कम्युनिस्ट नेता जिसने 14 साल की उम्र में टिहरी की राजशाही को चुनौती दे दी थी

  • 2022
  • 14:32

15 अगस्त 1947. सदियों से ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़ा भारत आज़ाद हो रहा था. लेकिन उत्तर भारत की टिहरी रियासत में आज़ादी की सुबह होना अब भी बाक़ी था. हालाँकि टिहरी का इतिहास भी करवट लेने लगा था. टिहरी बदल रहा था और उसके भीतर लगभग 1100 सालों से बंधी चली आ रही बेड़ियों को तोड़ने की ललक जाग चुकी थी. ये ललक सिर्फ़ टिहरी शहर तक नहीं थी. हिमालय के बीहड़ इलाकों, सकलाना से लेकर सुदूर कीर्तिनगर में कड़ाकोट तक आजादी की मशालें पहुंच चुकी थी.

इधर भारत आजाद हो रहा था और उधर टिहरी में एक 14 साल का एक किशोर तिरंगा फहराकर 132 साल पुरानी राजशाही को चुनौती दे रहा था. 15 अगस्त 1947 के दिन टिहरी के प्रताप इंटर कॉलेज में तिरंगा फहराकर इस बालक ने इतिहास रच दिया था. इस घटना के तीन दिन बाद ही राजा की पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया. लेकिन टिहरी की राजनीति के दरवाज़े पर वो बालक अपनी मजबूत दस्तक दे चुका था. उस बालक का नाम था विद्यासागर नौटियाल.

एक जनवरी 1948. टिहरी में जब विद्रोही ग्रामीणों की भीड़ उमड़ रही थी तो 15 साल के विद्यासागर नौटियाल भी उसमें शामिल थे. वे इस अद्भुत जन-क्रांति के दर्शक नहीं बल्कि इसका एक हिस्सा बनकर आजाद हिंद फौज के सैनिकों के साथ-साथ चलते हुए राजशाही के तख्तापलट को अंजाम दे रहे थे. टिहरी के इतिहास के सबसे चमकदार समय में उन्होंने जनता की ताकत का जलवा भी देखा और फैज अहमद फैज की इंकलाबी गजल ‘जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे’ को टिहरी की सरजमीं पर एक हकीकत के रुप में मंचित होते हुए भी.

जनता की ताकत का ऐसा साक्षात्कार किसी को भी इंकलाबी बना सकता था. विद्यासागर की दुबली-पतली काया के भीतर तो बचपन में ही क्रांतिकारी प्रवेश कर गया था. टिहरी की इस आग को लेकर जब वे 1952 में काशी विश्वविद्यालय पहुंचे तो इसकी तपिश बीएचयू के भीतर ही नहीं बल्कि उसकी हदों से बाहर बनारस शहर तक महसूस की जाने लगी. जल्द ही नौजवान विद्यासागर एक छात्रनेता बन गए.

आजादी के बाद का वो ऐसा कालखंड था जब सत्तारुढ़ दल के भीतर ही नहीं बल्कि प्रतिपक्ष की राजनीति में भी नायकों का दौर चल रहा था. भारतीय राजनीति में एक ही समय पक्ष और प्रतिपक्ष में एक से बढ़कर एक महान राजनेता एक दूसरे को चुनौती दे रहे थे. सबके पास देश के लिए अपना सपना था और वे सब अपने रंग की क्रांति के लिए संघर्ष कर रहे थे. उस समय तक विश्वविद्यालयों में अपने करियर के लिए चिंतित और चिड़चिड़े नौजवानों की नस्लें नहीं पहुंची थी. बदलाव के सपनों और जनसंघर्षों की सबसे बेहतरीन पौधशालाओं से विश्वविद्यालय लहलहा रहे थे. उनमें थार और सहारा के वैचारिक मरुस्थ्लों का युग आने में अभी काफी देर थी.

ये उन नौजवानों का भी समय था जो आजादी मिलने से उम्मीद से भरे हुए थे, और उनका भी जो कांग्रेस के रंग-ढंग से संतुष्ट नहीं थे. वामपंथी और समाजवादी युवाओं के गुस्से से तब विश्वविद्यालय दहका करते थे. ये उन नाराज नौजवानों का दौर भी था जो बदलाव की बात कर रहे थे और ऐसे नौजवानों के पीछे चलने वाले छात्रों की तादाद भी कम नहीं थी. तब तक एंग्री यंगमैन वास्त्विक जिंदगी से विदा होकर सेलुलॉइड के पर्दे पर नहीं गया था. उससे साक्षात्कार करने को सिनेमा हॉल्ज़ की अंधेरी दुनिया में नहीं जाना पड़ता था. वे सारे नाराज नौजवान देश के विश्वविद्यालयों के परिसरों में तकरीरें करते नजर आ सकते थे. वे अपने संघर्षों की पूंजी और भाषण कला से छात्र-छात्राओं की जवान भीड़ को मुग्ध कर रहे थे.

ऐसे ही समय में विद्यासागर बनारस आए. काया को छोड़कर उनमें नायक होने के सारे गुण थे. महज 14 साल की उम्र में जेल जाने का साहस, एक लेखक की संवेदनशीलता, विरोधियों की धज्जियां उड़ाने वाली दहाड़, शब्दों का अद्भुत खेल और बोलने का निराला अंदाज. इन सबसे मिलकर बनता था विद्यासागर का वो जादू जिसमें बंधकर बीएचयू के छात्रों ने उन्हें छात्र संघ अध्यक्ष भी बनाया और कम्युनिस्ट पार्टी ने पहाड़ से गए इस लड़के को महज 25 साल की उम्र में ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुन लिया. वे आज भी बीएचयू के इतिहास के विरले छात्र नेताओं की पांत में शामिल हैं. 1952 से 1959 तक विद्यासागर बनारस में रहे. इसी दौरान उनके भीतर के रचनाकार ने भी अंगड़ाई लेना शुरू किया. नामवर सिंह से लेकर कई नामी साहित्यकारों की संगत ने विद्यासागर के भीतर ठाठें मार रहे सर्जना के सागर को खोज निकाला. इसी दौर में कल्पना में छपी ‘भैंस का कट्या’ कहानी ने एक महान कहानीकार के आगमन की सूचना दे दी थी.

साल 1959 में विद्यासागर पीसी जोशी के हुक्म और पहाड़ से अपने लगाव के चलते टिहरी लौट आए. इस बार उन्हें गढ़वाल में कम्युनिस्ट पार्टी को स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. उन्हें पहाड़ में कम्युनिस्ट पार्टी का पहला पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाकर भेजा गया था. वे जब टिहरी पहुंचे तब इस शहर में कम्युनिस्ट होना किसी कुफ्र से कम नहीं था. और ये उस जिले का हाल था जिसे आजाद करने के लिए एक जवान कम्युनिस्ट नागेंद्र सकलानी ने अपनी शहादत दे दी थी और जिसे रियासती राज से मुक्ति दिलाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कई यातनायें सही थी. विद्यासागर जब टिहरी आए तो शहर में कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर के लिए कमरा देने को तैयार नहीं हुआ. आखिरकार उन्हें एक भुतहा हवेली मिली जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी का ऑफ़िस खोला गया.

इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. टिहरी के शाहजहां चिंदरू मियां ने अपनी बला की खूबसूरत बेगम के लिए यह भव्य हवेली बनवाई थी. लेकिन शादी के बाद अपनी हवेली का हर्ष वो ठीक से देख भी नहीं पाई थी कि उनकी मौत हो गई. बेगम चली तो गई पर उनका दिल तो जैसे हवेली के भीतर ही रह गया था. बात चल निकली कि बेगम की अतृप्त रूह हर रात इस हवेली में चहलकदमी करती है. दरवाजे खोलती बंद करती वह रात भर बेचैन होकर हवेली के हर कमरे में आती जाती है. पूरी टिहरी को यह खबर थी इसीलिए उस हवेली में कोई रहने को तैयार नहीं था.

भूत के साथ रहने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा भला कौन तैयार होता? भूत के साथ भविष्य की पार्टी! दिन में बेचैन कम्युनिस्ट और रात को बेचैन रूहें! जहां कम्युनिस्टों को ऐसी वर्जित प्रजाति माना जाता हो वहीं विद्यासागर को एक व्यापक जनाधार वाली पार्टी खड़ी करनी थी. अकेले आदमी के लिए यह सफर कितना मुश्किल और चुनौतियों से भरा रहा होगा, यह कल्पना ही की जा सकती है. ये रेगिस्तान में फूलों की खेती करने जैसा काम था. लेकिन विद्यासागर एक किसान भी थे. वे जानते थे कि मरूस्थल दिखने वाली टिहरी की जमीन में ही जनसंघर्षों का वो पानी छुपा है जिससे जनक्रांति का एक सैलाब आया था.

संयोग से वह समय टिहरी के इतिहास का सबसे चमकदार समय था. ऐसे में पीठ पर पिठ्ठू लादे विद्यासागर उस टिहरी को जगाने निकल पड़े जिसने इतिहास के लंबे राजवंशों में से एक को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया था. दो साल में ही टिहरी की राजनीति का व्याकरण बदलने लगा. संघर्षों का सिलसिला शुरु हो गया. टीचर्स आंदोलन हो, बस मजदूरों का आंदोलन या पीडब्लूडी मजदूरों का आंदोलन. चिंदरू मियां की भुतहा हवेली पर लहराने वाला लाल झंडा अब जुलूसों, जनसभाओं और नारों के साथ लहराने लगा था.

यह टिहरी के इतिहास का वो अद्भुत समय था जब एक ओर जनकवि गुणानंद पथिक अपने गीतों के जरिये क्रांति की अलख जगा रहे थे तो दूसरी ओर विद्यासागर नौटियाल की अगुआई में लंगोटी पहने ग्रामीण नंगे पैरों के साथ टिहरी शहर में दस्तक देने लगे थे. 133 साल की गुलामी के बाद टिहरी की धरती जनांदोलनों की धमक से हिल रही थी. टिहरी में ‘रात अंधेरी छँटके रहेगी, धन और धरती बंटके रहेगी’ जैसे इंक़लाबी नारे गूंज रहे थे और ये बहुत बड़ा राजनीतिक बदलाव था.

सन साठ और सत्तर के दशक के टिहरी को समझे बगैर विद्यासागर नौटियाल को नहीं समझा जा सकता. उस दौर के टिहरी की मनोदशा लंबी कैद भुगत कर खुली हवा में आए किसी कैदी जैसी थी. लोग अपने बूते पर जगह-जगह स्कूल और कॉलेज खोल रहे थे. एक असंभव आजादी का अहसास और खुली हवा में सांस लेने का रोमांच उनकी नसों में जैसे समा नहीं पा रहा था. वे कुलांचे भरना चाहते थे. 133 सालों से रुकी वह नदी रियासती बांध की गुलामी तोड़कर अपनी सतह से काफी ऊपर बह रही थी. टिहरी चेतना और आकांक्षाओं के नए आसमानों की खोज में था. उसके पीछे एक तख्ता पलट का गौरवशाली इतिहास तो था लेकिन सामने कांग्रेस की एक औसत सरकार जो उसकी आकांक्षाओं के साथ तालमेल बिठाने में बहुत कामयाब नहीं हो पा रही थी.

लोगों के एक हिस्से के पास कांग्रेस का रास्ता था लेकिन जो इस रास्ते से असंतुष्ट थे वे अलग रास्ते की तलाश में थे. विद्यासागर जब ऐसे लोगों की तलाश में निकले तो नितांत अकेले थे. वे पीठ पर पिठ्ठू लादे असली भारत को खोजने निकले थे. दरिद्रता का भारत, बीमारियों के आगे पस्त पड़ा भारत, सरकारी हुक्कामों से डरा हुआ भारत और संकटों से निजात पाने के लिए कुलदेवताओं के आगे गिड़गिड़ाता हुआ भारत. ऐसे ही भारत के हाथों में वह लाल झंडा थमाने की जिद लिए चल पड़े तो फिर उन्होंने कभी पीछे नहीं देखा. तब भी नहीं जब उन्हें चीन हमले के दौरान देश की सुरक्षा के लिए खतरा बता कर गिरफ्तार कर लिया गया. ये वही देश था जिसके लिए उन्होंने तिरंगा फहराया और इस जुर्म में जेल भी भुगती थी. सातवें और आठवें दशक में वे टिहरी में लाल प्रतिरोध के सबसे बड़े प्रतीक थे. सन् साठ से लेकर अस्सी तक के समय पर उनके आंदोलनों और गर्जनाओं की जो अमिट छाप है, उसने उन्हें दंत कथाओं के नायक जैसा रूतबा दिया. इसी दौर में वे देवप्रयाग से विधायक भी चुने गए और तब उत्तर प्रदेश विधानसभा भी उनके तीखे हमलों और शब्दों की मारक जादूगरी की साक्षी बनी.

लेकिन एक छोटी सी घटना ने उनके करिश्मे को जैसे ग्रहण लगा दिया. उनकी बेटी की शादी में मदद करने के लिए जेपी कंस्ट्रक्शन कंपनी ने अपने ट्रक भेजकर टिहरी के इतिहास के उस अप्रतिम लडाकू नेता के प्रभामंडल को राहु की तरह ग्रस लिया. यह पता नहीं जेपी ग्रुप की साजिश थी या उनके करीबियों की मूर्खता, पर इस घटना के साथ उनका उतार शुरु हो गया. आज के नजरिये से देखें तो यह एक बेहद मामूली बात लगती है लेकिन उस जमाने में लोग अपने नायक पर इतनी-सी तोहमत भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. इस घटना से यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक जीवन में निष्कलंक बने रहने के लिए हर समय तलवार की धार पर चलना पड़ता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि गलती आपने की है या आपके किसी समर्थक ने. भगवान राम भले ही त्रेता में रहे हों पर वे सार्वजनिक जीवन की इन अग्निपरीक्षाओं को जानते थे. उन्हें वनवास का दंड भी लोकलाज की इसी परंपरा से जनमा होगा.

ये केवल विद्यासागर नौटियाल की लोकप्रियता के ही उतार का ही दौर नहीं था बल्कि भाकपा के क्षरण का भी दौर था. भाकपा की वैचारिक धार कुंद पड़ने लगी थी और उसमें समझौतापरस्ती का दौर शुरु हो चुका था. नवें दशक में भाकपा एक अस्थिपंजर में बदल चुकी थी. बरफ सिंह रावत के जिला सचिव बनने तक कम्युनिस्ट पार्टी बर्फ की तरह ठंडी और निर्जीव होकर पानी-पानी होने लगी थी. विचारों और संघर्षों की सघनता अब पिघल रही थी और वह पानी की तरह निराकार होने लगी थी. दुख की बात यह थी कि भाकपा के अवसान का यह दौर भी उन्हीं विद्यासागर को देखना पड़ा जिन्होंने इस पार्टी को बनाने में अपने जीवन के पैंतीस अमूल्य साल लगा दिए. शिखर से पतन तक का गवाह उन्हें ही बनना पड़ा. प्रसाद की कामायनी में वर्णित,‘‘ हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छांह/एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह’’ के पुराण पुरुष की तरह.

टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौर में भी उनका वैचारिक तेज तब फीका पड़ता दिखा जब बांध विरोधियों ने विश्व हिंदू परिषद के साथ हाथ मिलाकर आंदोलन चलाया. विद्यासागर तब आंदोलन का हिस्सा भी बने रहे और उन्होंने बाकायदा अपने स्टैंड को सही भी ठहराया. लेकिन लगभग 45 साल के राजनीतिक जीवन में इन राजनीतिक विचलनों को छोड़ दिया जाए तो वे आजादी के बाद टिहरी के इतिहास के सबसे जुझारू योद्धा, सार्वजनिक जीवन में असंदिग्ध ईमानदार और सर्वाधिक संवेदनशील नेता बने रहे. अपनी विचारधारा के लिए ग़रीबी और अभावों की जो पीड़ा उन्होंने झेली वह शायद ही किसी और ने झेली हो. वे बीसवीं सदी के भारत में राजनीति और साहित्य का अद्भुत संगम थे.

टिहरी यदि आज इस मुकाम पर पहुंचा है तो इसमें विद्यासागर उन आधा दर्जन लोगों में हैं जिन्होंने अपने भविष्य को मिटाकर टिहरी का भविष्य बनाया. ग़रीबी और भुखमरी के उस अंधेरे इतिहास में पिठ्ठू लादे विद्यासागर नौटियाल लालटेन की तरह नजर आते रहेंगे. वे ऐसे सागर थे जिसके भीतर एक हिमालय रहता था. धरती के शुरुआती सालों वाले उस बेचैन टिथलिक सागर की तरह जिसने आज के हिमालय को जन्म दिया. ऐसा सागर जिसमें अथाह गहराई भी थी और दैत्याकार जहाजों को झकझोरने वाली प्रलयंकारी लहरें भी. लहरों का संगीत भी और तटों से टकराने का जज्बा भी. उनका न होना ऐसे ही सागर के न होने से उपजा रीतापन है. उनकी आक्रामकता में वह टिहरी बोलता था जो सदियों के भूगर्भीय जनअसंतोष के जमा होने से बेचैन रहा करता था.

स्क्रिप्ट : राजेन्द्र टोडरिया

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