है, जिसकी सदस्यता के सारे सामंती पैमाने अगर कोई पूरे कर भी ले तो भी हाल फिलहाल 20 सालों की वेटिंग चल रही है. यानी जिन लोगों ने राज्य गठन के दौरान या उसके दो-तीन साल बाद इसकी सदस्यता के लिये आवेदन किया होगा, उनका नंबर इस साल आयेगा. कुछ ऐसी ही ठसक है ‘द देहरादून क्लब’ की जो साल 1878 में खुला था. हालांकि क्लब तो पहले ही बन गया था. ये तारीख इस बिल्डिंग में क्लब के शुरू होने भर की है. पहले ये क्लब कर्नल यंग के घर पर चलता था. वही कर्नल यंग, जिनका जिक्र इस कार्यक्रम की शुरुआत में भी आया था. ये ही कैप्टन यंग बाद में देहरादून में कुछ समय जिलाधिकारी भी रहे. देहरादून में इनका वो ही घर हुआ करता था, जहां आज सेंट जोसेफ एकेडमी चलती है. वहीं जिस बिल्डिंग में अब दून क्लब चलता है, वो सर्वे ऑफ़ इंडिया के कर्नल फिलिमेर ने 1904 के अधीक्षण में बनी थी. वो और उनकी पत्नी ने इसी क्लब बिल्डिंगं में रहकर सर्वे ऑफ इंडिया का इतिहास लिखा था.

तो इस क्लब का किस्सा कुछ यू हैं कि इन्हीं कर्नल फिलिमेर का एक सहकर्मी लेफ़्टिनेंट कर्नल केनेथ मैसन था. ये बात उस दौर की है, जब अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब उनके भारत में कुछ गिने चुने साल ही रह गये हैं. तो लेफ़्टिनेंट कर्नल केनेथ का एक भारतीय मूल का दोस्त हुआ करता था, जो पेशे से डाक्टर था. उसने केनेथ से आग्रह किया कि वो उसको भी क्लब में सदस्यता दिला दे. अब समस्या ये थी कि इस क्लब में केवल अंग्रेज अधिकारियों को ही सदस्यता दी जाती थी. लेकिन गौर करने वाली बात ये भी थी कि जब की ये घटना है यानी 1932 की तब तक सिविल और सैन्य दोनों सेवाओं का भारतीयकरण होने लगा था और काले गोरे के बीच की दीवार ढहने लगी थी. केनेथ मैसन अपने दोस्त का नाम प्रस्तावित करने के लिए तैयार हो गया और उसने एक अन्य अंग्रेज आईसीएस अधिकारी, जो उस समय देहरादून के सुपरिनटेंडेंट ऑफ दि दून थे, उनको भी समर्थन देने के लिए तैयार कर लिया.

उन दिनों बहुत कम भारतीय इस क्लब के सदस्य हुआ करते थे जिनमें टिहरी गढ़वाल रियासत के राजा और पंजाब से निष्कासित राजा लाल सिंह के वंशज भी थे. इन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया. मतदान की प्रक्रिया ये थी कि सभी को अपना नाम एक रजिस्टर पर लिखना होता था. उसके बाद एक काली या सफेद गोटी मतपेटिका में डालनी होती थी. अभी चुनाव की प्रक्रिया शुरू ही हुई थी कि भारतीय डाक्टर को भी उस रात के लिये आमन्त्रित कर लिया गया. सभी कुछ ठीक चल रहा था. तभी उस भारतीय डाक्टर को खांसी आई और उसने अपना गला साफ करके, घूमकर वहीं फर्श पर थूक दिया. इसके बाद हुआ ये कि डाक्टर के अंग्रेज दोस्त केनेथ मैसन ने दोनों काली और सफेद गोटी मतपेटी में डाल दी. मतदाताओं से ज्यादा मतपत्र होने के कारण चुनाव निरस्त हो गए. डाक्टर को विनम्रतापूवर्क सूचित कर दिया गया कि आप छह महीने बाद फिर से आवेदन करें. लेकिन इस बात को लेकर भयंकर हो हल्ला मचा. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने इस थूक कांड को कितनी गंभीरता से लिया होगा कि भारत के थल महासेनाध्यक्ष ने स्वयं छावनी के सैन्य अधिकारियों को आड़े हाथों लिया. बाद में जब जांच हुई तो पता चला कि टिहरी के महाराजा और पंजाब के उस निवार्सित राजा के वंशज ने भी डाक्टर के खिलाफ मतदान किया था. 1947 में भारत से जाने से पहले अंग्रेज इसे छह लाख रूपये में बेचना चाह रहे थे लेकिन इस क्लब के भारतीय सदस्य राजा लाल सिंह के वंशज कर्नल कुंवर शमशेर सिह बहादुर ने इसका विरोध किया और होईकोर्ट चले गए. कोर्ट ने क्लब की समाप्ति पर रोक लगा दी और इस तरह क्लब उन भारतीयों के लिये बच गया, जिनकी मुराद बाद में इसका सदस्य बनकर पूरी हुई. वैसे एक बात ये भी दिलचस्प है कि अंग्रेजों के दौरान भारतीयों के इस क्लब के सदस्य बनने का सबसे ज्यादा विरोध भी कर्नल कुंवर शमशेर सिंह बहादुर ने ही किया था.

तार प्रणाली देहरादून और मसूरी में 1865 में एक साथ आई. जबकि टेलीफोन 20वीं सदी की शुरुआत में घनघनाया. इसी तरह देहरादून इस बात का भी अभिमान कर सकता है कि भारत में जिन शहरों में सबसे पहले रेडियो प्रसारण शुरू हुआ, उसमें 1930 में देहरादून भी एक था. इसके लिये भारतीय जनता ने चंदा किया और इस प्रसारण केंद्र के अध्यक्ष बने तत्कालीन जिलाधिकारी बीजीके हैलोज. ये प्रसारण केंद्र दो घंटे भारतीय संगीत और शाम को कुछ रिकॉर्डड कार्यक्रम प्रसारित किया करता था. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ये प्रसारण केंद्र बंद कर दिया गया और उसके बाद तो पूरे देश के रेडियो प्रसारण केंद्र सरकार के अधीन ही आ गये थे.

मसूरी के पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ है. मसूरी नगर पालिका देश में मुंबई के बाद वो नगर निकाय है, जिसका अपना बिजली और पानी की सप्लाई करने वाला डैम भी था. पानी से बिजली बनाने वाली टरबाइन से युक्त ये बिजलीघर मसूरी से काफी नीचे गलोगी में बनाया गया. इस डैम के बनने के बाद मसूरी में 24 मई 1909 को पहली बार घरों में रोशनी देने वाले बल्ब जलने लगे थे. इस बिजलीघर की क्षमता 750 किलोवाट थी. उस समय इसकी बिजली की दर चार आना यानी 25 पैसे प्रति यूनिट रखी गई. मसूरी में बिजली पहुंचने के नौ साल बाद यानी 1919 में देहरादून में रोशनी के लिये पहला बल्ब जला. ये भी तब संभव हुआ जब देहरादून नगर पालिका के निवेदन पर मसूरी बोर्ड ने गलोगी डैम से बिजली सप्लाई की अनुमति दी. हालांकि ये बिजली भी तब दी गई जब संयुक्त प्रांत की सरकार ने बीच में दखल दिया और खुद मसूरी सिटी बोर्ड को इसके लिये निवेदन किया.

जैसा कि हमने पहले ही बता दिया था कि मसूरी में दोपहर का समय बताने वाली तोप से गोले दागना 1919 में बंद कर दिया गया था, लेकिन फिर लोगों को सटीक समय का पता कैसे चलता था? क्योंकि उस वक्त भी आम लोगों के लिए घड़ी खरीदना महंगा सौदा था. ऐसे में हर रात नौ बजे तीन मिनट के लिए बिजली का वोल्टेज कम करना शुरू कर दिया गया. ऐसा करने से बिजली की चमक मंद पड़ जाती थी और इससे लोगों को पता चल जाता कि रात के नौ बज गये हैं. 1934 में अधिकारियों को पता चला कि ऐसा करना भारतीय बिजली अधिनियम का उल्लंघन है तो उन्हें ये प्रथा चालू रखने के लिये सरकार से विशेष अनुमति हासिल करनी पड़ी.

अब बिजली आ गई तो सिनेमा घर भी खुलने लगे. देहरादून में खुले ओलंपिया, औरोरा और ओरियंट और मसूरी में खुले रौक्सी और पिक्चर पैलेस. उस वक्त सिनेमा घर में केवल सिनेमा ही नहीं देखा जाता था बल्कि बार भी हुआ करता था. मतलब दर्शक एक हाथ में शराब का ग्लास और दूसरे हाथ में सिगरेट पकड़कर भी आराम से फिल्म देख सकते थे.

स्क्रिप्ट: मनमीत

Scroll to top