प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी इस उत्तराखंड यात्रा में ‘आदि कैलाश’ पहुंचे, महादेव के दर्शन किए और पूजा अनुष्ठान में भाग लिया. यहीं से पीएम मोदी ने उस कैलाश पर्वत व्यू प्वाइंट का भी उदघाटन किया जिसकी चर्चा बीते लम्बे समय से होती आ रही है. प्रधानमंत्री मोदी के यहां पहुंचने के साथ ही पिथौरागढ़ की व्यास घाटी के शौका जनजाति के लोगों में उम्मीद जगी है कि अब उनका क्षेत्र भी पर्यटन के लिहाज से बेहतर होगा और उनकी आर्थिकी के नए स्रोत खुलेंगे. अभी तक इस क्षेत्र में हर साल मई से अक्टूबर तक सिर्फ़ सौ – डेढ़ सौ पर्यटक या श्रद्धालु ही पहुँचते थे. लेकिन अब उम्मीद बन रही है कि इनकी संख्या कई गुना बढ़ सकती है. वो इसलिए भी क्योंकि अब यहां तक सड़क मार्ग भी बन गया है और रहने के लिए उम्दा होम-स्टे भी खुलने लगे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के यहां पहुँचने से व्यास घाटी के लोगों को दो फायदे मिले. पहला तो यहां सड़क का नेटवर्क बनना तैयार हुआ. सड़क न होने के कारण यहां से न केवल पलायन बहुत बढ़ गया था, बल्कि सेना को भी सीमा तक रसद और हथियार पहुंचाने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था. केंद्र सरकार की वाइब्रेंट विलेज योजना के तहत उत्तराखंड के सीमांत गांवों तक सड़कें पहुंचाई जा रही हैं. इसी योजना के तहत उत्तरकाशी और चमोली जिले में तो सड़क का पूरा नेटवर्क तैयार हो गया है लेकिन पिथौरागढ़ की व्यास घाटी अब तक अछूती ही थी. उधर लिपुलेख दर्रे से महज तीन किलोमीटर बाद, जहां चीन की चौड़ी सड़कें कई साल पहले से तैयार थी, वहीं भारत इस मोर्चे पर काफी पिछड़ा हुआ था. लेकिन अब भारत भी सामरिक महत्व की इन सड़कों के जाल को मज़बूत करने लगा है. इस सड़क के बनने से पर्यटक अब आदि कैलाश और ओम पर्वत तक आने लगे हैं और लगभग हर गांव में होम स्टे भी खुल रहे हैं जो युवाओं को उनके घर में ही रोजगार देने के लिए अहम है. वाइब्रेंट विलेज योजना का दूसरा बड़ा फायदा ये हुआ है कि यहां के गांव मोबाइल नेटवर्क से जुड़ गए हैं. अभी तक पूरी व्यास घाटी में मोबाइल नेटवर्क काम तो करता था, लेकिन ये नेटवर्क भारत का नहीं, बल्कि नेपाल का होता था. लोगों को धारचुला में नेपाल का सिम लेना होता था जबकि भारतीय नेट्वर्क अक्सर इंटरनैशनल रोमिंग पर चला जाता था. लेकिन अब इस पूरे इलाके में एक भारतीय निजी कंपनी के मोबाइल टावर लग गये हैं.
पीएम मोदी के आदि कैलाश आने के कारण भू-राजनीतिक भी हैं. वो कारण क्या हैं, इसे समझने से पहले इस इलाके के भूगोल को विस्तार से समझ लेते हैं. आदि कैलाश उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ में तिब्बत सीमा से महज कुछ ही दूरी पर है. इसे छोटा कैलाश भी कहा जाता है. छोटा इसलिये क्योंकि बड़ा कैलाश यानी कैलाश मानसरोवर तिब्बत में मौजूद है और आदि कैलाश से उसकी दूरी भी ज्यादा नहीं है. लेकिन आदि कैलाश और कैलाश मानसरोवर के बीच भारत – चीन का बार्डर है इसलिए कैलाश की यात्रा में कई तरह की दिक़्क़तें हैं जिनमें सबसि बड़ी दिक़्क़त चीन का रवैया है.
असल में आदि कैलाश पिथौरागढ़ की जिस व्यास घाटी के अंतिम छोर पर मौजूद हैं, वहीं से ही एक रास्ता नाबीढांग होते हुए मानसरोवर के लिए भी जाता है. इसी रूट से थोड़ा पहले गूंजी गांव होते हुए साल 2019 तक कैलाश मानसरोवर की यात्रा कुमाउं मंडल विकास निगम आयोजित करता था. भारत से कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए तीन रास्ते हैं. एक है नेपाल के रास्ते, दूसरा सिक्कम के और तीसरा उत्तराखंड की इसी व्यास घाटी से होते हुए. हालाँकि धार्मिक रूप से सबसे प्रमाणिक यात्रा उत्तराखंड से ही मानी गई है. कैलाश यात्रा मार्ग का उल्लेख स्कंद पुराण के मानस खंड के कूर्मांचल पर्व नाम के अध्याय 11 में दिया गया है. इसके अनुसार, ये यात्रा उत्तराखंड से ही की जानी चाहिए. लेकिन साल 2019 के बाद चीन ने उत्तराखंड ही नहीं बल्कि नेपाल और सिक्किम से भी इस धार्मिक यात्रा पर रोक लगा दी. तब से ही शिव भक्त निराश थे और कई बार भारतीय अधिकारियों द्वारा चीन से वार्ता करने के बाद भी जब कैलाश मानसरोवर की यात्रा को मंज़ूरी नहीं मिली तो फिर आदि कैलाश को ही नया ‘रिलिजियस डेस्टिनेशन’ बनाने का प्लान तैयार हुआ. वैसे भी धार्मिक ग्रंथ आदि कैलाश को उतनी ही मान्यता देते हैं, जितनी कैलाश मानसरोवर को. इसके पीछे भौगोलिक कारण भी हैं. असल में, तिब्बत में मौजूद कैलाश पर्वत की जैसी बनावट है, बिल्कुल वैसी ही बनावट आदि कैलाश की भी है. जैसे कैलाश पर्वत के इर्द गिर्द मानसरोवर और राक्षस ताल नाम के दो सरोवर हैं ठीक उसी तरह आदि कैलाश के इर्द गिर्द पार्वती कुंड गौरी कुंड नाम के दो ताल हैं. इसी पार्वती कुंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिव आरती की और कुछ इसके किनारे बैठकर ध्यान लगते हुए उनकी तस्वीरें भी सामने आई हैं.
इस पूरे क्षेत्र को शिव का निवास माना गया है. धार्मिक मान्यताओं से इतर यहां ऐसे नज़ारे भी मिलते हैं जो यहां पहुँचने वाले लोगों को अचंभित करते हैं. ऐसा ही एक आश्चर्य ओम् पर्वत भी है जो देश-दुनिया के फोटो ग्राफर और जियोलॉजिस्ट्स को अपनी ओर खींचता है. नाबीढांग में लिपू-लेख दर्रे के मार्ग पर, जहां से तिब्बत के लिए कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी होती थी, उसी के ठीक सामने खड़ा है ये पर्वत है जिसके टॉप पर ओम की आकृति साफ साफ दिखती है. ओम को सृष्टि की आदि ध्वनि और हिंदू आस्था का सार माना जाता है. यह बौद्धों और जैनियों द्वार ज्ञान और शांति के प्रतीक के रूप में भी पूजनीय है.
आगे बढ़ने से पहले आपको ये बता दें कि अगर आप भी यहां आना चाहते हैं तो कैसे पहुंच सकते हैं. आदि कैलाश और ओम पर्वत पहुंचने के लिए आपको सबसे पहले उत्तराखंड के सीमांत ज़िले पिथौरागढ़ पहुंचना होता है. पिथौरागढ़ से लगभग 100 किलोमीटर दूर है काली नदी के किनारे बसा खूबसूरत क़स्बा धारचुला. ये कस्बा आधा भारत में है और आधा नेपाल में. यहां पर दोनों देशों के बार्डर को काली नदी विभाजित करती है. भारत वाले भाग को धारचुला कहते हैं और नेपाल वाले हिस्से को दारचुला. बोलने में बस धा और द का फर्क है.
धारचुला से आगे व्यास घाटी में आदि कैलाश और ओम पर्वत की ओर जाने के लिए एसडीएम कार्यालय से इनर लाइन परमिट हासिल करना होता है. इस परमिट के लिए आपको पहले वहां के सरकारी अस्पताल में अपना स्वास्थ्य परीक्षण कराना होता है और डाक्टरों द्वारा फिट करार देने के बाद भी आपको परमिट दिया जाता है. यहां पर स्वास्थ्य परीक्षण इसलिए किया जाता है, क्योंकि यहां से आपका आगे का सफर हाई एल्टीटयूड में होता है, जहां सांस लेने में खासी दिक्कत हो सकती है.
दो साल पहले धारचुला से आगे का सफर पैदल ही किया जाता था. लेकिन अब बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन यानी बीआरओ ने यहां पर पहाड़ काट कर सड़क बना दी है. लेकिन अभी वो इतनी बुरी हालत में है कि धारचुला से केवल फ़ोर बाई फ़ोर वाहन से ही आगे जाया जा सकता है. यहां से लगभग 15 किलोमीटर आगे तवाघाट है जो कि दो अलग-अलग घाटियों का प्रवेश द्वार है. यहीं पर काली नदी और धौली गंगा का संगम भी है. धौली गंगा जिस घाटी से आती है, वो कहलाती है दारमा और काली नदी जहां से आती है उसे कहते हैं व्यास घाटी. आपको व्यास घाटी में काली नदी के किनारे-किनारे ही चलना है और धारचूला से 70 किलोमीटर दूर गूंजी गांव पहुंचना है. गूंजी गांव ही आदि कैलाश और ओम पर्वत का बेस है. यहां पर आपको आगे के सफर से पहले एक रात गुजारनी होगी. गूंजी और उसके पास ही मौजूद नपल्च्यू गांव में होम स्टे आपको आसानी से मिल जाएंगे. गूंजी से फिर दो रास्ते जाते हैं. एक 19 किलोमीटर दूर कालापानी होते हुए पहुँचता है नाबीढांग, जहां से ओम पर्वत साफ-साफ देखा जा सकता है. नाबीढांग से महज सात किलोमीटर आगे ही ओल्ड लिपुलेख पास है. ये लिपुलेख ही अब भारत और चीन के मध्य एलएसी यानी लाइन ऑफ एक्चुएल कंट्रोल है. ये ही वो रास्ता भी है, जहां से कैलाश मानसरोवर की यात्रा होती थी. इसी लिपुलेख दर्रे से करीब आधा किलोमीटर का पैदल ट्रेक है जहां से तिब्बत में मौजूद कैलाश पर्वत के दर्शन होते हैं. लेकिन इस दर्शन के लिए आपको गूंजी गांव से सुबह पांच बजे चलना होगा ताकि नौ बजे तक यहां पहुंच सकें. उसके बाद यहां बादल लगने के चलते दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं. यही वो जगह है जहां भारत सरकार कैलाश मानसरोवर व्यू प्वाइंट भी बना रही है, ताकि जिन लोगों को कैलाश पर्वत के दर्शन करने हों, वो यहां से कर सकें. आदि कैलाश पहुंच कर प्रधानमंत्री मोदी ने इसी कैलाश पर्वत व्यू प्वाइंट का उदघाटन किया है जो सम्भवतः अगले साल तक पर्यटकों के लिए खोल दिया जाएगा.
नाबीढांग से वापस गूंजी लौटने के बाद पूर्वी दिशा में एक और रास्ता जाता है जो 35 किलोमीटर लंबा है. इस सड़क पर गुजरने के दौरान आपको सुखद आश्चर्य होगा, क्योंकि यहां सड़क पूरी तरह से पक्की है. 35 किलोमीटर चलने के बाद आता है जौलीकॉन्ग, जो आदि कैलाश का बेस-कैंप है. यहीं से आपको आदि कैलाश दिखने लगेगा, लेकिन आनंद तभी है, जब आप पार्वती कुंड तक जाएं और उस पर आदि कैलाश की परछाई देख कर अभिभूत हो सकें. कुछ साहसी लोग यहां से दो किलोमीटर और ऊपर जाकर 18 हजार 28 फीट ऊँचाई वाले सिनला दर्रे को पैदल पार करते हैं और दूसरी तरफ़ बसी दारमा घाटी में उतर जाते हैं.
व्यास और दारमा घाटी में कौन लोग रहते हैं, यहां का इतिहास क्या है और यहां के सामाजिक – धार्मिक रीति रिवाज कैसे हैं, इसे समझने के लिए आप बारामासा की हाईलैंडर्स सिरीज़ का ये कार्यक्रम देख सकते हैं. आपकी सुविधा के लिए लिंक नीचे डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.
अब बात करते हैं प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के राजनीतिक और सामरिक पक्ष पर. विशेषज्ञों के अनुसार, साल 2019 से ही भारत और चीन के बीच उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रे से होने वाला कारोबार बंद है. ऐसे में चार साल पहले चीन गए 45 भारतीय व्यापारियों का डेढ़ करोड़ से अधिक का सामान ताकलाकोट मंडी में ही फंसा हुआ है. भारतीय व्यापारी भी अब अपने सामान को सकुशल वापस पाने की उम्मीद छोड़ चुके हैं. वहीं इस कारोबार में शामिल 13 गांव के चार सौ से अधिक व्यापारियों की आजीविका भी प्रभावित हो रही है.
भारत और तिब्बत के बीच लिपुलेख दर्रे से होने वाले कारोबार का इतिहास छटी सदी तक जाता है. 1958 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद इस कारूबार को समय-समय पर प्रतिबंध झेलना पड़ा. गलवान में भारत और चीन के बीच हुए सीमा विवाद और कोरेाना की सख्ती के बाद से दोनों देशों ने सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इस दर्रे से होने वाले कारोबार को बंद करवा दिया. साल 2019 तक भारतीय व्यापारी चीन की ताकलाकोट मंडी में अपना सामान बेचने हर साल ही ज़ाया करते थे.
इस व्यापार को करने वाले व्यापारी सीमा कारोबार खुलवाने के लिए कई बार सरकार से वार्ता कर चुके हैं. पर भारत चीन के बीच लिपुलेख दर्रे से होने वाले कारोबार को इजाजत नहीं मिल पा रही. ऐसे में व्यापारियों का डेढ़ करोड़ से अधिक का नुकसान जो नुक़सान हुआ है उसकी भरपाई की उम्मीद आदि कैलाश में पर्यटन की बढ़ती सम्भावनाओं से हो सकती है. दूसरा, अभी तक जहां कहीं भी भारत की सीमा चीन से लगती है, वहां से बहुत दूर तक आम इंसानों की आवाजाही प्रतिबंधित रही है. लेकिन अब चीन की सीमा के बिलकुल नजदीक तक पर्यटक जा सकेंगे. इसे सामरिक दृष्टि से एक बड़ा कदम माना जा रहा है जो वहीं चीन के वर्चस्व पर सेंध भी लगता है और भारत की ओर से होने वाली कैलाश मानसरोवर धार्मिक यात्रा के बंद होने से भारत पर बने दबाव को कम भी करता है. आदि कैलाश आम लोगों के लिए सुलभ हो जाने के ऐसे ही दूरगामी परिणाम देखे जा रहे हैं.
रिपोर्ट: मनमीत
© Copyright baramasa.in