वैष्णव धर्म की मां नन्दा ने आखिर क्यों सीखा शिव से तंत्र मंत्र

  • 2024
  • 29:57

माउंट एवरेस्ट की उंचाई पता लगने से करीब तीन दशक पहले, साल 1820 में नंदा देवी की उंचाई नापी जा चुकी थी. तब इसे ही दुनिया का सबसे ऊँचा पर्वत माना गया. नंदा देवी के नाम ये सम्मान तब तक बना रहा, जब तक 1930 में कंचनगंगा की उंचाई का ठीक ठाक अनुमान नहीं लग गया. फिर इसके करीब दो दशक बाद, साल 1852 में गणितज्ञ राधाकांत सिकदर ने सागरमाथा या चोमोलंगम की सटीक उंचाई का पता लगाया तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया. राधाकांत सिकदर ने ग्रेट हिमालय में मौजूद जिस चोटी की सटीक गणना कर उसकी उंचाई निकाली थी, वो दुनिया का सबसे उंचा पर्वत घोषित हुआ और उसका नाम रखा गया माउंट एवरेस्ट. अब इसे विडबंना ही कहेंगे कि भारतीय मूल के राधाकांत सिकदर का नाम पूरी तरह से ग़ायब हो गया और पर्वत का नाम उस अंग्रेज अधिकारी के नाम पर रखा गया जिसने प्रत्यक्ष रूप से इस पर्वत को कभी देखा ही नहीं था. बहरहाल, इसके महज दो साल बाद ही माउंट के-वन और के-टू की उंचाई का भी पता लगा लिया गया. इस तरह से तकरीबन तीस साल पहले जो नंदा देवी दुनिया की सबसे ऊंची चोटी मानी गई थी, वो 1855 तक दुनिया में 23 वें नंबर पर खिसक गई. लेकिन एक रिकॉर्ड फिर भी उसके नाम था. ये था उसकी चोटी को फ़तह करने की कठिनाई का जिसने कई पर्वतारोहियों की जान ले ली थी. नंदा देवी पर्वत की चोटी पर पहुंचना तो दूर, उसकी तलहटी तक पहुंचने में ही दशकों बीत गये. एक के बाद एक कई अंतरराष्ट्रीय पर्वतारोहियों ने इस पर्वत की महज घाटी तक पहुंचने के आठ असफल प्रयास किए. ये पर्वत एकमात्र ऐसी चुनौती थी, जिसके सामने दुनिया भर के माउंटेनियर्स हथियार डाल चुके थे.

जियोग्राफी की बुनियादी समझ रखने वाले भी जानते हैं कि किसी भी पर्वत की चोटी तक पहुंचने से पहले एक घाटी होती है. यहीं पर उस पर्वत का पहला बेस-कैंप भी बनाया जाता है जहां से पर्वतारोही पर्वत की कठिन चढ़ाई चढ़ने से पहले की तमाम तैयारी करते हैं. पहले बेस-कैंप के बाद उस पर्वत की चोटी तक कई बैस-कैंप हो सकते हैं. जैसे माउंट एवरेस्ट के कुल चार बेस-कैमप्स में सबसे पहला काला पत्थर लगभग 4500 मीटर की उंचाई पर है. इसी तरह दुनिया के दूसरे सबसे ऊँचे पर्वत माउंट के-2 पर आरोहण करने के लिए लिए पांच बेस-कैंप हैं. अमूमन, पहले बेस-कैंप तक कोई भी सामान्य इंसान कुछ दिनों की आसान ट्रेकिंग कर पहुंच सकता है. लेकिन, हम आज जिस पर्वत की बात कर रहे हैं, उसकी घाटी तक पहुंचना ही उस वक्त की बड़ी सफलता थी. बल्कि आज भी इसे फ़तह करना तो पूरी दुनिया के लिए सबसे कठिन और जानलेवा है. अभी चार साल पहले यानी साल 2019 में भी इस पर्वत पर चढ़ने के दौरान आठ पर्वतारोहियों की दर्दनाक मौत हो गई थी.

नंदा देवी पर्वत केवल एक पहाड़ भर नहीं है. हिंदू धर्म के अन्य भगवान या देवताओं से अलग नंदा देवी को उत्तराखंड में कहीं बेटी माना जाता है, कहीं बहन तो कहीं मां. किसी आराध्य के साथ आम जनमानस का ऐसा अनूठा रिश्ता उत्तराखंड में ही मिलता है. आज हम नंदा देवी की न केवल भौगोलिक विषमता की बात करेंगे, बल्कि उसके धार्मिक और सामाजिक पहलुओं को भी टटोलेंगे. हम इस पर भी चर्चा करेंगे कि आखिर क्या वजह है कि नंदा देवी को सिर्फ़ उत्तराखंड में ही पूजा जाता है. कत्यूरियों से लेकर कुमाऊँ के चंद वंश और गढ़वाल के पंवार वंश तक में आखिर नंदा ही क्यों आराध्य रही, जिसके चलते उन्हें राज-राजेश्वरी भी कहा गया. हम इस पहलू पर भी बात करेंगे कि आखिर क्यों शिव की तीन अर्धांगिनियों में सिर्फ़ नंदा ही वैष्णव थीं जबकि सती और पार्वती शैव समुदाय से थीं. टटोलेंगे उन कारणों को भी कि आखिर नंदा देवी की पूजा पद्धति तिब्बत के देवताओं से कैसे मिलती है और बात करेंगे उस अभियान की भी जिसमें अमेरिकन ख़ुफ़िया एजेंसी सीआइए ने नंदा पर्वत पर एक महत्वाकांक्षी प्रयोग करना चाहा जो सफल तो नहीं हो सका लेकिन जिसके अवशेष आज भी वहां दफ़्न हैं.

उत्तराखंड राज्य के लगभग बीचों-बीच स्थित नंदा देवी नैशनल पार्क तीन ज़िलों से लगता है – चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़. इस पार्क की सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी है, जिसकी उंचाई समुद्र तल से 7817 मीटर है. नंदा देवी पर्वत से पूर्व दिशा पर महज दो किलोमीटर दूर एक और शिखर है, जिसका नाम सुनंदा है और जिसकी उंचाई 7434 मीटर है. इसे नंदा देवी ईस्ट भी कहते हैं. दोनों को एक पतली सी रिज-लाइन आपस में जोड़ती है. इन पर्वतों के चारों ओर पर्वत शृंखलाओं का एक घेरा है जिसे बैरियर रिंग भी कहते हैं. इस रिंग में द्रोणागिरी और त्रिशूल पर्वत भी आते हैं. इसी रिंग के अंदर का इलाका नंदा देवी सैंचुरी के नाम से जाना जाता था जो नब्बे के दशक में नेशनल पार्क में अपग्रेड हुआ. नंदा देवी सैंचुरी में मौजूद पर्वतों से राहमनी ग्लेशियर, चांगाबंग ग्लेशियर, उत्तरी ऋषि गंगा ग्लेशियर और त्रिशुल ग्लेशियर निकालते हैं. यही ग्लेशियर फिर नंदा देवी पर्वत से निकलने वाले उत्तर और दक्षिणी ग्लेशियर से मिलकर ऋषि गंगा नदी को जन्म देते हैं. वही ऋषि गंगा जिसमें साल 2021 में एवलांच आने से बाढ़ आई थी और सैकड़ों जिंदगियाँ लील गई थी. ये एवलांच उसी घाटी में ऋषि गंगा के उद्गम में गिरा था, जिस घाटी या बेसिन तक पहुंचना ही माउंट एवरेस्ट की चोटी को फ़तह करने से ज्यादा कठिन हो गया था.

बहरहाल, नंदा देवी सैंचुरी में प्रवेश करने का सबसे आसान रास्ता ऋषि गंगा नदी की संकरी घाटी ही है. वही घाटी, जिसमें नदी के विकराल स्वरूप के कई वीडियो आपने फरवरी 2021 में देखे होंगे. ये संकरी घाटी से नंदा देवी पर्वत की तलहटी तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता इसलिए भी है क्योंकि सैंचुरी के चारों ओर मौजूद बैरियर रिंग के पहाड़ों की ऊँचाई साढ़े पांच हजार मीटर तक है. वैसे इस बैरियर रिंग को पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी से पार करने का प्रयास भी किया जाता है लेकिन ये इतना कठिन है कि इसमें मृत्यु-दर हिमालय की अन्य चोटियों से काफी ज्यादा है.

1883 से 1905 तक नंदा देवी पर चढ़ने के नौ प्रयास असफल हो चुके थे. फिर 1905 में डाक्टर टीजी लॉन्गस्टाफ नंदादेवी की 5919 मीटर उंचाई पर मौजूद दक्षिण पूर्वी धार तक पहुंचने में सफल रहे, लेकिन उससे आगे वो भी नहीं पहुंच पाये. ये वही दक्षिण पूर्वी धार वाला रास्ता है, जो पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी से होकर जाता है. लॉन्गस्टाफ जहां पर पहुंचे थे, उसे तब तक नंदा देवी खाल कहा जाता था. बाद में इसे लॉन्गस्टाफ रिज कहा जाने लगा. ये ही रिज नंदादेवी सैंचुरी की सीमा भी बनाती है.

ऊंचाई में कम होते हुए भी नंदा देवी ईस्ट को आरोहण के लिए बेहद खतरनाक और तकनीकी रूप से अत्यधिक चुनौती पूर्ण शिखर माना जाता है. अंटार्कटिका की कई दिनों की यात्रा कर चुके वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू अपने एक लेख में लिखते हैं कि प्रथम एवरेस्ट आरोही तेनजिंग नोर्गे ने नंदा देवी को एवरेस्ट से ज्यादा कठिन शिखर माना है. अपनी आत्म कथा ‘टाइगर ऑफ द स्नोज’ में तेनजिंग लिखते हैं, ‘हाल के वर्षों में भी जब लोग मुझसे पूछते हैं कि आपकी अब तक की सबसे मुश्किल और खतरनाक चढ़ाई कौन सी है? तो उनके मन में ये उम्मीद रहती है कि मैं एवरेस्ट का ही नाम लूंगा. लेकिन वह एवरेस्ट नहीं है. वह तो नंदा देवी ईस्ट है.’

गोविंद पंत राजू बताते हैं कि नंदा देवी ईस्ट को जानलेवा शिखर यूं ही नहीं कहा जाता. इसके साथ हादसों का एक सिलसिला जुड़ा है. पहले जानलेवा हादसे के गवाह तो तेनजिंग नोर्गे खुद रहे थे. तेनजिंग ने अपने जीवन में उत्तराखंड से बहुत कुछ सीखा था. 1931 से 1950 के बीच वे कई पर्वतारोहण अभियानों में उत्तराखंड आए और बंदरपूंछ, केदारनाथ, नंदा देवी आदि अनेक शिखरों के आरोहण में शामिल रहे. उनकी आत्मकथा में इस बारे में विवरण मिलता है कि नंदा देवी ईस्ट में उनके अभियान दल के साथ हुआ हादसा कितना दर्दनाक था.

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि नंदा देवी पर्वत के शिखर पर पहुंचने से ज्यादा मुश्किल था, नंदा देवी बेसिन में मौजूद इनर सेंचुरी तक पहुंचना. 27 जून 1934 को सबसे पहले एच डब्ल्यू टिलमैन और एरिक सिम्पसन ने ये सफलता हासिल की. ये सफलता उन्हें चमोली जिले के रैणी गांव वाले इलाके से मिली थी. अपनी किताब में एच डब्ल्यू टिलमैन लिखते हैं कि नंदा देवी संचुरी में प्रवेश करने से पहले मैं हग रटलैज के टाइम्स में दिए बयान को पढ़ रहा था. इसमें उन्होंने लिखा था कि नंदा देवी अपने भक्तों की कुशलता और सहन-शीलता की परीक्षा लेती है. 70 मील के वृत्ताकार क्षेत्र में जहां से उपर की ओर 12 पर्वत खडे़ हैं और जहां 17 हजार फीट से नीचे किसी भी स्थान पर दबा भाग नहीं है. केवल नंदादेवी की तलहटी है, जहां ऋषि गंगा बहती है. ये पाले और बर्फ को काटती हुई एक तंग घाटी बनाती है, जो संसार की भयानक घाटियों में से एक है. इस नदी में उत्तर और दक्षिण की ओर से आती अंदरूनी घाटियों पर ये पर्दे का काम करती है, जिसके पीछे 25 हजार 660 फीट ऊँचा नंदा देवी पर्वत खड़ा है.

इस सफलता के दो साल बाद ही नंदा देवी मुख्य शिखर पर 1936 में ब्रिटिश अमेरिकी बिल टिलमैन और ओडेल ने सबसे पहले सफलता पाई. फिर 1939 में एक पोलिस अभियान दल ने अपेक्षाकृत छोटे, नंदा देवी ईस्ट शिखर पर सफल आरोहण किया. लेकिन अब तक भी इन दोनों शिखरों पर एक साथ आरोहण नहीं हुआ था. फ्रेंच पर्वतारोहियों की योजना दोनों शिखरों पर एक साथ क्लाइंबिंग करने की थी और इन दोनों शिखरों को जोड़ने वाली बेहद संकरी तीन किलोमीटर लंबी रिज पर चलकर नंदा देवी ईस्ट, जिसे सुनंदा भी कहते हैं पर पहुंचने की योजना थी. यानी एक बार आधार शिविर से ऊपर चढ़कर एक शिखर पर आरोहण करने के बाद नीचे उतरने के बजाय दोनों शिखरों को जोड़ने वाली रिज से दूसरे शिखर पर आरोहण करने का प्रयास करना था.

वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू अपने एक लेख में बताते हैं कि शिखर से शिखर आरोहण का यह प्रयास बेहद घातक और चुनौतीपूर्ण था. उस समय तक हिमालय के पर्वतारोहण इतिहास में ऐसा कोई प्रयास किसी भी शिखर समूह के लिए नहीं हुआ था. अभियान दल में कुल 18 पर्वतारोही थे, जिसमें आठ फ्रांसीसी आरोही थे. भारतीय सेना से नंदू जुयाल थे, नौ शेरपा थे और तेनजिंग को शेरपा सरदार की जिम्मेदारी मिली थी. नंदू जुयाल के साथ तेनजिंग 1946 के बन्दरपूंछ अभियान में आरोहण कर चुके थे. दल के साथ बड़ी संख्या में स्थानीय भारवाही भी थे जिनसे भाड़े की दरों को लेकर अभियान दल की कई बार बहस भी हुई. लेकिन अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए अभियान दल ऋषि गौर्ज को पार कर नंदा देवी के आधार में फूलों से भरी सेंक्चुरी में पहुंच गया.

तेनजिंग लिखते हैं, ‘हमने आगे बढ़ने के लिए सब कुछ किया, पर मुझे अब भी इस बात की हैरानी होती है कि हम बच कैसे गए. हमारे दो साथी लापता थे जिनका तय था कि वे अब मर चुके हैं. उधर, दूसरी तरफ से चढ़ते-चढ़ते हम एक ऐसे स्थान पर पहुंच गए जहां से ऊपर की ओर कुछ नहीं था. हम पवित्र नंदा देवी ईस्ट शिखर पर थे. मनुष्य दूसरी बार इस शिखर पर पहुंच रहा था. मेरे लिए तो वह हमेशा के लिए एवरेस्ट के बाद सबसे ऊंची चोटी बनी रहने वाली थी. इस विजय के बाद भी हमने वहां से दिख रही तिब्बत की ढलानों के बजाय नंदा देवी शिखर और बीच की रिज को देखना ज्यादा जरूरी समझा. हमने उस अद्भुत शिखर और दो मील लंबी रिज के चप्पे-चप्पे पर अपने साथियों के निशान ढूंढ़ने का प्रयास किया. मगर कुछ भी तो नहीं था वहां.’

नंदा देवी ईस्ट के सफल आरोहण ने तेनजिंग के नाम एक खतरनाक शिखर के आरोहण की सफलता दर्ज हो चुकी थी. अपने साथी आरोहियों के बलिदान की कड़वी यादों के बावजूद तेनजिंग के पर्वतारोही जीवन में ये बड़ी उपलब्धि थी. इस उपलब्धि ने तेनजिंग के एवरेस्ट शिखर पर पहुंचने की पटकथा भी तैयार कर दी थी. केदारनाथ, बंदरपूंछ, नंदा देवी ईस्ट जैसे शिखरों ने तेनजिंग के पर्वतारोहण कौशल को निखारा, उन्हें हिमालय की चुनौतियों से जूझना सिखाया और अंततः उत्तराखंड के इस अनुभव ने तेनजिंग के एवरेस्ट विजेता बनने की राह आसान की. इस अभियान के दो दशक बाद 29 मई 1953 को तेनजिंग एडमंड हिलेरी के साथ माउंट एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचने वाले दुनिया के पहले पर्वतारोही बने. नंदा देवी पर पुरूष ही नहीं, 1981 में पहली बार महिलायें भी पहुंची. हर्षवंती बिष्ट, चंद्रप्रभा एटवाल और रेखा शर्मा के नेतृत्व में इस दल ने सफल आहोरण किया. फिर 1982 में नंदा देवी सैंचुरी को पूरी तरह से बंद कर दिया गया. इसी वक्त नंदा देवी नेशनल पार्क की स्थापना भी की गई. नंदा देवी ईस्ट पर अब भी पर्वतारोही जाते हैं, लेकिन उसके लिये केंद्रीय वन मंत्रालय से विशेष अनुमति हासिल करनी होती है. हालांकि अब इस सैंचुरी में भूगर्भ वैज्ञानिकों के साथ ही रसायन वैज्ञानिक भी सर्वेक्षण के लिए जाते रहते हैं. आपको ये सुनकर थोड़ा अजीब लग सकता है कि हिमालय के बीचों-बीच इस सैंचुरी में रसायन वैज्ञानिकों का क्या काम. इसकी भी एक एक रोचक कहानी है जिसका संबंध सीधे अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए से है.

बात कुछ यूं है कि नंदा देवी पर्वत 1965 में अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए और भारत सरकार के एक सीक्रेट मिशन का हिस्सा बनी. हिंदी चीनी भाई भाई का नारा देने वाला पड़ोसी मुल्क चीन भारत को युद्ध में हरा चुका था. लिहाजा, भारत के जख्म हरे थे. इस युद्ध के दो साल बाद यानी 1964 में चीन ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया. चीन की न्यूक्लियर क्षमता का पता लगाने के लिए तब सीआईए ने भारत सरकार के साथ मिलकर एक मिशन चलाया. इस गुप्त मिशन के तहत नंदा देवी पर कुछ सेंसर लगाए जाने थे, जो चीन में हुए न्यूक्लियर टेस्ट और इसकी क्षमता को बताने में मददगार साबित हो सकते थे.

इन सेंसर्स को लगाने से पहले इसका ट्रायल अमेरिका में अलास्का की माउंट किनले पर 23 जून 1965 को किया गया. वहां ये सफल रहा तो उसके बाद नंदा देवी पर इस मिशन को अंजाम देने की प्रक्रिया शुरू हुई. ये पहले से सोचा गया था कि इतनी उंचाई पर सेंसर को बिजली तो कहीं से मिलेगी नहीं. हालांकि सोलर पॉवर के बारे में सोचा गया था, लेकिन नंदा देवी पर्वत पर अक्सर मौसम खराब रहता और तापमान माइनेस में रहने के कारण सोलर पैनल चार्ज ही नहीं होते. लिहाजा, तय किया गया था कि इस पूरे सयंत्र को उर्जा न्यूक्लियर डिवाइस से दी जायेगी. आठ सदस्यों के दल ने 20 अक्टूबर 1965 को डिवाइस को वहां तक पहुंचाने का काम शुरू किया. लेकिन कैंप चार तक पहुंचने के दौरान भारी तूफान में 8 सदस्यों का दल फंस गया. बिगड़ते मौसम की वजह से न्यूक्लियर डिवाइस को वहीं एक खूँटा गाड़कर उससे बांध दिया गया और ये दल नंदा देवी पर्वत के कैंप चार से नीचे लौट आया. फिर मई 1966 में उस डिवाइस तक पहुंचने की कोशिश हुई लेकिन कैंप चार में जिस जगह डिवाइस रखा गया था, वो कभी मिला ही नहीं. उसी समय से प्लूटोनियम 238 और 239 से लैस न्यूक्लियर डिवाइस से परमाणु विकिरण का ख़तरा बना हुआ है.

इस ख़तरे का आभास तब हुआ जब 2006 में अमेरिकी पर्वतारोही पेट टाकेड़ा ने नंदा देवी क्षेत्र से लिए सैंपल की जांच करवाई. जांच में प्लूटोनियम 238 और 239 का विकिरण पाया गया, जो नंदा देवी में 1965 में रखे गए डिवाइस में से मौजूद तत्वों में से एक था. 4 अगस्त 2009 में आई रिपोर्ट के बाद इस बात की जानकारी सरकार को दी गई लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई गंभीर कदम नहीं उठाए. सम्भव है कि गुपचुप तरीके से कुछ किया भी गया हो. लेकिन उस वक्त के गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी और मामले की सही जानकारी पता लगाने की अपील की/ हालाँकि इसके बाद भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. उस वक़्त के लाता ग्राम के प्रधान धन सिंह राणा ने भी सरकार से जांच की अपील की थी. अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नंदा देवी का नाम 1978 में तब आया जब सेन फ्रांसिस्को से प्रकाशित पत्रिका “आउट साइड” ने एक सीआईए जासूस के बयानों पर आधारित ‘नंदा देवी कैपर’ नाम से इसका खुलासा किया.

उसके बाद ही ये राज सबके सामने आया. इस मिशन में शामिल रहे कैप्टन मनमोहन सिंह ने एक इंटरव्यू में इस मिशन से जुड़ी कई बातों का खुलासा किया था. उनके मुताबिक यह मिशन बेहद सीक्रेट था. यही वजह थी कि मिशन के दौरान और बाद में भी मिशन से जुड़े सभी लोगों को यह सख्त हिदायत थी कि इस बारे में कहीं भी, कभी भी, किसी से कोई बात नहीं करनी है. उनके मुताबिक अमेरिका ने भी इस डिवाइस को लेकर कभी कोई बात नहीं की.

अब तक की कहानी से आप समझ गये होंगे कि नंदा देवी पर्वत श्रंखला आखिर क्यों दुनिया में इतनी दुर्गम और रहस्यमय मानी जाता है. लेकिन यही नंदा देवी पर्वत क्यों उत्तराखंड वासियों के लिये इतना पवित्र है, इसकी कहानी भी बड़ी रोचक है. वैसे नंदा देवी की ये कहानी कुमाउं और गढ़वाल में अलग-अलग है. बल्कि सिर्फ़ कुमाउं और गढ़वाल में ही नहीं, कई बार तो अगल बगल के गांवो में भी ये कहानी बदल जाती है. कुमाउं के इलाकों में तो नंदा देवी के साथ उनकी बहन सुनंदा की भी परिकल्पना की गई है जबकि गढ़वाल में कहानी थोड़ी अलग है.

उत्तराखंड में नन्दा देवी की पूजा-पद्धति की लोक परम्परा, पूर्व वैदिक काल की वामाचारी तंत्र पूजा-पद्धति का अंग है. वामाचारी तंत्र में सभी अनुष्ठान बांई दिशा से होते हैं. जबकि वैष्णव धर्म के सभी पूजा अनुष्ठान दाईं दिशा से होते रहे हैं. हैरानी की बात ये भी है कि खुद नंदा देवी वैष्णव धर्म से ताल्लुक रखती हैं जबकि शिव की अर्धागिनी सती और पार्वती शैव समुदाय से थी.

शास्त्रो में, शिव व शक्ति के युग्नध्वावस्था से सृष्टि की रचना बताया गया है. इन तीन युगों में आदि शक्ति अवतारी देवियां : दक्ष प्रजापति की पुत्री सती, हिमवन्त राजऋषि की पुत्री पार्वती और गोपराजा नन्द की पुत्री नन्दा; इन तीनों के शिव की पत्नी होने का उल्लेख मिलता है. स्पष्ट है कि नन्दा देवी उत्तराखण्ड की आनुष्ठानिक व आध्यात्मिक प्रथा में पूजी जाने वाली देवी मात्र न होकर, सृष्टि की उत्पत्ति की तीन अवतारी देवियों की श्रुति, स्मृति व पौराणिक परम्परा की आद्या-शक्ति में से एक है. आद्य शक्ति का मतलब होता है शिव व शक्ति की युग्नध्वावस्था. आसान भाषा में कहें तो एक जोड़ा, पर दो नही, जिसे अद्वैत अवस्था भी कहते हैं.

अभिलेखों के अनुसार शिव की आदिशक्ति, सत्ययुग में सती थी, जिन्हें माया भी कहते हैं. त्रेतायुग में पार्वती और द्वापरयुग में नन्दा थी. रुद्रसंहिता में उल्लेख किया गया है कि ब्रह्मा के निर्देश पर दक्ष ने सृष्टि की रचना प्रारम्भ की, लेकिन उनकी संख्या मे बढ़ौतरी न हो पाई. ऐसे में ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि स्त्री के बिना प्राणि जगत की संख्या नही बढ़ सकती. तब शिव और शक्ति अद्वैत अवस्था से द्वैत अवस्था में अलग-अलग हुए और नर व नारी के प्रजनन प्रक्रिया से प्राणि जगत की संख्या बढ़ने लगी.

पूर्व आईएएस और ‘साक्षात आदिशक्ति उग्रावतारा नंदा’ के लेखक एसएस पांगती लिखते हैं कि द्वापरयुग में दानवराज कंस को जब ये पता चला कि उसकी हत्या उसकी बहन देवकी और उसके पति बासुदेव से होने वाले पुत्र से होगी तो उसने दोनों को जेल में बंद कर दिया. अब उनका जो भी पुत्र हो, वो उसकी हत्या कर दे. ऐसे में जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो उसके स्थान पर गोकुल के गोपराजा नंद व यशोदा की नवजात बेटी नंदा को रख दिया गया. देवकी की गोद में नवजात कन्या मिलने पर कंस, नारी हत्या के अभिशाप की आशंका से उसकी हत्या करने से विमुख हुआ. लेकिन डर उसे तब भी था कहीं ये कन्या ही उसके काल का कारण न बन जाए. ऐसे में उसने उत्तराखंड में हिमालय के बीहड़ों में नंदा को निर्वासित कर दिया. अन्ततः नन्दा का विवाह उस युग के बेघरबार निरंकारी शिव से कर दिया गया. बीहड़ों में भटकती बर्फानी अंधड़ों में ये भूखी प्यासी दैत्यों का वध कर मानव समाज की सुरक्षा करती रही. प्राकृतिक आपदाओं से जूझने और दैत्यों का अकेले सामना करने के लिए, उसने आदिकालीन तंत्र विद्या की दक्षता शिव भगवान से हासिल की. उत्तराखण्ड के प्राचीन परम्परागत गाय वंशीय राजा, गोपराजा नन्द का सहयोगी शासक था जिसको नन्दा सौंपी गई. उनके परिवार की गोपियों ने ही चमोली जनपद में गोपेश्वर नाम के शिव मन्दिर का निर्माण करवाया.

गाय वंशी राजा की पुत्री होने के कारण उत्तराखण्ड के हर काल में राजपरिवार के साथ ही यहां की समस्त जनता भी नन्दा को, अपनी धियाण मानती रही है. पहाड़ में धियाण उसे कहते हैं जो लड़की अन्य गोत्र में ब्याह दी गई हो. ऐसी धियाण जब कई साल बाद मायके आती है, तो गांव की महिलायें पूजा के स्त्रोत में गाती हैं कि ‘धो दिखिन्या होये’ यानी बमुश्किल दिखने वाली क्यों हो गई. ये कह कर उसे, उलाहना दी जाती है. नन्दा भी अपने पिता को ये कहते हुए जावाब देती है कि, ‘मैके दिनी बुबा तैनऽ उद्या हिमालयऽ, सात पांच बैण्यो माझ, मै भयूं कुलौड़ी’ यानी ‘मैं ही तेरी अप्रिय पुत्री हुई जो तुमने हे पिता! मुझे हिमालय की कन्दराओं में ब्याह दिया.’ जब महीने भर के बाद नन्दा को ससुराल के लिये महिलाएं रूंधे हुए गले से विदाई के स्त्रोत का उच्चारण करती हैं तो कठोर हृदय पुरुषों की आंखें भी नम हो जाती हैं. व्यवहार में उत्तराखण्ड के निवासी नन्दा की पूजा अर्चना के अतिरिक्त, उसके साथ जीवन भी जीते हैं. उत्पीड़न की अनुभूति होने पर वे मन की पीड़ा का उद्गार करते हुए कहते हैं, ‘है नन्दा! तू रये सांचि’ यानी ‘हे नन्दा! मेरे प्रति सच्चाई की तू साक्षी है. ऐसे सैकड़ों जागर उत्तराखंड के अलग अलग इलाकों में गाये जाते रहे हैं.

एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि नन्दा वैष्णव देवी है, जब कि सती व पार्वती शैव पूजा-पद्धति की आराध्य देवियां है. पर नन्दा शैव सम्प्रदाय के मुखिया, कैलाश वासी शिव से ब्याह दी जाती हैं.  ग्रंथों में शैव व वैष्णव सम्प्रदायों में आदिकाल में सशस्त्र संघर्ष होने के सन्दर्भ मिलते हैं. स्पष्ट होता है कि दो परस्पर विरोधी सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने के लिए नन्दा ने औघड़ शिव के साथ, विकराल निर्जन कैलाश क्षेत्र में भटकना स्वीकार किया. नन्दा के समाज के हित में किए गए इस त्याग के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही उत्तराखण्ड के निवासी, वर्ष के आपदा ग्रस्त अवधि, ग्रीष्मकालीन वर्षा ऋतु के भाद्रपद में उन्हीं हिमालयी कन्दराओं में कठिन जात यात्रायें आयोजित कर नन्दा को कैलाश की ओर विदा करते हैं. उत्तराखण्ड में नन्दा की बारह साल में आयोजित होने वाली जात यात्रायें आधे दर्जन से भी अधिक हैं. अलग-अलग अवधि की ये यात्रायें विभिन्न क्षेत्रों में आम जनता द्वारा आयोजित होती रहती हैं.

एसएस पांगती अपनी किताब में लिखते हैं कि उत्तराखंड में तंत्र के तीन अनुष्ठान प्रचलित हैं. वामाचार, दक्षिणाचार और दैव्याचर पूजा-पद्धतियां. इनमें अनुष्ठानों और देव-चिह्नों की दिशा, घड़ी की सुई की दिशा और उसकी विपरीत दिशा यानी दोनों दिशा से किये जाने की अनिवार्यता रहती है. चमोली जनपद की विख्यात नन्दा-राजजात की यात्रा, घड़ी की सुई की उल्टी दिशा में सम्पन्न होती है. स्कन्द पुराण के मानस-खण्ड में कैलाश के यात्रा मार्ग की दिशा भी घड़ी की सुई की उल्टी दिशा में दी गई है. तीर्थ यात्रा मार्ग की दिशा के अतिरिक्त, स्वास्तिक की भुजाओं, धर्म-चक्र घुमाने की दिशा, मंदिरों और धार्मिक स्थलों की परिक्रमा आदि की दिशा के आधार पर अनुष्ठान के वामाचारी, दक्षिणाचारी या दैव्याचारी होने का प्रमाण माना जाता है. पर वर्तमान में वैदिक धर्म के अधिसंख्य अनुयायियों के प्रभाव से वामाचारी प्रथा, व्यवहार में होते हुए भी, उजागर नही हो पाती है.

श्रीकृष्ण की आज विश्वभर में पूजा की जाती है. परन्तु नन्दा, जिसने श्रीकृष्ण को कंस के हाथों होने वाली हत्या से बचाया था, उसको केवल उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में ही पूजा जाता है. गोकुल की नन्दा, द्वापर युग में कैलाश वासी से ब्याह दी गई थी. इस आधार पर उत्तराखण्ड सीमान्त क्षेत्र नन्दा का ससुराल माना जाता है. साथ ही उत्तराखण्ड के पारम्परिक गाय-वंश की गोद ली हुई पुत्री नन्दा का मायका भी माना जाता है. इसीलिये नन्दा को देवी के रूप में उत्तराखण्ड में संस्थापित किया गया और हर बारह साल में नन्दा का ससुराल से मायके आगमन और ससुराल के लिये विदाई का त्यौहार मनाया जाता है. इसमें दिलचस्प बात ये भी है कि दो हजार मीटर से नीचे बसे गांव नंदा का मायका है और तीन हजार मीटर से उपर के इलाके उसका ससुराल.

जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि मुख्यधारा के समाज में, श्रीकृष्ण की लीलाओं और देवासुर संग्राम में कृष्ण की प्रमुख भूमिका आदि काल से जानी जाती रही है. लेकिन आम लोग श्रीकृष्ण का जीवन बचाने वाली नंदा के बारे में अनभिज्ञ से हैं. ये ही कारण भी है कि अपनी बहन नंदा के कारण श्रीकृष्ण का उत्तराखंड से भी गहरा लगाव था. जानकार तो यहां तक कहते हैं कि अपनी बहन नंदा के कारण श्रीकृष्ण भी तांत्रिक अनुष्ठान करने लगे थे.

लेखक नंद किशोर हटवाल की किताब ‘चांचरी झमैको’ के खंड दो के भाग एक, ‘आस्था और विश्वास’ में बताया गया है कि उत्तराखंड वागंमय में ‘बाली कृष्णावती’ और ‘प्रदुमन पुछलो’ नाम की दो परंपरायें प्रचलित हैं. दोनों परम्पराओं में कृष्णावती और प्रदुमन को श्रीकृष्ण भगवान की पुत्री और पुत्र होने का दावा किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण द्वारा अपनी पुत्री कृष्णावती को एक शैव सन्यासी से विवाह कर देने का उल्लेख है. इस पर उनका पुत्र प्रद्युमन श्रीकष्ण से नाराज होकर पूछता है कि एक राजा की पुत्री, कैसे एक बेघर-बार निरंकारी जोगी से ब्याह दी गई? उसकी बहन के साथ इतना कठोर व्यवहार कैसे किया जा सकता है? श्रीकृष्ण के बार-बार नंदा के घर उत्तराखंड पहुंचने के संदर्भ से, स्थानीय लोक परंपरा भरी पड़ी है. नंदा देवी का मूल परिवार वैष्णव था, ये इससे भी स्पष्ट होता है कि जहां सती और पार्वती का उल्लेख शिव पुराण में आता है वहीं नंदा का उल्लेख विष्णुपुराण में मिलता है.

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले की भिलंगना घाटी में घुत्तू क्षेत्र है. यहां के बजिंगा गांव के मंदिर में, नंदा देवी को भगवान विष्णु के साथ प्राण-प्रतिष्ठित किया गया है. जबकि नंदा व महादेव के मुखौटे भी मंदिर में रखे गये हैं. अन्य मंदिरों में नंदा देवी अकेली या भगवान शिव के साथ प्रतिष्ठित मिलती हैं. इसमें एक दिलचस्प कहानी नंदा देवी की आदि गुरू शंकराचार्य से भी जुड़ती है. स्कंद पुराण के केदारखंड में नंदा के अधिवास का मानसरोवर क्षेत्र में स्थित होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है. नंदाष्टमी का अवसर सनातन धर्म के अध्यात्मिक अनुष्ठानिक उत्सवों में, नंदा देवी हिमशिखर के चारों ओर के क्षेत्रवासियों के लिये सर्वोच्च सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है. अलकनंदा नदी के किनारे मौजूद श्रीनगर कभी गढ़वाल रियासत की राजधानी थी. नदी के पार रानीहाट गांव में राज राजेश्वरी का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है, जिसमें भगवती नंदा की अत्यंत सुंदर कलात्मक मूर्ति प्राण प्रतिष्ठित है. वर्तमान में ये मंदिर केंद्र सरकार के पुरातत्व विज्ञान विभाग द्वारा संरक्षित धरोहर है. विश्वास किया जाता है कि तंत्र पूजा पद्धति के संचालन में उपयोग होने वाला श्री यंत्र इस मंदिर में संस्थापित है. श्री यंत्र उस रेखा मंडल को कहते हैं जो तप ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है. मान्यता है कि इस प्रकार का एक अन्य श्री यंत्र टिहरी जनपद के देवप्रयाग के निकट चंद्रबदनी मंदिर में भी स्थापित है. ये दोनों यंत्र इस प्रकार से स्थापित हुए थे कि उनकी दृष्टि एक दूसरे की सिधाई में पड़ती थी. अगर कोई इंसान इस क्षेत्र में तंत्र विद्या के विपरीत कोई हरकत अनजाने में भी कर दे तो उस पर यंत्रों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ जाता था.

ऐसी ही अनजान हरकत एक बार आदि गुरू शंकराचार्य ने भी की, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. धार्मिक ग्रंथ दुर्गासप्तशती सचित्र में इसका उल्लेख है. इसमें लिखा गया है कि हिंदू धर्म की पुर्नस्थापना करने के लिये आदि गुरू शंकराचार्य उत्तराखंड आए और यहां बद्रीनाथ धाम की स्थापना की. बद्रीनाथ में रहने वाले तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा के लिये, उन्होंने दोनों श्री यंत्रों की दिशाओं को बदल कर भूमिगत कर दिया था. ऐसा करने के बाद आदि गुरू शंकराचार्य खुद ही यंत्रों के विपरीत प्रभाव में आ गये और बीमार पड़ गए. बहुत उपचार के बाद भी वे ठीक नहीं हुए. ऐसे में रानीहाट राजराजेश्वरी के स्थानीय पुजारी ने आदि गुरू को सलाह दी कि, वे स्वयं तंत्र पूजा में विश्वास न करने पर भी शक्ति की पूजा करें. जब तक वे ऐसा नहीं करेंगे, तब तक ठीक नहीं हो पाएँगे. अंततः आदि गुरू ने तांत्रिक अनुष्ठान के घोर विरोधी होने के बावजूद ये सब किया और तब वे स्वस्थ हुए.

उत्तराखंड की तांत्रिक जागर परंपराओं में महामाया योग निद्रा को योगमाया या जोगमाया नाम से संबोधित किया गया है. गोकुल के गोपराजा नंद का उत्तराखंड के शासक परिवारों से निकट संबंध रहा है. चमोली जनपद के मुख्यालय पर गोपेश्वर महादेव का पौराणिक मंदिर इसका उदाहरण है. ऐतिहासिक काल में गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र में गाय वंशीय नाग राजाओं का आधिपत्य रहा है. इस वंश के शासकों के पराक्रम की तुलना सिंह यानी शेर से की जाती है. क्षेत्र के एक प्रसिद्ध जन नायक माधो सिंह भंडारी की बहादुरी की प्रशंसा में गायवंश के शौर्य के प्रसंग में कहा जाता है, ‘एक सिंह रण वन, एक सिंह गाय का, एक सिंह माधो सिंह और सिंह काहे का.’

उन नाग राजाओं ने अपनी कन्याओं को गायवंश की सेवा में तैनात किया, जिससे वे गोपी कहलाई. उन्होंने गायों के लिये छप्पर बनवाये, जिनको गोकक्ष कहा गया. इसी का अपभ्रंश गोष्ठ हुआ. ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरानुसार आवासी भवनों के भूतल के कमरों में गाय को रात में बांधा जाता है और उसे गोठ कहा जाता है. यह शब्द निश्चित ही गो कक्ष या गोष्ठ शब्दों से ही बना होगा.

उत्तराखंड में मां नंदा देवी महज एक आराध्य नहीं हैं, बल्कि यहां के निवासियों का मां नंदा से एक जीवंत रिश्ता भी है. इसलिये यहीं मां नंदा का मायका भी है और यहीं ससुराल भी. लिहाजा, यहां कोई उन्हें अपनी बहन मानता है, कोई बेटी तो कोई मां. भगवान से ऐसा अदभुत रिश्ता पूरे देश में कहीं और देखने को नहीं मिलता.

मां नंदा के मान-सम्मान में उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में हर साल मेलों का आयोजन किया जाता है. ये मेले अल्मोड़ा, नैनीताल, चमोली, नीति घाटी, कोटमन्या, भवाली, बागेश्वर, रानीखेत और चम्पावत के कई स्थानों में आयोजित होते हैं. जैसा कि पहले भी जिक्र आया, उत्तराखंड में गढ़वाल के पंवार राजाओं की भाँति कुमाऊँ के चन्द राजाओं की कुलदेवी भी नंदादेवी ही थीं इसलिये दोनों ही मंडलों के लोग नन्दा देवी के उपासक हैं.

नंदाष्टमी का मेला, पूरे उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का त्यौहार भी है. राज्य के अलग अलग इलाकों में इसे विभिन्न स्वरूपों में हर साल मनाया जाता है. पूर्व में गढ़वाल क्षेत्र के पंवार वंशी राज परिवार की व्यवस्था में संचालित होने के कारण इसे राज जात नाम से भी जाना गया. इसमें अलग अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपनी कुलदेवी की डोलियों के साथ भाग लेते हैं. नौटी गांव से तीन सप्ताह पैदल चलकर रूपकुंड होते हुए होमकुंड पहुंचते हैं और वहां से वापस नौटी पहुंचकर यात्रा पूरी करते हैं. ऐसी ही एक यात्रा चमोली जिले की नीति घाटी में भी आयोजित होती है जिसे ‘नंदा देवरा यात्रा’ कहा जाता है.

एसएस पांगती बताते हैं कि ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट तौर पर स्थापित हो चुका है कि गढ़वाल के पंवार और कुमाऊँ के चंद वंश से पहले भी नंदा देवी की यात्रा उत्तराखंड में हुआ करती थी. इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल की किताब ‘उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा’ के पृष्ठ 114 में उल्लेख है कि दूसरी और तीसरी ईसवीं के कुषाण शासकों के सिक्कों में नंदा देवी की आकृति उकेरी मिलती है. 144 से 174 ईसवी के कनिष्क साम्राज्य के सिक्कों में भी नंदा देवी के अतिरिक्त अहिस देव का नाम उकेरा मिलता है. वहीं कनिष्क के पर पोते हुविश्क के सिक्कों में नंदा देवी को शेर द्वारा धारण किये गये सिहांसन पर आसीन दिखाया गया है. कनिष्क तृतीय के सिक्कों में भी नंदा के अतिरिक्त ननाओसियो का नाम उकेरा गया है. डॉक्टर डबराल के अनुसार, सम्भवतः अहिस महेश के लिये और ननाओसिया का मतलब नंदा और महेश यानी शिव होगा. ऋग्वेद के नौवें मंडल के 112 सूक्त के तीसरे मंत्र में नंदा का उल्लेख मिलता है:

कारूरहं ततो भिशगुपलप्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोनु गा
इव तस्थिमेंद्रायेन्द्रो परिस्त्रव

इतना ही नहीं, पाण्डुकेश्वर से प्राप्त कार्तकेयपुर के कत्यूरी राजा ललितशुरा के ताम्रपत्र में भी नंदा देवी का नाम दर्ज है. कुमाऊँ में नंदा देवी की इस यात्रा का उल्लेख तो नहीं मिलता, लेकिन वहां भी इसका इतिहास 15 वीं सदी से मिलना शुरू हो जाता है. कुमाऊँ में नंदा देवी का मेला चंद वंश के शासन काल से अल्मोड़ा में मनाया जाता रहा है. इसकी शुरुआत राजा बाज बहादुर चंद के शासन काल में हुई थी. राजा बाज बहादुर चंद ही नन्दा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाए थे. इस विग्रह को उस कालखंड में अल्मोड़ा कचहरी परिसर स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया था. सन 1815 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नन्दा की प्रतिमा को मल्ला महल से दीप चंदेश्वर मंदिर, अल्मोड़ा में स्थापित करवाया.

हिमालयन गजेटियर लिखने वाले एटकिन्सन के साथ ही एचजी वाल्टन, जीआरसी विलियम्स, डॉ. शिव प्रसाद डबराल, डॉ. शिवराज सिंह रावत, यमुना दत्त वैष्णव, पातीराम परमार और राहुल सांकृत्यायन आदि के अनुसार नन्दा यानी पार्वती, हिमालय पुत्री हैं और उनका ससुराल भी कैलाश माना जाता है. पंवार वंश से पहले कत्यूरी वंश के शासनकाल से इस यात्रा के प्रमाण हैं. बल्कि डॉ शिव प्रसाद डबराल तो अपनी किताब में ये भी लिखते हैं कि सन् 1150 में राजजात में शामिल होने ही कन्नौज नरेश यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा अपने सैकड़ों के दलबल के साथ यहां पहुंचे थे और रूप कुंड के पास एक हादसे में इस पूरे दल की मौत हो गई थी. डॉ डबराल के इस लेखन से यह भी इशारा मिलता है कि अगर सन 1150 में कन्नौज नरेश इस यात्रा में शामिल होने इतनी दूर से पहुंचे थे तो पूरी संभावना है कि ये यात्रा इससे भी कई साल पहले से आयोजित होती रही हो.

स्क्रिप्ट : मनमीत

Scroll to top