साल था 1990 और लोग एक फिल्म से ज़्यादा उसके एक गाने का इंतज़ार कर रहे थे. फ़िल्म का नाम था रैबार और गीत था ‘मन भरमैगे मेरी, सुध-बुध ख्वेगे.’ इंतज़ार होता भी क्यों नहीं. आखिरकार इस गढ़वाली गीत को गाया था भारत रत्न लता मंगेशकर ने.
साल 1987-88 की बात है. सोनू पंवार के निर्देशन में बनी फ़िल्म रैबार की रिकॉर्डिंग के लिए मुंबई में एक स्टूडियो बुक किया गया. यहां कभी-कभी लता ताई भी रियाज़ के लिए आती थी. जब रैबार फिल्म की टीम को ये पता चला, तो उनके मन में एक मासूम सी ख्वाहिश जगी. ख्वाहिश थी लता जी से अपनी फिल्म का एक गाना गंवाने की.
गाने के लिरिसिस्ट देवी प्रसाद सेमवाल थे. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि किस तरह उनकी लता ताई से भेंट हुई. ये लोग मुंबई के एक स्टूडियो में उन दिनों रिकॉर्डिंग कर रहे थे. इसी बीच स्टूडियो के मालिक ने एक दिन इन्हें बताया कि लता मंगेशकर भी कभी-कभी इस स्टूडियो में आती हैं. ये सुनकर पूरी टीम की आंखें चमक गई और उन लोगों ने स्टूडियो के मालिक से कहा कि वे एक बार लता जी से बात करें कि क्या वे उनकी गढ़वाली फिल्म के लिए भी गाना गाएंगी.
स्टूडियो के मालिक ने इनकी बात मान ली और इनसे वादा किया कि वे लता जी के सामने ये प्रस्ताव जरूर रखेंगे.
लता ताई तक प्रस्ताव पहुंचा तो उन्होंने रैबार फ़िल्म की टीम को अपने घर बुलाया. फिल्म के गीतकार देवी प्रसाद सेमवाल ने यहां लता जी को गाने के पूरे बोल सुनाए और उनका मतलब भी समझाया. गाना सुनते ही लता जी ने तुरंत हामी भरी और कहा कि आपने बहुत सुंदर लिखा है और मैं इसे जरूर गाऊंगी. हालांकि, भाषाई सीमाओं को ध्यान में रखते हुए गाने के बोल में थोड़े फ़ेरबदल किए गए. मसलन, बांसुली शब्द को बांसुरी किया गया. क्योंकि गढवाली में ‘ल’ स्वर का उच्चारण काफी मायने रखता है और अच्छे-ख़ासे पहाड़ी भी इसके सही उच्चारण में उलझ जाते हैं. लता जी को उसपर खास मशक्कत न करनी पड़े, इसलिए बांसुली को बांसुरी कर दिया गया.
इस गाने को रिकॉर्ड करने का दिन आया तो रैबार की पूरी टीम के पेट में मानो बकरे कूदने लगे. उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी. आखिर होती भी क्यों न, उनका गाना गाने खुद लता मंगेशकर आ रही थी. लेकिन लता जी जब पहुंची तो महज़ 5 मिनट में ही उनके व्यक्तित्व ने सबको सहज कर दिया. टीम को लगा मानो लता मंगेशकर उन्हीं की टीम की एक सदस्य हैं.
इसके बाद, संगीतकार कुंवर बावला के साथ लता जी ने धुन पर रियाज़ किया और 2-3 घंटे ही में इस 6 मिनट के गाने की रिकॉर्डिंग पूरी हो गई.
इस गीत के साथ एक और दिलचस्प बात जुड़ी है. रिकार्डिंग खत्म होने के बाद जब लता मंगेशकर को निर्माता किशन पटेल ने एक चैक दिया तो उन्होंने इसे ख़ुद न लेकर बच्चों की एक संस्था को डोनेट करवा दिया. इसके बारे में संगीतकार कुंवर बावला ने एक इंटरव्यू में बताया कि फीस कितनी थी, इसकी तो हमें जानकारी नहीं लेकिन लता दी ने वो चैक ख़ुद न लेकर एक संस्था को डोनेट कर दिया था.
लता मंगेशकर के इस गढ़वाली गीत की तब इतनी चर्चा थी कि जब फिल्म रिलीज़ हुई तो कई लोग सिर्फ़ इसी गीत को सुनने के लिए सिनेमाघरों में पहुंचे.
लता जी के गाए इस गीत को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए पांच साल पहले हिमालयन फिल्म ने भी इस गीत को नए लोक कलाकारों के साथ फिल्माया और यूट्यूब में रिलीज किया.
वैसे उत्तराखंडी गीतों पर बॉलीवुड सिंगर्स के नामों में सिर्फ़ लता जी का ही नाम नहीं है. बल्कि, उनकी छोटी बहन आशा भोंसले ने भी गढ़वाली गीत गाए हैं. आशा ताई और गढ़वाली गानों का किस्सा भी बड़ा प्यारा, लेकिन इंतज़ार भरा है.
ये करीब 1989 की बात होगी. आशा भोंसले ने फिल्म ‘ग्वेर छोरा’ के लिए एक दर्द भरा गीत रिकॉर्ड किया जिसके बोल थे ‘जन्मों कू साथ छे’. हालांकि, बाद में इस फिल्म का नाम ‘जन्मों कू साथ’ हो गया.
इस फ़िल्म के संगीतकार थे कैलाश थलेड़ी जो एक बेहतरीन गायक भी थे. कैलाश जी लंबे समय से मुंबई में रह रहे थे और वहीं इस फ़िल्म के गीतों पर दिन-रात एक करके काम कर रहे थे. फ़िल्म के गीत जब तक बन कर तैयार हुए तो कैलाश जी के अंदर एक मासूम सी ख्वाहिश भी पनप चुकी थी. ख्वाहिश थी आशा ताई से एक गाना गंवाने की. उनके मन में हमेशा से ये सपना था कि अगर उन्हें संगीत निर्देशन का अवसर मिला, तो वे आशा जी से एक गाना ज़रूर रिकॉर्ड कराएंगे. हालाँकि ये सपना इतना आसान भी नहीं था लेकिन कहते हैं न जहां चाह, वहां राह.
उन दिनों आशा भोंसले कई क्षेत्रीय भाषाओं में गीत गा रही थीं और दिलचस्पी ले रही थीं. उनकी इस दिलचस्पी में कैलाश थलेड़ी जी को अपना सपना जीता हुआ दिखने लगा. और फिर एक दिन वे सह-निर्देशक बसंत घिल्डियाल के साथ प्रभु कुंज भवन यानी आशा भोंसले के घर जा पहुंचे.
कमाल की बात यह है कि उनके पास कोई अपॉइंटमेंट नहीं था. लेकिन उनके मन में उम्मीद थी और उम्मीद का ही जादू था कि आशा भोंसले से उनकी भेंट हो गई.
इस मुलाकात में कैलाश जी और बसंत जी ने उन्हें बताया कि वे बद्री-केदार के धाम उत्तराखंड से आए हैं. बद्री-केदार का नाम सुनते ही आशा जी की आँखें चमक उठी और उन्होंने फिल्म में एक गीत गाने के लिए हामी भरी. कैलाश जी और बसंत जी को यकीन ही नहीं हुआ कि आशा भोंसले उनका गाना गाने के लिए मान गई. उनकी ख़ुशी का मानों ठिकाना नहीं रहा लेकिन एक चिंता उनके मन में अब भी गहराए हुए थी. ये चिंता थी आशा जी की फ़ीस.
उस समय आशा भोंसले जैसी कामयाब गायिका की फ़ीस बहुत ज़्यादा थी. इतनी कि कैलाश थलेड़ी और बसंत घिल्डियाल बड़े पशोपेश मे थे कि उन्होंने ऐसा सपना देखा ही क्यों. बेहद झेंपते हुए उन्होंने आशा भोंसले से पूछा कि मैडम आपकी फ़ीस क्या होगी? ज़रा सोचिए कि आशा जी ने क्या कहा होगा? उन्होंने कहा, ‘बद्री-केदार से आने वालों से मैं भला फ़ीस कैसे ले सकती हूँ.’ इसके बाद बिना एक पैसा लिए आशा ताई ने फिल्म के लिए गाना रिकॉर्ड किया.
हालाँकि इसमें भी एक पेंच आया. आशा जी की व्यस्तता के कारण गाने की रिकॉर्डिंग कुछ देरी से हुई. आशा जी का रुतबा देखते हुए फिल्म के निर्माता ने मुंबई में एक महंगा स्टूडियो बुक किया था जिसकी उस वक्त डेढ लाख रुपया फीस थी. कुछ घंटों में यह इकलौता गाना रिकॉर्ड हुआ. आगे चलकर ये फिल्म तो नहीं चल पाई लेकिन गढ़वाली गीतों में आशा जी की आवाज़ हमेशा के लिए दर्ज हो गई.
एक मज़ेदार बात ये भी है कि उत्तराखंड की जो पहली गढ़वाली फ़िल्म बनी, उसमें भी बॉलीवुड के ही दिग्गज गायकों ने अपनी आवाज़ दी थी. इस फ़िल्म का नाम था ‘जग्वाल और इसमें उदित नारायण और अनुराधा पौडवाल ने गीत गाए थे. इसी फ़िल्म में एक गीत आशा भोंसले ने भी गाया था लेकिन कुछ कारणों से उस गीत को फिल्म में शामिल नहीं किया गया. ये वाकया भी अपने आप में बेहद दिलचस्प है.
हुआ यूं कि एक गीत के लिए ‘जग्वाल’ फिल्म के प्रोड्यूसर पाराशर गौड़ मुम्बई गए और उन्होंने आशा भोंसले से एक गीत रिकॉर्ड भी करवा लिया. इसके लिए उन्होंने तब दस हज़ार रूपए फ़ीस ली थी. लेकिन ये गाना गढ़वाली में नहीं बल्कि हिन्दी में था और इसीलिए पाराशर इसे लेकर संशय में थे. गाना रिकॉर्ड करवाने के बाद जब वे घर पहुंचे तो उन्होंने काफी सोच विचार किया और ये तय किया कि एक गढ़वाली फ़िल्म में हिन्दी गाना रखना सही नहीं होगा. इसके बाद उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल और कुछ अन्य लोक गायकों ने इस फिल्म के लिए गढ़वाली में गीत गाए.
बॉलीवुड की मखमली आवाज के राजा उदित नारायण ने भी एक गढ़वाली फिल्म के लिए अपनी आवाज़ दी है. और आपको जानकर हैरानी होगी कि उन्होंने सिर्फ़ आवाज़ ही नहीं दी, बल्कि बतौर हीरो भी एक फ़िल्म में काम भी किया. जी हां, 1985 में रिलीज हुई गढ़वाली फिल्म ‘प्यारू रूमाल’ में उदित नारायण हीरो थे और साथ ही कई बेहतरीन गानों के गायक भी.
लेकिन अफ़सोस कि इस फ़िल्म का प्रिंट सुरक्षित नहीं रह पाया और हम सब उदित नारायण की कला से महरूम रह गए. दरअसल, इस फिल्म का बीज पहली गढ़वाली फिल्म ‘जग्वाल’ के दौरान पड़ा. जग्वाल के निर्माता पाराशर गौड़ और निर्देशक तुलसी घिमिरे फिल्म की कामयाबी से बेहद खुश थे और उन्होंने आगे की प्लानिंग के दौरान एक नई फिल्म बनाने की सोची. तुलसी घिमेरे नेपाली थे और उन्होंने एक नेपाली फिल्म का प्रस्ताव रखा, जिसका नाम था ‘कुसुमे रूमाल’. इसी फ़िल्म को फिर गढ़वाली में डब किया गया और नाम रखा गया ‘प्यारू रूमाल’. उस दौर में उदित नारायण बॉलीवुड में जाना-पहचाना नाम नहीं था, लेकिन उनकी शानदार आवाज लोगों का ध्यान खींचने लगी थी.
उत्तराखंड के गीतों पर बॉलीवुड के कई दिग्गज गायकों का जादू देखने को मिलता है. लता मंगेश्कर, आशा भोंसले और उदित नारायण के अलावा महेंद्र कपूर भी एक ऐसे गायक रहे जिन्होंने अपनी आवाज़ का जादू गढवाली गीतों में बिखेरा. फिल्म ‘ब्योली’ में आप महेंद्र कपूर की जानदार आवाज़ में गाए कई गानों को सुन सकते हैं. उनका एक गीत तो बेहद पसंद किया जाता है जिसके बोल हैं, ‘जनि करिल्या उनी भुगिल्या. जनी बुतिल्या उनी कटिल्या.’
इसी फ़िल्म का एक और गीत है जो कि फिल्म में दुल्हन बनी बेटी की विदाई के मौके पर गाया गया था. इसे भी महेंद्र कपूर ने ही गाया था. इसमें ठीक वैसा ही फ़ील था जो हिंदी फिल्म ‘नील कमल’ का मशहूर गीत बाबुल की दुआएं लेती जा में देखने को मिला था.
उत्तराखंडी गीतों का जादू कई बड़े-बड़े दिग्गजों को खुद तक खींचता रहा है. सुरेश वाडेकर ने ‘कौथिग’ फ़िल्म में ‘अपणी तौं सरम्याली आंखौं’ गाया है तो अनुराधा पौडवाल ने चर्चित गढ़वाली फ़िल्म चक्रचाल के शानदार गीत ‘गीत लांदा तांदी’ को अपनी आवाज़ दी है. इनके अलावा गुलशन कुमार की बेटी और मशहूर बॉलीवुड सिंगर तुलसी कुमार भी कई सारे गढ़वाली गीतों को आवाज दे चुकी हैं.
सोनू निगम ने भी पहाड़ की आराध्य नन्दा देवी को समर्पित एक गढ़वाली भजन गाया है. इसका नाम है ‘जय नन्दा आदिशक्ति’ जिसे संगीत दिया है संजय पाण्डेय ने और बोल लिखे हैं शैलेन्द्र मैठाणी ने. सोनू निगम तो कई बड़े मंचों पर भी गढ़वाली गीत गा चुके हैं. उनका उत्तराखंड से नज़दीकी का एक कारण ये भी है कि उनका ननिहाल यहीं है.
बॉलीवुड के कई गायक देश-विदेश के मंचों से गढ़वाली और कुमाऊनी गीतों को गुनगुनाने लगे हैं. करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करने वाले पापोन हों या ज़ुबिन नौटियाल, या फिर नई पीढ़ी के वे लोग जो सोशल मीडिया से लेकर लाइव कार्यक्रमों तक, हर माध्यम से दुनिया के मंच पर गाने के बहाने उत्तराखंड की संस्कृति को पहुंचा रही है. लेकिन पीछे पलट कर देखने पर पता चलता है कि ये कई साल पहले शुरू की गई कोशिशों का ही नतीजा है.