साल 2019 की बात है. एक केंद्रीय मंत्री बेहद गुपचुप तरीके से उत्तरकाशी के पास एक अज्ञात स्थान पर पहुंचे. वैसे तो किसी केंद्रीय मंत्री का दिल्ली छोड़कर किसी दूसरे राज्य में आना, प्रशासन और पुलिस के लिए प्रोटोकॉल के लिहाज से बेहद अहम होता है. लेकिन इस बार न तो सचिवालय में बैठे अधिकारियों को और न ही पुलिस प्रशासन को इस दौरे की भनक लग पाई. ये केंद्रीय मंत्री न तो उत्तराखंड से सांसद थे और न ही यहां के मूल निवासी. बावजूद इसके बेहद गोपनीय तरीके से वो भागीरथी नदी के किनारे मौजूद एक गांव में पहुंचे और रात भर चले एक तांत्रिक अनुष्ठान में शामिल होकर अगले दिन बिना किसी को खबर लगे दिल्ली लौट गए. उस समय भले ही उनके इस दौरे की खबर प्रशासन को न लग पाई हो, लेकिन पत्रकारों के सूत्रों ने ये खबर अखबारी दफतरों तक पहुंचा दी थी. लिहाजा, अगले दिन अखबारो में ये खबर छपी और इस पर चर्चा भी हुई. तब इस पूजा अनुष्ठान पर कई शोधकर्ताओं का ध्यान गया.
शोधकर्ताओं के माना कि ये कोई पूजा नहीं, बल्कि एक तांत्रिक अनुष्ठान था. एक ऐसा अनुष्ठान जो अब पहाड़ों के तमाम गांवों में होता है और किसी को नहीं चौंकाता. क्योंकि जौनसार हो या गढ़वाल, चौंदास हो या जोहार और ब्यांस की घाटी हो या फिर कुमाऊँ की, हर इलाके में तमाम हिंदू वैदिक पूजा अनुष्ठानों के साथ ही यहां तांत्रिक अनुष्ठान होना भी आम बात है. पहाड़ों में अब अक्सर इन्हें तांत्रिक अनुष्ठान के तौर पर नहीं, बल्कि आम पूजा पाठ के तौर पर ही लिया जाने लगा है. लेकिन ये तमाम तांत्रिक अनुष्ठान आखिर हैं क्या और क्या ये हमेशा से वैष्णव धर्म का हिस्सा रहे हैं?
अगर आपको बताया जाए कि तमाम तांत्रिक अनुष्ठान कभी एक अलग ही धर्म की पूजा पद्धति थे, एक ऐसा धर्म जिसके तांत्रिक कर्मकांडों की मुखालफत खुद आदि गुरू शंकराचार्य ने की थी और ऐसा धर्म जो हिंदू वैदिक धर्म से बिल्कुल ही अलग था, तो स्वाभाविक है कि आप चौकेंगे. लेकिन आज हम तमाम वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के शोध-पत्रों का हवाला देते हुए बताएंगे कि कैसे उत्तराखंड में कभी पौन नाम का धर्म अपने चरम पर था. हम आपको ये भी बतायेंगे कि तिब्बत में बौद्ध धर्म आने से पहले का बौन धर्म और उत्तराखंड में आदि गुरू शंकराचार्य के आने और सनातन धर्म के विस्तार से पहले का पौन धर्म कैसे बिलकुल मिलते-जुलते थे. साथ ही हम बतायेंगे कि कैसे उत्तराखंड के तमाम पहाड़ी क्षेत्रों में पौन धर्म के रीति रिवाज और तांत्रिक अनुष्ठान आज भी जीवित हैं.
नमस्कार मेरा नाम है राहुल कोटियाल और आप देख रहे हैं बारामासा की विशेष सिरीज़ हाईलैंडर्स.
हाईलैंडर्स के इस एपिसोड में हम इस मुद्दे पर बात करेंगे कि खसों और आर्यों के हिमालयी क्षेत्रों में सैकड़ों साल रहने के बाद, जब आठवीं सदी में आदि गुरू शंकराचार्य यहां पहुंचे और लोगों का वैष्णव धर्म से परिचय करवाया, तो उससे पहले यहां के लोग किस धर्म को मानते थे? यानी आज से लगभग 1200 साल पहले हम किस भगवान की पूजा कर रहे थे? ये तो स्थापित ही है कि सनातन धर्म का औपचारिक और सुगठित स्वरूप यहां शंकराचार्य के आने के बाद ही देखा गया. तो फिर उससे पहले हमारे आराध्य कौन थे? इस सवाल का जवाब देते हुए कुछ शोधपत्र बताते हैं कि उस दौर में बौन या पौन धर्म पूरे हिमालयी भूभाग में सबसे प्रचलित था. तिब्बत और उससे लगते उत्तराखंड के सीमांत इलाके मसलन, दारमा, व्यांस, नीति, माणा और उत्तरकाशी के जाड़ गंगा क्षेत्र तक इसे बौन कहा जाता था जबकि उत्तराखंड के मध्य हिमालयी क्षेत्र यानी गढ़वाल और कुमाउं में इसे पौन कहते थे.
बौन धर्म के स्पष्ट प्रमाण आज भी उत्तराखंड, हिमाचल, नेपाल, भूटान और पूर्वोत्तर के तमाम हिमालयी राज्यों में मिलते हैं. लेकिन वो मुख्यधारा में इस कदर घुल-मिल गए हैं कि आज उन्हें सनातन धर्म से अलग करना बेहद जटिल हो गया है. बल्कि सिर्फ़ हिंदू धर्म में ही नहीं, मेघालय और अरूणाचल जैसे राज्यों में तो बौन धर्म के ये रीति-रिवाज ईसाई धर्म में भी समाहित हो गए हैं और कई अन्य जगहों पर ये बौद्ध धर्म का हिस्सा हो चुके हैं. विद्वानों का यह भी मत है कि तिब्बत का लामा धर्म तो बौद्ध धर्म और पौन पूजा-पद्धति का ही सम्मिश्रण है.
उत्तराखंड की बात करें तो आठवीं सदी में सनातन धर्म का पुनरुद्धार करने आदि शंकराचार्य यहां आए और उन्होंने बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना की. ये वो दौर था जब उत्तराखंड समेत तमाम हिमालयी राज्यों, मध्य भारत, कश्मीर, तिब्बत, मंगोलिया और सेंट्रल एशिया के साथ ही दक्षिण पूर्वी एशिया में भी बौद्ध धर्म अपने चरम पर था. ये ही वो दौर भी था जब गढ़वाल में परमार वंश और कुमाऊँ में चंद वंश आने ही वाला था और इस पूरे भूभाग में कत्यूरी शासन कमजोर पड़ने लगा था. जिक्र मिलता है कि कत्यूर शुरूआत में बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और बाद में उन्होंने हिंदू धर्म अपनाया. लेकिन कई शोधकर्ता ये भी मानते हैं कि कत्यूर असल में बौद्ध नहीं, बल्कि बौन थे. बहरहाल, आठवीं में तक बौन और पौन धर्म अपने उतार पर आने लगा था. क्योंकि तिब्बत की तरफ बौद्ध धर्म ने उसे अपने में समाहित कर लिया था जबकि हिमालय से भारत वाली तरफ वो हिंदू धर्म में समाहित होने लगा था.
आगे बढ़ने से पहले इस पर चर्चा कर लेते हैं कि आखिर बौन धर्म था क्या? बौन एक ऐसा धर्म था जिसमें शेमेनिस्टक और एनिमिस्टक, दोनों के ही गुण थे. शेमिनिस्म मतलब तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की विद्या का अनुपालन करने वाला धर्म और ऐनिमिज़म मतलब प्रकृति के हर रूप को पूजने वाला धर्म. मसलन इस बात में विश्वास रखने वाला धर्म कि पेड़, पहाड़, नदी, आकाश सभी में आत्मा का वास है और ये सभी पूज्य हैं.
लगभग पांचवीं सदी ईसा पूर्व बौन धर्म पश्चिम तिब्बत और उत्तरी भारत में अपने चरम पर रहा. उस दौरान वेस्टर्न तिब्बत में बौन धर्म के सबसे बड़े आराध्य शेरनॉब मिवॉचे रहे जबकि हिमालय के इस तरफ, यानी जहां उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर राज्य हैं, यहां के बड़े आराध्य भगवान महादेव यानी शिव शंकर थे, जिनको मानने वाले शैव कहलाए. साल 1921 में हिमालय के खसों पर शोध करने वाले प्रो एलडी जोशी अपनी किताब ‘खस फैमली लॉ’ में लिखते हैं, ’ये साबित तथ्य है कि हिमालयी राज्यों में खसों के आने से भी पहले भगवान महादेव को पूजा जाता था. जब खस यहां पहुंचे तो उन्होंने यहां के मूल निवासियों के साथ सांस्कृतिक और धार्मिक गठबंधन कर भगवान शिव शंकर को भी अपना लिया.’ खस कौन थे, इसकी विस्तृत जानकारी के लिए आप हाईलैंडर्स सिरीज़ का पहला एपिसोड ‘उत्तराखंड के खस’ देख सकते हैं, जिसका लिंक डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.
बहरहाल, ये तो सभी जानते हैं कि हिंदू धर्म के तमाम देवी देवताओं की वैदिक पूजा पद्धति से इतर, भगवान शिव की आराधना तांत्रिक अनुष्ठानों के ज़रिए की जाती थी. ये तांत्रिक अनुष्ठान मूल रूप से बौन या पौन पूजा पद्धति से ही निकले हैं.
बौन धर्म पर आधारित किताब ‘प्राणों की साधना – वामाचार तंत्र तथा पौन तांत्रिक प्रथा’ के लेखक और तिब्बतोलोजिस्ट पूर्व आईएएस एसएस पांगती लिखते हैं, ‘वेदों को भारत का प्राचीन धार्मिक ग्रंथ माना जाता है. लेकिन इन्हें लिपिबद्ध लगभग 1700 से 1100 ईसा पूर्व किया गया. उससे पहले वेद, पुराण और अन्य आध्यात्मिक ज्ञान तत्वों को मौखिक रूप से याद रखा जाता था और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता था. इस प्रक्रिया को श्रुति कहा जाता था. श्रुति दो प्रकार की होती थी. वैदिक श्रुति और तांत्रिक श्रुति. भारतीय उपमहाद्वीप में एक तरफ वैदिक श्रुति का दौर चल रहा था तो भारत के हिमालयी क्षेत्र में तांत्रिक श्रुति प्रैक्टिस में थी. उस समय हिमालयी क्षेत्र में कई हजार देवी देवता थे. हर क्षेत्र का अपना एक भुम्याल था, जिसे आज भी पूजा जाता है. स्थानीय लोग जब कभी किसी बीमारी या आपदा की चपेट में आते तो तंत्र-मंत्र की विद्या से उनका उपचार किया जाता. ऐसे कई लोग थे जो तंत्र मंत्र, जादू टोना और डेमोनोलॉजी की विद्या जानते थे. किसी इंसान पर मृत व्यक्ति की आत्मा को बुलाकर उसे नचाया जाता और फिर वो आत्मा आने वाली आपदा या संकट के बारे में बताती.’
ऐतिहासिक किताब ‘द आर्ट आफ तंत्र’ में लिखा गया है कि प्राचीन भारत में धर्म व भगवान की अवधारणा से बहुत पहले ही तांत्रिक क्रिया से दिवंगत आत्माओं के आवाहन करने की विद्या को साध लिया गया था. तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने का सिलसिला, वैदिक दर्शन के प्रचलन से लगभग पांच हजार साल पहले से भारतीय उपमहाद्वीप में व्यवहार में आ चुका था. यह भी माना जाता है कि तांत्रिक पूजा पद्धति के मूल में शक्ति या देवी थी. ‘तंत्रा – द इंडियन कल्ट ऑफ़ इस्टैसी’ के लेखक फिलिप रॉसन लिखते हैं, ‘देवी को मूल में इसलिए रखा जाता था क्योंकि मान्यता थी कि पुरूषों की तुलना में स्त्रियों की शारीरिक संरचना में आध्यात्मिक शक्ति ज़्यादा होती है. यही कारण है कि तांत्रिक अनुष्ठानों में नारी का स्वरूप सबसे ज्यादा दिखाई देता है. माना जाता था कि महीने के विभिन्न दिनों की ब्रह्मांडीय गतिविधियों का प्रभाव स्त्री की शारीरिक संरचना में अधिक परिलक्षित होता है. कहा जाता था कि महिलाओं के मासिक धर्म का समय, चांद के आकार के अनुरूप निर्देशित होता है. दूसरी ओर पुरूष की शारीरिक संरचना पर ब्रह्मांडीय गतिविधियों का प्रायः कोई प्रभाव नहीं होता है और वो सृष्टि सृजन प्रक्रिया में कम सहभागी होता है. जबकि नारी का शरीर सृजन काल चक्र के हर चरण के अनुसार अपने आप को बदलता है. इसलिए स्त्री को समय अर्थात् काल की देवी या काली भी कहा जाता है, जिसकी उपासना हजारों साल पहले से की जाती है. तंत्र विद्या में ये धारणा स्पष्ट है कि सृष्टि की उत्पत्ति के लिए जीवन का बीज दोनों, पुरूष व नारी में जन्मजात होता है, लेकिन स्त्रियों में वह अधिक परिलक्षित होता है इसलिए तंत्र साधना में उनकी अहम भूमिका है.’
उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों को अगर गौर से देखा जाए तो उनमें मैथुन क्रिया करती हुई आकृतियां आसानी से मिल जाती हैं. चंपावत के बालेश्वर मंदिर की दीवार पर उकेरी गई मैथुन प्रथा की आकृतियां हों, देवीधुरा वाराही देवी मंदिर परिसर का विशाल योनि मंडल हो या फिर अगस्त्यमुनि के फेगू गांव में मंदिरों की आकृतियां. ये सभी प्रमाण उत्तराखंड में बौन धर्म के स्पष्ट पदचिह्न दिखाती हैं.
बहरहाल, इस पूरे हिमालयी क्षेत्र में उस वक्त सबसे बड़ा समाज शैव था, जिसमें भगवान शिव की पूजा की जाती थी. शैव धर्म में भी सृष्टि की रचना अन्य तांत्रिक विद्या की तरह लिंग और योनि के बीच मैथुन से ही बताई गई है. ये भी कहा जा सकता है कि उस समय तांत्रिकों के भी तांत्रिक भगवान शिव थे. उन्हीं की तरह शक्ति यानी नंदा देवी की पूजा भी पूरे हिमालयी क्षेत्रों में वैदिक काल से भी बहुत पहले से की जा रही है.
शोधकर्ता एसएस पांगती बताते हैं कि आज हम जिन्हें शिव और शक्ति के रूप में पूज रहे हैं, ये दोनों आराध्य पहले बौन धर्म में भी पूजे जाते थे. तिब्बत में बौन धर्म के लोग इन्हें दूसरे नामों से पूज रहे थे और उत्तराखंड के पौन धर्म के लोग इन्हें शिव और शक्ति के नाम से पूजते थे. एसएस पांगती बताते हैं कि इस क्षेत्र में बौन या पौन धर्म के प्रमाण यहां की धार्मिक यात्राओं में आज भी देखे जा सकते हैं. वैष्णव परंपरा के अनुसार तो मंदिरों में परिक्रमा या धार्मिक यात्रा घड़ी की सुई की दिशा में यानी क्लॉकवाइज़ की जाती है. लेकिन बौन धर्म में ये यात्रा एंटी-क्लॉकवाइज़ होती है. अब अगर हम कैलाश मानसरोवर की यात्रा को ही देखें, तो वह भी एंटी-क्लॉकवाइज़ की जाती है.
कैलाश यात्रा मार्ग का उल्लेख स्कंद पुराण के मानस खंड के कूर्मांचल पर्व नाम के अध्याय 11 में दिया गया है. इसमें बताया गया है कि कैलाश यात्रा का मार्ग शारदा या काली नदी के किनारे होते हुए टनकपुर से लोहाघाट, सरयू नदी को पार कर पाताल भुवनेश्वर, रामगंगा नदी पार कर ध्वज मंदिर से काली व जौलजीबी होते हुए धारचुला, चौंदास और ब्यांस होते हुए कैलाश मानसरोवर पहुँचता है. वापसी में ये यात्रा राक्षस ताल, खोजरनाथ होते हुए नंदा पर्वत पहुंचती है, बद्रीनाथ के ब्रह्मकपाल में तर्पण देकर, वैजनाथ और वृद्धगंगा होते हुए ज्वाल्पा धाम में खत्म होती है. ये पूरी यात्रा एंटी-क्लॉकवाइज़ होती है. ठीक इसी तरह नंदा देवी राजजात यात्रा भी एंटी-क्लॉकवाइज़ आयोजित होती है. नंदा देवी की पूजा देव भूमि उत्तराखंड के चमोली, अल्मोड़ा, बागेश्वर तथा पिथौरागढ़ जनपदों के उस क्षेत्र में होती है, जो नंदादेवी पर्वत के शिखरों के चारों ओर फैला हुआ है.
इसमें एक दिलचस्प तथ्य और भी है जो नंदा राज जात यात्रा को तिब्बत से जोड़ता है. एसएस पांगती बताते हैं कि परंपरा के अनुसार नंदा देवी को चढ़ावा स्वरूप एक चार सींग वाला मेढ़ चढ़ाया जाता है. हर बारह साल में नंदा राज जात पूजा के अंत में दुर्गम हिमालय क्षेत्र में इसे ले जाया जाता है और नंदा देवी हिम शिखर की दिशा में जिंदा छोड़ दिया जाता है. ठीक इसी तरह यांग देवात्मा के आवाहन की पौन परंपरा तिब्बत में प्रचलित है. इसकी विस्तृत जानकारी जॉन विंसेंट बेलीजा की किताब ‘द एंसियंट सिविलाइजेसेन ऑन द रूफ ऑफ़ द वल्र्ड’ के अध्याय दस माई एंसिस्टर्स, माई गॉड – शांग शुंग एरिया में दी गई है. इस किताब में लिखा गया है कि तिब्बती परम्परा के अनुसार भी चढ़ावे में अर्पित किए जाने वाले मेढ़ा में चार सींग जैसी शारीरिक विशिष्टता होना अनिवार्य है. ऐसे पशु में देवीय गुणों को प्रकट होना माना जाता है.
पांगती बताते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि शिव और शक्ति की आराधना को आर्यों ने सनातन या हिंदू धर्म में अपनाया, लेकिन इसमें बौन तांत्रिक अनुष्ठानों को वे हिंदू परंपरा के अनुरूप संशोधित नहीं कर पाए. इसलिए कई तांत्रिक अनुष्ठान जैसे के तैसे हिंदू धर्म में भी शामिल कर लिए गए. एक और अहम कड़ी इन सभी बातों को आपस में जोड़ती है. हिंदू धर्म में स्वास्तिक चिन्ह बहुत महत्वपूर्ण होता है. इसी तरह बौद्ध धर्म में भी स्वास्तिक का निशान अहम है. दोनों दिखते भी एक जैसे ही हैं. दोनों ही धर्मों के स्वास्तिक की भुजाएं क्लॉकवाइज़ होती है. जबकि बौन धर्म में भी लगभग ऐसा ही निशान है, लेकिन उसकी दिशा वाम होती है. यानी स्वास्तिक की भुजाओं की दिशा से ठीक उलट, एंटी-क्लॉकवाइज़.
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, शिमला, सोलन, कुल्लू तथा मंडी क्षेत्रों के साथ ही हिमाचल से लगते हुए उत्तराखंड के देहरादून जनपद के जौनसार-बाबर, उत्तरकाशी के रवांई और टिहरी के जौनपुर क्षेत्रों में, जहां तंत्र मंत्र का प्रयोग अभी भी व्यवहार में लाया जाता है, विभिन्न धार्मिक कारणों के लिए विशिष्ट प्रकार की कुंडली का प्रयोग किया जाता है. इसे आम बोल-भाषा में सांचा कहा जाता है. हाथ से बने कागज में प्राचीन पावची, पंडवानी, चंदवानी अथवा भटटाक्षरी हस्तलिपि में लिखे ऐसे सांचे, क्षेत्र के कई घरों में तांत्रिक अनुष्ठानों में उपयोग के लिये कपड़े में लपेट कर सुरक्षित रखे जाते हैं. ऐसे साँचों को हिमाचल सरकार द्वारा आधुनिक पुस्तक के रूप में मुद्रित भी किया गया है. इन साँचों में अंकित स्वास्तिक की भुजाओं की दिशा भी एंटी-क्लॉकवाइज़ है.
ऐसा ही एक उदाहरण सीमांत पिथौरागढ़ के व्यांस क्षेत्र में भी मिलता है. यहां तिब्बत सीमा पर 12 हजार फीट की उंचाई पर बसे कूटी गांव के पूर्व में एक टीला है. इस टीले को कूटी-खर यानी गढ़ पांडव के रूप में जाना जाता है। इस टीले के तल पर दक्षिण की ओर एक गोलाकार पत्थर पर अज्ञात लिपि में अभिलेख खुदा हुआ है. स्थानीय लोग दावा करते हैं कि इस पर लिखे मंत्र देव आत्माओं ने खुद लिखे हैं. लेकिन वह देवात्मा कौन थे या मंत्र का क्या उच्चारण है, वे नहीं जानते. आभास होता है कि तिब्बती लिपि में मंत्र विद्या का मूल मंत्र ‘ओं मणिपद्मे हूं’ उकेरा गया है. मंत्र से पहले अंकित दो स्वास्तिकों की एंटी-क्लॉकवाइज़ खुदी भुजाएं ध्यान देने योग्य हैं.
गांव के पूर्व में निर्मित एक दीवार पर ‘ओं मणिपद्मे हूं’ मंत्र खुदे हुए पत्थरों के अतिरिक्त पारंपरिक उच्च-कुलीन तिब्बती वेशभूषा में सजे धजे मानव की आकृति भी उकेरी हुई दिखाई देती है. गांव के लोग बताते हैं कि ये राजा ‘शेंग-शेंग ग्याल्पो’ की खुदी हुई आकृति है. ग्याल्पो तिब्बती भाषा में राजा के लिए प्रयुक्त होता है. स्पष्ट होता है कि ये आकृति शां-शुं रियासत की थी, जो अब तिब्बत का हिस्सा है. लेकिन मानस खंड के अनुसार कभी ये भारत का हिस्सा था. वहां के राजा ग्याल्पो एक तांत्रिक राजा थे. उत्तराखंड क्षेत्र के मंदिर की दीवारों पर अक्सर उल्टी भुजाओं वाले स्वास्तिक दिख जाते हैं. अंत्येष्टि क्रिया में प्रयुक्त मिट्टी के छोटे पात्रों पर बने स्वास्तिक की भुजाएं भी उल्टी होती हैं.
अंत्येष्टि प्रक्रिया में होने वाला गाय दान भी हिंदू धर्म में बौन धर्म के अवशेषों का एक बड़ा संकेत देता है. अंत्येष्टि के दौरान गाय का दान इस विश्वास से संपन्न कराया जाता है कि दिवंगत आत्मा के स्वर्गारोहण के लिए सबसे कठिन पारलौकिक जलधारा, वैतरणी को पार करना गाय की पूंछ पकड़ के ही संभव है. ठीक इसी तरह तिब्बतीय पौन अंतेष्टि संस्कार में भी दिवंगत की आत्मा को नदी पार कराने के लिए चंवर गाय की अंतेष्टि वाहन के रूप में परिकल्पना की गई है. सीमांत चमोली जनपद के मलारी में अभी भी कई ऐसी इंसानी कब्रों के निशान मिलते हैं, जिनमें चंवर गाय के अर्पण किए जाने के साक्ष्य हैं. चमोली जिले के इस क्षेत्र में मिले प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों में मृत्तिका शिल्प के वैसे ही पात्र मिले हैं, जैसे उत्तरी तिब्बत के गुरग्याम के स्मारकों से प्राप्त हुए हैं.
बौन परम्पराओं की छाप हमारे लोक नृत्यों में भी देखी जा सकती है. तिब्बत, नेपाल, भूटान, पूर्वोत्तर, उत्तराखंड और हिमाचल के सीमावर्ती क्षेत्रों के सामाजिक और धार्मिक लोक नृत्य, गोल घेरे में सम्पन्न किए जाते हैं. इनमें सभी नर्तक बाएँ से दाहिनी ओर अर्थात घड़ी की उल्टी दिशा में गतिमान होते हैं. अमूमन इनमें स़्त्री-पुरूष ढोल या हुड़के की धुन पर गोल घेरा बना कर एंटी-क्लॉकवाइज़ बढ़ते हैं और कदमों की विभिन्न लय में लोक नृत्य करते हैं. इनमें से एक परंपरा उत्तराखंड की पांडव नृत्य शैली भी है, जिसमें महाभारत के पात्रों की आत्माओं का आवाहन किया जाता है. पांचों पांडवों और उनकी अर्धांगिनी द्रौपदी का देवता जिन लोगों पर आता है, उन्हें स्थानीय भाषा में पशुवा कहा जाता है.
ये पशुवा उल्टी दिशा में गतिमान होकर नृत्य करते हुए भविष्यवाणी करते हैं और भविष्य में सम्भावित घटनाओं के बारे में समाज को बताते हैं. पांडों नृत्य की तरह केदार नृत्य में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है. लोक परंपरा की अन्य विधाओं में ठड़िया, झुमैलो, चौफला, चम्फुली, बाजूबंद आदि लोक नृत्यों में भी उल्टी दिशा में ही नृत्य किया जाता है.
हिंदू धर्म की ही तरह बौध धर्म में भी पौन पद्धति के कई स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं. बल्कि बौध परम्परा का चर्चित मंत्र ‘ओम मणि पदमे हूं’ भी मूल रूप से बौन तांत्रिक अनुष्ठानों का सूत्र-पाती मंत्र है. इसमें ओम, सृष्टि की उत्पत्ति की मूल रहस्यमयी ध्वनि का प्रतीक है, जिस पर भारतीय तंत्र-मंत्र विद्या का नाद मुद्रा आधारित है. ओम के बाद मणि पदमे आता है, जिसका अर्थ कमल के मध्य, रत्न यानी मादा जननांग के मध्य नर जननांग है, जिसे सृजन शक्ति का मूल भी कहा जाता है. और ‘हूम’ मंत्र की शक्ति का कार्यरूप में परिवर्तित होने से उत्पन्न ध्वनि का द्योतक है. ये पूरी तरह से एक तांत्रिक अनुष्ठान का मंत्र है, जिसे सम्भवतः बाद में बौद्ध धर्म में शामिल कर लिया गया.
एसएस पांगती तो यहां बताते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे ओम को ॐ लिखने की परंपरा भी वामाचार तंत्र में प्रयुक्त उल्टी दिशा की भुजा वाले स्वास्तिक को, ध्वनि के प्रतीक रूप में, मंत्र से पहले लिखने की प्रथा से निकली है. यह संभव है कि प्रारंभ में वामाचार स्वास्तिक को ओम की ध्वनि के प्रतीक के रूप में अंकित करने की प्रथा थी. पुजारियों द्वारा मंत्र को घसीट में लिखने से स्वास्तिक का स्वरूप ॐ रूढ़ हो गया. लिहाजा, बदलती आकृतियों से वाम भुजा स्वास्तिक से ॐ अक्षर विकसित होने के क्रम को समझा जा सकता है. जबकि वैदिक हिंदू धर्म के स्वास्तिक चिन्ह से यह परिणाम मिलना संभव नहीं है.
कैलाश मानसरोवर यात्रा में भी बौन धर्म के कई प्रमाण मिलते हैं. महादेव शिव का घर कैलाश पर्वत कई धर्मों के लिए पूज्य है. इनमें मुख्य तौर पर हिंदू, बौद्ध, जैन और बौन धर्म है. कई इतिहासकार मानते हैं कि असल में कैलाश पर्वत पूर्व में बौन धर्म का ही मुख्य तीर्थ था. हजारों साल पहले जब तिब्बत में नेपाल की राजकुमारी के ज़रिए बौद्ध पुजारी आए तो उन्होंने धीरे धीरे बौद्ध धर्म का प्रचार करना शुरू किया. लेकिन बौन धर्म को मानने वालों को बौद्ध धर्म इसलिए पसंद नहीं आया क्योंकि उसमें तांत्रिक अनुष्ठान नहीं थे. इसीलिए तांत्रिक कर्मकांडों का घोर विरोधी होने के बावजूद नालंदा में तांत्रिक विभाग का गठन करना पड़ा. इसके बाद ही तिब्बत ने बौद्ध धर्म अपनाना शुरू किया. इस बारे में विस्तार से उल्लेख चीनी यात्री फाहियान ने भी किया है.
कुछ ऐसी ही समस्या हिमालयी क्षेत्र में वैष्णव धर्म की स्वीकार्यता को लेकर भी आई क्योंकि पहाड़ में रहने वाले आम लोग पौन परम्परा के तांत्रिक अनुष्ठान छोड़ने को तैयार नहीं थे. लिहाजा, हिंदू धर्म ने धार्मिक गठबंधन करते हुए तय किया कि लोग अपने तांत्रिक अनुष्ठानों को भी मानें और वैदिक परंपराओं को भी. यही कारण है कि आज भी उत्तराखंड में लोग अपने भूम्याल भी नचाते हैं, एक दूसरे पर दोष भी लगाते हैं, प्रकृति को भी पूजते हैं तो दूसरी तरफ हिंदू देवी-देवताओं को भी वैदिक अनुष्ठानों के ज़रिए पूजते हैं.
उत्तराखंड के तो कई जागरों में भी पौन धर्म का जिक्र देखा जा सकता है. एसएस पांगती अपनी किताब के खंड तीन में लिखते हैं कि उत्तराखंड में शक्ति को मुख्य रूप से नंदादेवी के स्वरूप में पूजे जाने की परंपरा है. लोक परंपरागत नंदादेवी जागर गीतों में, पौन शब्द कई बार दुहराया जाता है. जैसे:
तब ब्रहा ले पौन चढ़ाओं,
मनखे मनखे धात लगाई,
तब मनखे ले बाज दिलाई.
इसी तरह एक दूसरा जागर है:
एखुटी भेर ए खुटी मितर,
देली माग पौन उड़ी गया.
पांगती बताते हैं, ‘ये संभव है कि पौन प्रथा की उत्पत्ति वैदिक कालीन सिंधु घाटी सभ्यता की देवात्माओं की प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान से हुई हो. जबकि पौन शब्द की उत्पत्ति प्राण पानौ की अवधारणा से हुई हो. प्राण पानौ उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें मृत व्यक्ति के प्राण व आत्मा को आवाहन कर जिंदा इंसान के शरीर अथवा किसी वस्तु में अवतरित कराने का तांत्रिक अनुष्ठान किया जाता है. संभव है कि प्राण या आत्मा को इंसानों में अवतरित किए जाने की इस परंपरा से ही देवताओं व धर्म गुरुओं के अवतार की परंपरा भारत में पड़ी हो. उत्तराखंड की जागर परंपरा के अनुसार, पहाड़ी समाज में दिवंगत आत्मा का आहवान कर, तंत्र विद्या के अनुष्ठानों को संपन्न किए जाने का प्रचलन था, जो अब भी एक सीमा तक प्रचलन में है. तंत्र विद्या में दक्षता पाने के लिए, आज भी उत्तराखंड के उच्च हिमालय की एकांत कन्दराओं में कई साधु तपस्या करते हैं और साधना की इस विद्या को ‘प्राणौ’ की साधना नाम से संबोधित किया जाता है.
बौन धर्म का जिक्र आता है तो तिब्बत इसका एक अहम केंद्र माना जाता है. लेकिन कई लोग ये भी मानते हैं कि ये धर्म भारत से ही तिब्बत की ओर गया है. तिब्बतोलॉजी के विशेषज्ञ एसएस पांगती बताते हैं कि बौन प्रथा के बारे में प्रसिद्ध खोजी डेविड स्नेल ग्रोव समेत कई अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक ये मानते रहे हैं कि तिब्बत का शां-शुं क्षेत्र बौन परंपरा की उत्पत्ति का केंद्र रहा है. जबकि अब कई रिसर्च के बाद ये बात सामने आई है कि इसका प्रसार तिब्बत में भारत से ही हुआ है.
असल में, सातवीं सदी ईसा पूर्व शां-शुं क्षेत्र तिब्बत का अंग नहीं था. अमेरिकन शोधकर्ता और इतिहासकार डा डेविड फ्रौले अपनी किताब ‘एराइज अर्जुना’ में लिखते हैं कि शां-शुं तिब्बत का अंग न होकर एक विदेशी राज्य था. जबकि उससे लगता हुआ कैलाश मानसरोवर क्षेत्र भारत का अंग था. महाभारत में भी इसका जिक्र मिलता है कि शां-शुं क्षेत्र को अर्जुन ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का अनुपालन करते हुए पूरी तरह से जीत लिया था. डेविड फ्रौले ने खोज कर ये बताया था कि सुम्पा, आशा और मीन्याक राज्य की तरह शां-शुं क्षेत्र भी तिब्बत का अंग नहीं था और वहाँ प्रचलित बौन परंपरा भारतीय धार्मिक पंथो से ही प्रेरित एक प्रथा थी.
चीन की सीमा पर स्थित कुम्बुम गोंपा के एक अवतारी लामा जिग्मे नोर्बू, जो वर्तमान तिब्बती धर्म गुरू दलाई लामा के सबसे बड़े भाई हैं, उन्होंने कहा है कि आध्यात्मिक तथा बौद्धिक मार्गदर्शन के लिए तिब्बत चीन से कहीं अधिक भारत की ओर देखता था, जहां तंत्र-मंत्र की विकसित परंपरा थी. इसमें, तिब्बत की बौन प्रथा की तरह यह विश्वास किया जाता था कि उचित मानसिक अनुशासन से दैवीय शक्तियां हासिल करना संभव है.
बौन प्रथा के कई शोधकर्ताओं का ये मानना है कि इस पंथ की अनेक धार्मिक परम्पराएँ और ग्रंथ कश्मीर से शां-शुं होते हुए मध्य तिब्बत पहुंची. इतिहासकार डा डेविड स्नैल ग्रोव अपने शोधपत्र में लिखते हैं कि बौन धर्म के भारत से तिब्बत पहुंचने की बात पर ही वहां के प्रथम राजा को पांडवों के वंश से जोड़ने की परंपरा है. तिब्बत के प्राचीन अभिलेखों में भी वहां के प्रथम राजा रूपति के पांडव वंशी होने का उल्लेख मिलता है.
‘द आर्ट ऑफ़ तंत्र’ के लेखक इतिहासकार फिलिप रॉसन लिखते हैं, ‘यहां तक कि तिब्बत का सबसे कठोर ‘छ्वे‘ तांत्रिक अनुष्ठान, जिसमें अपने शरीर के अंगों का विच्छेदन कर आराध्यदेव को अर्पण करने की परंपरा है, इसमें भी भारतीय सांस्कृतिक तत्व होने की पुष्टि की गई है.’ इससे भी दिलचस्प है कि बहु चर्चित तिब्बती बौन धार्मिक ग्रंथ ‘लू-बूम‘ का हिंदी अर्थ नाग शास्त्र संग्रह है. एसएस पांगती बताते हैं कि इस धर्म ग्रंथ में तिब्बती भाषा में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि बौन परपंराओं के अनुसार, तिब्बत का आदि मानव भूमिगत जल में निवास करने वाले नाग देवता के वंशज हैं. इसमें जिक्र है कि जब नाग देवता इंसानों से रुष्ट हो जाते हैं तो वे समाज में रोग या महामारी फैला देते हैं. ऐसी विभीषिकाओं से बौन तांत्रिक ही चमत्कारी आकाश की गौर वर्णीय महारानी और आकाश के महाराजा का आवाहन कर मानव समाज का उपचार कर सकता है. बौन धर्म ग्रंथ लू-बूम में ऐसी दंत-कथा का भी जिक्र है जिसमें सोने के कछुए के छह अंडो से ब्राहाण्ड के सृजन और नाग वंश की छह जातियों की उत्पत्ति की बात कही गई है. ऐसी ही एक दंत कथा भारत में विनता पुत्र गरूड़ व कद्रू पुत्र नागों की पुराकथा पर आधारित है. विशेषज्ञों की राय में इस प्रकार से दुनिया की उत्पत्ति के अनेक संदर्भ भारत के शास्त्रों में भी मिलते हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ब्राहाण्ड उथल पुथल से सृजन शक्ति के अभ्युदय का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है.
पांगती कहते हैं कि जब भारत में वैदिक काल से पहले के बेहद कठिन तांत्रिक अनुष्ठानों को संशोधित कर शक्ति व शैव पूजा पद्धति व्यवहार में लाई गई, उसी समय तिब्बत में प्रचलित बौन प्रथा भी इससे प्रभावित हुई. ‘तिब्बत-द लैंड ऑफ स्नो’ के लेखक गायसोपे तूची लिखते हैं कि बौन प्रथा के ज्ञात संस्थापक मीवो शेनरप को पश्चिमी तिब्बत का मूल निवासी होने का दावा किया जाता है. जबकि ऐतिहासिक अभिलेखों में उसके भारतीय उप महाद्वीप व ईरान की सीमा में स्थित गुर्णावत्रा का निवासी होने के संदर्भ मिलते हैं. इसी मीवो शेनरपा ने बौन अनुष्ठानों में आठवीं सदी में सुधार किए थे. तिब्बत, विशेषकर पश्चिमी तिब्बत का ईरान से भी सांस्कृतिक संबंध पौराणिक काल से है.
बहरहाल, ये तो हुई उस ऐतिहासिक बौन धर्म की कहानी, जो कभी पूरे हिमालय क्षेत्र का एक बड़ा धर्म था और जिसके निशां आज भी उत्तराखंड में कई जगह दिखते हैं. हालाँकि उन्हें स्पष्ट तौर से पहचान पाना आज बेहद मुश्किल हो गया है. लेकिन अगर आप किसी ऐसे बौन मंदिर में जाना ही चाहते हैं तो एक जगह है. ये है हिमाचल के सोलन जिले का एक मठ. ये दुनिया का दूसरा सबसे पुराना बौन मैनरी मठ है. इसे युंग डंग लिंग भी कहा जाता है. इस मठ में भगवान शेरनॉब मिवॉचे की विशाल मूर्ति है. दिखने में ये आपको बिल्कुल किसी बौद्ध मठ की तरह ही लगेगा, लेकिन जब शाम को भिक्षु प्रार्थना करने जुटेंगे तो इसकी परिक्रमा दक्षिणावर्त यानी उल्टी दिशा से होती जरूर दिख जाएगी. जबकि बौद्ध मठों और या हिंदू मंदिरों में ये परिक्रमा सीधी दिशा से होती है.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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