30 मई 1930. टिहरी रियासत के पश्चिमी छोर पर बसे चांदा डोखरी के पास ही, तिलाड़ी के मैदान में जौनपुर के लोग आजाद पंचायत के लिए जुट रहे थे. लोगों की मुट्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे. कुछ ही दिन पहले रंवाई क्षेत्र के लोगों ने अपनी ‘आजाद पंचायत’ बनाकर घोषणा कर दी थी कि जंगल पर पहला अधिकार जंगल के बीच में रहने वाले लोगों का होगा.
रंवाई में क्रांति की ऐसी लहर दौड़ी कि राजा के अधिकांश कर्मचारी वहां से भाग गए. लोगों ने अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी और पूरे रंवाई क्षेत्र को आजाद पंचायत घोषित कर दिया गया था. यानी सभी क़ानून अब पंचायत से तय होने थे. लेकिन टिहरी के राजपरिवार को ये बात कैसे हजम होती. लिहाजा नत्थू सिंह सजवाण के नेतृत्व में राजा के सिपाही लोगों की गिरफ़्तारी के लिए पहुंच गए. इसके विरोध में और भी ज़्यादा लोग अपने घरों से निकल आए. तिलाड़ी का मैदान अब पहले से भी ज़्यादा भर गया था. इस मैदान के एक तरफ जंगल था तो दूसरी तरफ खाई जिसके नीचे यमुना नदी अपने पूरे वेग में बहती थी.
सैकड़ों लोग तिलाड़ी के इस मैदान में हुंकार भर रहे थे जब सेना की हथियारबंद टुकड़ियों ने उन्हें तीनों ओर से घेर लिया. लोग कुछ संभल पाते, उससे पहले ही राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने अपनी जेब से एक सीटी निकाली और उसे जोर से बजा दिया. बंदूक़ ताने ये सिपाही मानो सीटी की इसी आवाज़ के इंतज़ार में थे. इधर सीटी बजी और उधर, धांय-धांय की आवाजों से पूरी घाटी गूंजने लगी.
पहाड़ के इस तिलाड़ी मैदान में जलियाँवाला बाघ जैसी घटना का दोहराव हो रहा था. कुछ प्रदर्शनकारी लहूलुहान होकर ज़मीन पर गिर पड़े थे और बाक़ी लोग अपनी जान बचाने को इधर-उधर भाग रहे थे. कुछ लोग पेड़ों पर चढ़े तो उन्हें नीचे से गोली मार दी गई, कुछ इस अफ़रा-तफ़री में यमुना में कूदने के चलते मारे गए. कुल 400 राउंड फायर किए गए जिसमें कई लोगों की शहादत हुई. कई अन्य लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जिनमें से 16 लोगों की जेल में मौत हुई. उनके शवों को क्रूर शासन ने बोरों में भरकर भिलंगना नदी में फेंक दिया.
आज के हुआ यूं था के इस एपिसोड में देखिए पहाड़ की शांत वादियों में जब जलियाँवाला बाग जैसे हत्याकांड को दोहराया गया.
इस नृशंस हत्याकांड को बहुत समय तक दबाए रखने की कोशिश की गई. लेकिन देहरादून से प्रकाशित होने वाले गढ़वाली अखबार के संपादक विशंभर दत्त चंदोला ने इस पूरी घटना की रिपोर्टिंग की और तब दुनिया के सामने आया कि टिहरी रियासत में जलियाँवाला बाग की पुनरावृति हुई है. गढ़वाली अखबार के अलावा, ये खबर लाहौर से निकलने वाले अंग्रेजों के सबसे बड़े अखबार ‘सिविल एंड मिलिटेरी गज़ेट’ में भी प्रकाशित हुई. इसके साथ ही कोलकाता से निकलने वाला इंग्लिशमैन, जो बाद में स्टेट्स्मैन के नाम से जाना जाने लगा और पायनियर अखबार में भी यह खबर प्रकाशित हुई. इंग्लैंड में तो लगभग हर अखबार ने रवाई कांड की खबर छपी ही. लेकिन टिहरी के राजा ने देहरादून कोतवाली में गलत खबर छापने के आरोप में विश्वंभर दत्त चंदोला जी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और उन्हें 11 साल की सजा भी सुना दी गई. बाद में इसे घटाकर पांच साल किया गया.
अखबारों में तिलाड़ी कांड की खबर छपने से ये बात पूरे देश को मालूम चल गई थी कि टिहरी रियासत के एक बड़े हिस्से में कई दिनों तक आजाद पंचायत ने समानांतर सरकार चलाई. इस आजाद पंचायत का सपना आखिर रंवाई जैसे अति दुर्गम क्षेत्र के लोगों ने कैसे देखा, इस पटकथा की बुनियाद आखिर कैसे और कहाँ से पड़ी, इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है.
हुआ यूं कि उस दौर में अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा के दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे. इसी क्रम में टिहरी रियासत ने भी साल 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की. साल 1927 में रवाईं घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया. इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हक़-हकूक समाप्त कर दिए गए. वन संपदा के प्रयोग पर टैक्स लगाया गया और पारंपरिक त्योहारों पर भी रोक लगा दी गई. एक गाय, एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपये सालाना टैक्स वसूला जाने लगा. इससे स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा था.
ये राजशाही का वो दौर था जब टिहरी रियासत की जनता कर यानी टैक्स के बोझ से लगातार दबे जा रही थी. लगभग हर चीज़ पर टैक्स निर्धारित कर दिया गया था. औताली, गयाली, मुयाली, नजराना और दाखिल खारिज जैसे टैक्स तो थे ही, इनके अलावा राज दरबार में मांगलिक कार्यों पर दिया जाने वाला देण-खेण आढ़त, भांग पीने के लिए अगर किसी ने चिलम रखी हो तो उस पर चिलम का टैक्स, शराब पीने पर टैक्स, ज़मीन पर टैक्स, वनों में चलान और चुगान पर टैक्स, मदारी का खेल दिखाने और देखने पर टैक्स, राज घराने के घोडे-खच्चर-गाय और भैंस भरपेट चारा खा सकें इसके लिए ‘पाला बिसाऊ’ नाम का टैक्स. इन तमाम तरह के कर चुकाने के साथ ही हर परिवार को चार पाथा चावल, दो पाथा गेहूं, एक सेर घी और एक बकरा टिहरी में राजमहल को देना होता. न देने वाला दंड का भागी होता था.
1930 में राजा ने जंगलों में ‘मुनार बन्दी’ शुरू करवाई. इसमें किसानों से गायों को जंगल में चराने का अधिकार तक छीन लिया गया. राजा ने हुक्म दिया कि ‘गाय बछियों के लिए सरकार नुकसान नही उठाएगी, जो उन्हें पाल नहीं सकते, वो अपने जानवरों को पहाड़ी से नीचे गिरा दें.’ ये शब्द आम किसान के दिलों को चीरने के लिए काफी थे. इसके बाद ही वहां की जनता ने आजाद पंचायत का नारा दिया और राजशाही के समानांतर आजाद पंचायत की घोषणा कर दी.
आजाद पंचायत का ये यूटोपियन-सा लगने वाला ख्याल आखिर गांव के लोगों को कहां से आया, इसके बारे में कुछ पुख़्ता तो कुछ किंवदंती सरीखे क़िस्से मौजूद हैं. बताते हैं कि मध्य प्रांत और बंबई प्रांत में वन कानून तोड़ने की ख़बर सुनकर रंवाई क्षेत्र के लोग उत्साहित हो गए और नगाण गांव के हीरा सिंह, कसेरू गांव के दया राम और खमुंडी-गौडर के बैज राम ने आंदोलन का नेतृत्व सम्भाला.
रवाईं के लोग राजपरिवार द्वारा लगाए गए तमाम करों से पहले ही बेहद परेशान थे. राजा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. ऐसे में, राजतर के लाला राम प्रसाद ने इन सभी लोगों को बंबई और मध्य प्रांत में कैसे किसान एकजुट हुए, इसकी खबरें दी. इससे जनता लामबंद होती चली गई और कुछ ही दिनों में रंवाई के लोगों ने अपनी ‘आजाद पंचायत’ बना डाली. उन्होंने घोषणा कर दी की जंगल पर पहला अधिकार जंगल के बीच में रहने वाले लोगों का होगा.
रंवाई में क्रांति की ऐसी लहर दौड़ी की अधिकांश राज कर्मचारी वहां से भाग गए. रंवाई के लोगों ने अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी जो लोटे की छाप को मुहर बनाकर अपने आदेश पारित करती थी. आजाद पंचायत ने चांदा-डोखरी को अपनी बैठकों के लिए चुना. स्थानीय थोकदारों ने पहले तो इन क्रांतिकारियों का अपने हित में इस्तेमाल करना चाहा और जब वो इसमें कामयाब नहीं हो सके तो इन थोकदारों ने राजा के गुप्तचरों के रूप में काम किया.
इस आंदोलन को देखते हुए राजा ने अपने भूतपूर्व वजीर हरि कृष्ण रतूड़ी को बातचीत के लिए रंवाई भेजा. बातचीत में रतूड़ी जनता की मांगों से सहमत हुए और उनकी मांग मानने का आश्वासन देकर लौट गए. लेकिन एक तरफ जहां ये बातचीत चल रही थी तो वहीं दूसरी तरफ रंवाई के अंतर्गत राज गढ़ी के एसडीएम सुरेन्द्र दत्त ने आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर वन हानि का मुक़दमा चला दिया. यह मुक़दमा वन विभाग के डीएफओ पद्म दत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया और आंदोलन के प्रमुख नेता दया राम, रूद्र सिंह, राम प्रसाद और जमन सिंह को कारावास का दण्ड सुना दिया गया.
राजगढ़ी से टिहरी कारावास तक इन आंदोलनकारियों को पहुंचाने के लिए 20 मई 1930 के दिन गिरफ़्तार किया गया. इन्हें जेल ले जा रहे लोगों में स्थानीय पटवारी और कुछ सिपाहियों के साथ ही एसडीएम सुरेन्द्र दत्त और डीएफओ पद्म दत्त रतूड़ी भी शामिल थे. ये लोग जब डंडियाल नामक गांव पहुंचे तो कुछ आंदोलनकारियों ने इन क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए एसडीएम सुरेन्द्र दत्त और डीएफओ पद्म दत्त रतूड़ी आदि पर हमला कर दिया.
डीएफओ ने अपनी रिवाल्वर निकाली और नगाण गांव के ज्ञान सिंह, अजीत सिंह और जूना सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी. इसके बाद मची भगदड़ में डीएफओ तो मौके से भाग गया लेकिन एसडीएम सुरेन्द्र दत्त को लोगों ने बंदी बना लिया. इन दिनों महाराजा नरेंद्र शाह यूरोप में अपने गले का ऑपरेशन कराने गए हुए थे. दीवान चक्रधर जुयाल को इस घटना की ख़बर लगी तो उसने रंवाई के लोगों को सबक सिखाने की ठानी. दीवान ने संयुक्त प्रांत के गवर्नर से आंदोलन के दमन हेतु शस्त्रों के प्रयोग की अनुमति ले ली. इसी के बाद तिलाड़ी कांड को अंजाम दिया गया.
आजाद पंचायत के गठन से जुड़ी एक और कहानी लोक में प्रचलित रही है. इस कहानी के अनुसार आज़ाद पंचायत की नींव पड़ने की शुरुआत कानपुर से होती है. कानपुर में साल 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई. इसके कुछ सालों बाद ही 1929 में ब्रिटिश सरकार ने देश भर से 32 कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर मेरठ जेल में बंद कर दिया. इन लोगों की गिरफ्तारी का ये मुकदमा ‘मेरठ षडयंत्र केस’ नाम से इतिहास में दर्ज है. उस दौरान मेरठ और उसके आसपास के कुछ इलाकों में हैजा की बीमारी फैल गई थी. लिहाज़ा गिरफ्तार किए गए इन कम्युनिस्टों को देहरादून जेल में शिफ़्ट किया गया.
देहरादून रेलवे स्टेशन पर जब इन राजनीतिक क़ैदियों को लाया गया तो सड़क के दोनों तरफ लोगों ने फूल डालकर इनका स्वागत किया. ये स्वागत हरिद्वार रोड पर स्थित जेल तक हुआ. दून जेल में उस समय जौनपुर तिलाड़ी क्षेत्र के कई कैदी सजा काट रहे थे. इन लोगों ने सुना था कि कम्युनिस्ट कैदी मजदूरों के हकों के लिए लड़ते हैं. लिहाजा, एक सहानुभूति उनके मन में कम्युनिस्टों के लिए पहले से थी. फिर हर दिन कम्युनिस्ट कैदियों के साथ रहने से उन्हें 1917 में हुई रूसी क्रांति के बारे में पता चला. कम्युनिस्टों ने उन्हें सोवियत ‘आजाद पंचायत’ के बारे में बताया. साथ ही उन्हें दुनिया के तमाम मजदूर आंदोलनों की भी जानकारी दी. इसके बाद जब मामूली अपराधों में सजा काट रहे जौनपुर के ये कैदी जेल से बाहर आए तो उनकी आंखों में अपने क्षेत्र को सोवियत में बदलने का क्रांतिकारी सपना था. वो सीधे अपने क्षेत्र में गए और सोवियत की आजाद पंचायत के बारे में राजशाही से पीड़ित जनता को बताया. यहीं से तिलाड़ी के लोगों ने आजाद पंचायत का सपना देखा.
ये भी कहा जाता है कि इस घटना के बाद टिहरी के राजा नरेंद्र शाह ने भी कार्ल मार्क्स को पढ़ना शुरू किया. राजा नरेंद्र शाह की वो किताबें राजपुर रोड स्थित उनके परिवार के एक सदस्य की लाइब्रेरी में आज भी मौजूद हैं. कहा जाता है कि नरेंद्र शाह ने यह कहकर कार्ल मार्क्स की किताबें मँगवाई थी कि जिन किताबों ने सालों से ग़ुलामी झेल रही प्रजा को विद्रोह की ताक़त दे दी, आख़िर देखा तो जाए उन किताबों में ऐसा क्या है.
स्क्रिप्ट: मनमीत
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