जब उत्तराखंड में पहली बार ट्रेन पहुँची

  • 2023
  • 7:33

साल 1884. कुमाऊँ का प्रवेश द्वार कहे जाने वाला काठगोदाम अंग्रेज अधिकारियों और स्थानीय लोगों की भीड़ से ठसा-ठस भरा हुआ था. दरअसल काठगोदाम में नई-नई रेलवे लाइन बिछाई गई थी और एक रेलवे स्टेशन बन कर तैयार हुआ था. पहाड़ और भाबर की जनता में पहली बार रेलगाड़ी देखने को लेकर ज़बरदस्त कौतूहल था. भाबर के जंगलों से धुआँ छोड़ते और सीटी मारते, लोहे का एक इंजन अपने पीछे कई लोहे के डिब्बों को खींचता हुआ चला आ रहा था. ये रेलगाड़ी जब काठगोदाम पहुंची तो लोगों के बीच भगदड़ मच गई और इस विशालकाय मशीन को देखकर कई लोग भयभीत हो उठे. असल में पहली बार रेल गाड़ी देख रहे इन लोगों को भी इसका अंदाज़ा नहीं था कि रेल इतनी बड़ी होती है. ये दृश्य है 24 अप्रैल 1884 का जब पहली बार काठगोदाम में लखनऊ से ट्रेन पहुंची थी.

उत्तराखंड में रेल की आमद कब हुई ये जानने से पहले हम ये जान लेते हैं कि देश की सबसे पहली ट्रेन कब, कहाँ से और कहाँ तक चली थी. भारत में रेलवे का पहला सफर 16 अप्रैल 1853 को तब हुआ था, जब मुंबई से ठाणे के बीच पहली पैसेंजर ट्रेन चली थी. मुंबई के बोरी बंदर से चलने वाली ये ट्रेन 33.8 किलोमीटर की दूरी तय करती थी. ये भारत की ही पहली ट्रेन नहीं थी, बल्कि पूरे भारतीय महाद्वीप की सबसे पहली यात्री ट्रेन थी. इस ट्रेन में 14 यात्री डिब्बे थे और इसके पहले सफर में 400 लोगों ने यात्रा की थी. लेकिन ये भारत में चलने वाली पहली यात्री यानी पैसेंजर ट्रेन थी.

जहां तक पहले-पहल ट्रेन चलने का सवाल है तो इससे पहले भी कुछ ट्रेन भारत में माल-ढुलाई के लिए चलने लगी थी और आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि  अपने उत्तराखंड में भी ऐसी ही एक ट्रेन थी जो मुंबई कि यात्री ट्रेन से दो साल पहले ही चलने लगी थी. ये एक माल गाड़ी थी जो 1951 से ही रुड़की और पिरान कलियर के बीच चलती थी. इसका भी एक रोचक किस्सा है.

असल में, साल 1837 के आसपास भारत के उत्तर-पश्चिमी इलाकों में भारी सूखा पड़ा. तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका समाधान निकालते हुए गंगनहर बनाने की योजना बनाई. योजना थी कि इस नहर के ज़रिए हरिद्वार के पानी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विशाल खेतों तक पहुँचाया जाए. इसी गंगनहर को बनाने के लिए साल 1851 में रुड़की से कलियर के बीच दस किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछाई गई और करीब 9 महीनों तक उससे मिट्टी की ढुलाई का काम किया गया.

दिलचस्प है कि आज से पौने दो सौ साल पहले जो इंजन यहां चला था, वो आज भी रुड़की में मौजूद है और बड़ी बात ये है कि आज भी उसे हर शनिवार को स्टार्ट किया जाता है. रूड़की में 1851 में मालगाड़ी चलने और 1853 मुंबई से ठाणे के बीच पहली यात्री ट्रेन चलने के लगभग तीस साल बाद काठगोदाम में पहली बार यात्री ट्रेन पहुंची.

लखनऊ से काठगोदाम के लिए चलने वाली इस ट्रेन का नाम अवध तिरहुत एक्सप्रेस था. ये ट्रेन सुबह चार बजे लखनऊ से चलकर दोपहर तीन बजे काठगोदाम स्टेशन पहुंची. ये करीब पचास किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से चलने वाली एक मेल एक्सप्रेस थी, जो कि स्टीम पावर से चलती थी और रेल लाइन या पटरियां मीटर गेज थी.

इस कहानी में आगे बढ़ने से पहले ये समझ लेते हैं कि आख़िर ये गेज क्या बला है. आमतौर पर भारत में रेलवे लाइन चार प्रकार की होती हैं. पहली है मीटर गेज जो लखनऊ से काठगोदाम तक भी बिछाई गई थी. जैसा कि इसके नाम से ही पता लग रहा है, इसमें ट्रैक की चौड़ाई एक मीटर की होती है. दूसरा है ब्रॉड गेज जो कि मुंबई से ठाणे के बीच चलने वाली रेल लाइन में था. इसमें पटरियां की दोनों लाइन के बीच की दूरी 5.6 फीट की होती है. भारत में अब चलने वाली अधिकांश ट्रेन इसी ब्रॉड गेज पर चलती हैं. लेकिन मेट्रो इसका अपवाद है जो कि स्टैंडर्ड गेज पर चलती है. स्टैंडर्ड गेज की चौड़ाई 4.8 इंच होती है. महानगरों में चलने वाली मेट्रो और मोनोरेल इसी स्टैंडर्ड गेज पर चलती हैं और कोलकाता ट्राम तो पहले से ही इस गेज पर संचालित हो रही है. इन तीनों के अलावा एक होता है नैरो गेज. इसमें पटरियों की बीच की दूरी सिर्फ़ दो फीट होती है. आपने दार्जीलिंग टॉय ट्रेन और कालका शिमला ट्रेन अगर देखी है तो वो नैरो गेज पर ही चलती है. रेलवे गेज की इस तकनीकी जानकारी से अब वापस लौटते हैं काठगोदाम में ट्रेन पहुंचने की कहानी पर.

‘हल्द्वानी – स्मृतियों के झरोखे से’ किताब लिखने वाले लेखक स्व आनंद बल्लभ उप्रेमी लिखते हैं कि कुमाऊँ के प्रवेश द्वार के रूप में मशहूर काठगोदाम उस समय चौहान पाटा के नाम से जाना जाता था. उस समय टिंबर किंग के नाम से मशहूर दान सिंह बिष्ट उर्फ दान सिंह मालदार ने यहां कई लकड़ी के गोदाम बनाए और बड़ा कारोबार किया. पहाड़ से इमारती लकड़ी लाने के लिए परिवहन का कोई साधन नहीं होता था लिहाजा लकड़ियों को नदियों के सहारे काठगोदाम तक पहुंचाया जाता था और यहां से पूरे भारत में इन लकड़ियों को बाजार मिलता था.

इतिहासकारों के अनुसार काठगोदाम तक ट्रेन लाने का मकसद भी यही था कि वहाँ से लकड़ियों की सप्लाई बढ़ाई जा सके. इस क्षेत्र से निकाली जा रही लकड़ियों की सप्लाई के लिए जंगलात विभाग ने 1920 में नन्धौर ट्राम और ट्रेन का संचालन किया. ये दो रूटों पर चलती थी. एक रूट लालकुआँ – हुराई – सेला और चोरगलिया का था जो करीब 21 किलोमीटर का था और दूसरा रूट हुराई – हंसपुर और जौलासाल का करीब 20 किलोमीटर लंबा था.

काठगोदाम से ट्रेन का सफर शुरू होने के 16 साल बाद यानी सन 1900 में हरिद्वार होते हुए ट्रेन देहरादून तक भी पहुँच गई. लेकिन जहां काठगोदाम में मीटर गेज लाइन थी, वहीं देहरादून रेल परियोजना ब्रॉड ग्रेज लाइन के साथ शुरू हुई. उसी दौरान देहरादून-मसूरी रेल लाइन परियोजना पर भी काम चला लेकिन वो कभी पूरा न हो सका. उधर, काठगोदम में भले ही ट्रेन बहुत पहले पहुंच गई थी, लेकिन उसका आधुनिकीकरण होने में पूरी एक सदी लग गई. 1994 तक काठगोदाम रेल लाइन मीटर गेज ही रही और भाप वाले इंजन तो यहां साल 2011 तक, हाँफते-हाँफते ही सही लेकिन दौड़ते रहे. 1994 में काठगोदाम रेल लाइन को ब्रॉड गेज किया गया, जिसके बाद यहां बड़ी ट्रेन भी आने लगी. एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि काठगोदाम रेलवे स्टेशन को कई बार सबसे साफ रेलवे स्टेशन होने का अवार्ड भी मिल चुका है.

19वीं सदी खत्म होने से पहले ही अंग्रेज़ चौहनपाटा यानी काठगोदाम तक रेल पहुंचा चुके थे. अब उनकी नज़र पहाड़ों पर थी. इसके लिए उन्होंने साल 1905 में टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन के अलावा चौखुटिया और जौलजीबी रेल लाइन का सर्वेक्षण करवाया. सर्वेक्षण का ये काम साल 1939 तक पूरा भी हो गया था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण अंग्रेज़ सरकार का ध्यान इससे हट गया. इसके कुछ ही सालों बाद देश आज़ाद हो गया और स्वतंत्र भारत की सरकारों के लिए तमाम अन्य प्राथमिकताएँ थी, लिहाज़ा इस दिशा में फिर कभी काम नहीं हो सका.

हालाँकि अब उत्तराखंड में रेलवे नेटवर्क का विस्तार हो रहा है. ऋषिकेश – कर्णप्रयाग रेलवे प्रोजेक्ट का लगभग आधा काम पूरा हो चुका है जबकि डोईवाला – गंगोत्री रेलवे प्रोजेक्ट की भी डीपीआर तैयार हो चुकी है. कहा जाता है कि कर्णप्रयाग रेल पहुंचेगी तो वो उत्तराखंड में पहली ट्रेन होगी, जो किसी सीमांत जिले तक पहुंचेगी. हालाँकि एक दिलचस्प तथ्य ये भी है उत्तराखंड के ही एक दूसरे सीमांत ज़िले में पहले भी एक ट्रेन चल चुकी है. आज से लगभग तीस साल पहले, नब्बे के दशक में, उत्तरकाशी में जब मनेरी – भाली बांध परियोजना का निर्माण किया जा रहा था उस समय माल ढुलाई के लिए लगभग दस किलोमीटर लंबा नैरो गेज रेलवे ट्रैक यहां बिछाया गया था जिस पर ट्रेन दौड़ा करती थी. इस बांध का निर्माण पूरा होने के साथ ही ये ट्रेन भी बंद कर दी गई.

 

स्क्रिप्ट: प्रगति राणा

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