सुंदर लाल बहुगुणा क्यों बन गए थे सरदार मान सिंह?

  • 2024
  • 18:18

 

बात उस दौर की है जब टिहरी शहर डूबा नहीं था. यहां एक तरफ़ बांध निर्माण का कार्य चल रहा था तो दूसरी तरफ़ बांध विरोध का आंदोलन भी गति पकड़ रहा था. सुंदर लाल बहुगुणा इस बांध के विरोध में अनशन पर थे और उन्होंने भागीरथी नदी के किनारे ही एक झोपड़ी में रहना शुरू कर दिया था. प्रदर्शन के इन्हीं दिनों में से एक दिन उन्होंने नदी किनारे बैठकर अपने उन दिनों को याद किया जब देश की आज़ादी से पहले वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे. उस दौरान एक समय ऐसा भी आया था जब वो अंग्रेज़ी हुकूमत को चकमा देने के लिए सुंदर लाल बहुगुणा से सरदार मान सिंह बन गए थे और लम्बे समय तक अपनी इसी पहचान के साथ रहे थे. अपने उन दिनों को याद करते हुए उन्होंने एक लंबा वृतांत लिखा था जिसमें उस दौर की घटनाओं का दिलचस्प ब्यौरा दर्ज है. 

19 जून 1945. वह रविवार का दिन था जब पब्लिक लाइब्रेरी में तीन घंटे तक पढ़ने और फिर सनातन धर्म सभा में लंच करने के बाद मैं अपने लॉज में लौटा. अपने कमरे के बाहर पुलिस वालों की साइकिलों को देख मैं हैरान रह गया. लाहौर के संत नगर में स्थित उस लॉज के मेरे साथियों ने जैसे ही मुझे लॉज में आते देखा, वे एक झटके में मुझे वहां से दूर छींच कर ले गए. उन साथियों में से एक मेरे साथ गली के मुहाने तक आया और उसने मुझे बताया कि पुलिस वाले मेरी तलाश में हैं और मेरे कमरे में बैठकर मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. उसने मुझसे कहा कि मुझे जल्द ही कहीं छिप जाना चाहिए.

 मैं साल 1940 में ही स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो चुका था. तब मेरी उम्र सिर्फ़ 13 बरस थी. जिस व्यक्ति ने मुझे यह प्रेरणा दी थी वो गांधी के सत्याग्रही श्री देव सुमन थे जो खुद भी टिहरी रियासत के रहने वाले थे. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें आगरा जेल में क़ैद किया गया था. वहां से रिहा होते ही वो टिहरी आए. लेकिन टिहरी में उन्हें फिर से क़ैद कर लिया गया और टिहरी जेल की सख़्त निगरानी में उन पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया गया. मैं तब टिहरी में इंटर मीडिएट का छात्र था. मैं किसी तरह श्री देव सुमन से मिलने में कामयाब रहा. उन्होंने जेल के अंदर अपनी सुनवाई के दौरान जो बयान दिया, उसकी एक प्रतिलिपि भी मैं अपने साथ ले आया था. 

मैंने उस बयान को नैशनल प्रेस भेज दिया. जैसे ही वो प्रकाशित हुआ, मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. अपनी परीक्षाएँ भी मैंने तब पुलिस की हिरासत में ही दी. फिर जैसे ही परीक्षाएँ ख़त्म हुई, मुझे नरेंद्र नगर ले जाकर पांच महीनों के लिए पुलिस लॉकअप में डाल दिया गया. इसी दौरान टिहरी रियासत में नागरिक अधिकारों की मांगों को लेकर श्री देव सुमन आमरण अनशन कर रहे थे. 84 दिनों के अनशन के बाद 25 जुलाई 1944 के दिन टिहरी जेल के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गई. इधर लगातार हवालात के कठोर जीवन में कंकड़ों वाली रोटी और मिट्टी का तेल मिली हुई दाल खाने के चलते मैं बीमार पड़ने लगा था. वो गर्मियों के दिन थे और मुझे नहाने का जो पहला मौक़ा दिया गया, वो पूरे 63 दिन बाद आया था. मुझे हर हफ़्ते पुलिस के मुख्य अधिकारी के सामने पेश किया जाता जो मुझसे पूछता कि ‘अब तुम्हारा दिमाग़ कैसा है?’ इस पर मेरा जवाब होता, ‘बिलकुल वैसा ही जैसा मेरी गिरफ़्तारी के वक्त था.’

मेरी तबियत लगातार बिगड़ रही थी और डॉक्टरों ने लॉकअप में मेरा उपचार करने से इनकार कर दिया था. तब एक स्ट्रेचर में डाल कर मुझे अस्पताल ले ज़ाया गया. वहां से छूटते ही मैं लाहौर निकल गया जहां मेरा बड़ा भाई पढ़ाई कर रहा था. लाहौर के सनातन धर्म कॉलेज में मेरा भी दाख़िला हो गया. रोज़ तड़के तीन मील पैदल चलने के बाद बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने से जो दस रुपए महीने के मिलते थे, उससे बस नमक लगी रोटी और चाय की ही व्यवस्था हो पाती थी. ऐसी ग़रीबी और ख़राब स्वास्थ्य होने के बाद भी मैं अर्ध-वार्षिक परीक्षा में इतिहास और राजनीतिक विज्ञान में प्रथम आया. तब प्रोफ़ेसर रोशन लाल वर्मा, जो स्वयं भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल में रह चुके थे, उन्होंने मुझमें दिलचस्पी ली और मुझे राजनीतिक विज्ञान में ऑनर्स कोर्स लेने के लिए प्रोत्साहित किया. मेरे पास पाठ्यक्रम की किताबें भी नहीं थी लिहाज़ा मेरा अधिकतर वक्त लाइब्रेरी में ही गुजरता. वार्षिक परीक्षा में मेरे अंक और भी बेहतर आए और तब मुझे छात्र-वृत्ति मिलने लगी. मुझे याद है कि ऐन्यूअल फ़ंक्शन के दिन डॉक्टर गोपी चंद भार्गव ने मुझे जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ देकर पुरस्कृत किया था. 

सब कुछ ठीक चल रहा था और मेरे प्रोफ़ेसरों को पूरा विश्वास था कि मैं यूनिवर्सिटी टॉप करके कॉलेज का नाम रोशन करूँगा. मेरा भाई इस वक्त तक अपनी पढ़ाई पूरी करके घर लौट चुका था. लाहौर में भी प्रजामंडल की एक शाखा थी जिसे उन लोगों ने शुरू किया था जो रोज़गार की तलाश में टिहरी से लाहौर आए थे. मैं भी अक्सर इसकी मीटिंग्स में जाया करता था और इसीलिए स्थानीय पुलिस मुझे खोजते हुए मेरे कॉलेज होस्टल पहुंची थी. मेरे साथियों का कहना था कि अगर मैं टिहरी लौट गया तो वहां मुझे जेल में डाल दिया जाएगा और मेरी हत्या कर दी जाएगी. ऐसे में उन्होंने मुझे अग्रवाल होस्टल भेज दिया जहां शिमला के कामेश्वर पंडित जी रहा करते थे. वो अर्थशास्त्र में पीएचडी कर रहे थे. वो जब भी बाहर जाते तो मुझे अपने कमरे में ही बंद कर जाते और मैं सिर्फ़ रात को ही बाहर निकल पाता. एक हफ़्ते इस तरह रहने के बाद मेरे दोस्तों ने मुझे लयालपुर भेजने की योजना बनाई.

मैं अमूमन खादी का कुर्ता और पजामा पहना करता था. लेकिन उन्होंने मुझे शर्ट और पतलून पहनने को दी, मेरे सर पर हैट लगाया और एक चश्मा भी दिया. अब मैं पूरी तरह एक अलग इंसान बन चुका था. शाम होने पर वे मुझे एक साइकल में बैठाकर शाहदरा स्टेशन ले गए. यहां से लयालपुर को जाने वाली ट्रेन में बैठाने के साथ ही उन्होंने मेरी जिम्मेदारी तुजैल अहमद को सौंपी जो लेबर यूनियन के सचिव थे. 

हम लोग देर रात लयालपुर पहुंचे. मेरा नाम बदलकर मान सिंह रख दिया था. लेकिन मुझे न तो पंजाबी बोलनी आती थी और न ही उर्दू पढ़नी. इसलिए मेरा परिचय इस तरह दिया गया कि मैं काम की तलाश में अंबाला से आया हूं. अगले दिन तुजैल अहमद ने एक कॉटन मिल में मज़दूर की नौकरी के लिए मेरा आवेदन पत्र तैयार किया. इसे उन्होंने उर्दू में लिखकर मेरा अंगूठा लगवा लिया था. नौकरी के लिए लाइन लगाए हुए तमाम लोगों के साथ ही मैं भी लाइन में शामिल हो गया. एक मज़दूर की तरह दिखने के लिए मैंने लम्बा कुर्ता और लुंगी पहनी हुई थी. कुछ ही देर में मिल का मैनेजर आया और मुझसे मेरे अनुभव के बारे में पूछने लगा. जिन लोगों को इस काम का पहले से अनुभव था उन्हें चुना जा रहा था और बाक़ी सभी को वापस लौटने के निर्देश दिए जा रहे थे. काम की तलाश में आए तमाम लोग गिड़गिड़ा रहे थे लेकिन ग़ुस्साए मैनेजर के निर्देश पर वहां के गार्ड ने सभी को डंडे भांजकर खदेड़ दिया. वहां कैंटीन में बर्तन माँजने के लिए एक सहायक का पद ख़ाली था. मैंने इसके लिए भी हामी भरी लेकिन मुझे कहा गया कि इस पद के लिए अलग से आवेदन पत्र लाना होगा. अंततः हम सभी को वहां से बाहर कर दिया गया और मिल के दरवाज़े बंद हो गए. 

उसी शाम लेबर यूनियन के ऑफ़िस में ज़िला कॉम्युनिस्ट पार्टी के सचिव एस बसंत सिंह पहुंचे थे. उन्हें जब बताया गया कि मैं कल से मिल की कैंटीन में बर्तन माँजने की नौकरी करने वाला हूँ तो उन्होंने साफ कहा, ‘नहीं. मैं इसे स्कूली बच्चों को पढ़ाने की नौकरी दूँगा.’ अगले ही दिन मुझे अनाज व्यापारी सरदार गुरदयाल सिंह के घर ले जाया गया. मुझे उनके गांव जाना था लेकिन तभी एक बुजुर्ग सरदार जी वहां आए और मेरे बारे में जानने के बाद उन्होंने निवेदन किया कि मुझे उनके साथ भेज दिया जाए, क्योंकि वो एक दुर्गम गाँव में रहते थे जहां कोई भी ट्यूशन पढ़ाने वाला नहीं था. उनका नाम सरदार घुला सिंह था. वो चक झुमरा के पास बसे गांव सिखाँवाला के एक बड़े किसान थे. तक़रीबन तीन घंटे तांगे में सफर करने के बाद जब हम उनके गाव पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था. उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ थीं. उनका बड़ा-सा घर बिलकुल क़िले जैसी चार-दीवारी के अंदर था और बाहर मज़दूरों की छोटी-छोटी झोपड़ियाँ थी. सरदार जी ने अपने परिवार से मेरा परिचय करवाया. लयालपुर की पंजाबी मुझे समझ में नहीं आती थी लेकिन मुझे समझ आया कि आठवीं में पढ़ने वाले उनके दोनों बेटे, निरंजन और करनैल, मेरे आने से बहुत खुश हैं. 

सरदार बसंत सिंह ने मेरी काफी तारीफ़ की थी. लेकिन यहां सरदार जी और उनके बच्चों को समझ आ गया था कि मैं एक शिक्षक के रूप में उनके किसी काम का नहीं. क्योंकि मुझे न तो उर्दू पढ़नी आती थी और न ही गुरमुखी. मुझे घर के बाहर अलग से एक कमरा दे दिया गया था जहां मैं अधिकतर समय दरवाज़ा बंद करके उर्दू पढ़ने और लिखने की कोशिश करता रहता. लेकिन ये बहुत मुश्किल था. करीब एक हफ़्ते बाद ये तय हुआ कि मुझे चक झुमरा से वापस लयालपुर की ट्रेन में बैठा दिया जाए. मैं इस बात से काफी परेशान था कि वहाँ पुलिस मुझे पहचान लेगी. लेकिन जब मैं गांव से निकलने लगा तो सरदार जी के बड़े बेटे निरंजन ने अपने पिता से निवेदन किया कि मुझे यहीं रहने दिया जाए क्योंकि उसे मेरे साथ खेलना पसंद था. इस तरह से इस परिवार के साथ मेरा रहना सुनिश्चित हो गया. 

जल्द ही मैंने पाया कि गुरमुखी सीखना उर्दू से काफ़ी आसान है. इसके लिए मुझे सिर्फ़ अक्षरों पर पकड़ बनाने की जरूरत है. तब मेरे छात्र ही मेरे शिक्षक बन गए थे और जब वे स्कूल में होते तो मैं गुरुद्वारे में बैठकर ग्रंथ साहिब पढ़ा करता. इसे पढ़ना और समझना आसान था. इस दौरान मैंने गांधी जी की कई पुस्तकें मँगवाई और उनकी आत्मकथा के साथ ही उनके रचनात्मक कार्यक्रम को बारीकी से पढ़ा-समझा. इनसे मुझे एक नया नज़रिया मिला. मुझे समझ आया कि सिर्फ़ नारे लगाना या लेख लिखना ही आज़ादी की लड़ाई में शामिल होना नहीं है बल्कि इनसे ज़्यादा जरूरी गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम है. सेवा, स्वाध्याय, श्रम और अंततः तपस्या व संयम के माध्यम से आत्मानुशासन.

लाहौर में मैं बेहद ग़रीबी में रहा लेकिन यहां पूरे परिवार का प्यार और स्नेह मुझे मिल रहा था. मुझे सिर्फ़ एक शिक्षक नहीं बल्कि सरदार जी अपने बड़े बेटे जैसा मानने लगे थे. लिहाज़ा मेरे लिए सारी सुविधाएँ यहां मौजूद थी. लेकिन गांधी जी के लेखन ने मेरी आखें खोल दी थी. मैंने चरखा कातना शुरू कर दिया. कपास यहां खेतों में उगती थी और बड़े-बड़े चरखे लगभग हर घर में चलते थे. मैं जब कताई करने बैठा तो शुरुआत में सबको लगा कि मैं बस शौक़िया तौर पर ये कर रहा हूँ. लेकिन जब उन्होंने मुझे घंटों चरखे के पास बैठा देखा तो गांव के बच्चों और युवाओं ने मुझे घेर लिया और मेरा मज़ाक़ बनाते हुए वो कहने लगे, ‘कुड़ी है कुड़ी’ यानी ये ‘लड़की है लड़की.’ कातना तब लड़कियों का ही काम समझा जाता था. जिस परिवार के साथ मैं रह रहा था उनके लिए स्थिति तब और भी असहज हो गई जब मैंने खादी भंडार के कपड़े पहनने से भी इनकार कर दिया और अपने हाथ से बनाए हुए मोटे कपड़े पहनने लगा. सफेद कपास के अलावा यहां, भूरे रंग की कपास भी उगाई जाती थी और उनकी धुनाई खेस यानी शॉल और चादर बनाने के लिए की जाती थी. पगड़ी के कपड़े के लिए मैं अब भी खादी भंडार पर ही निर्भर था.

इसके बाद मैंने अगला काम सड़कों की सफ़ाई का शुरू किया. यहां चारों तरफ गंदगी और मानव मल फैला रहता था जिस पर मैं पहले तो राख या मिट्टी डालता और फिर उसे एक बाल्टी में उठा कर फेंक दिया करता. मेरे इस काम से परिवार वाले परेशान हो गए. ये उनके परिवार की शान के ख़िलाफ़ था कि उनका सबसे बड़ा बेटा मानव मल ढोने वाले कथित ‘चूड़े’ का काम करे. सरदार जी और उनकी पत्नी उन लोगों को खूब कोसते जो सड़कों पर गंदगी फैलाते थे. 

मैं दलितों में भी दलित हो गया था क्योंकि यहां के कई दलित परिवार कचरा उठाने का काम छोड़कर मज़दूरी करने लगे थे. लेकिन मेरे लिए ये अपने अहंकार को खत्म करने वाला सबसे सम्मानजनक काम था. मैंने इसकी महत्ता को बहुत सालों बाद तब समझा जब हमने 1956 में सिलयारा आश्रम स्थापित किया. गांधी जी के भगवान आलीशान मंदिरों में नहीं रहते थे. न ही वे सोने की मूर्तियों में बसते थे. गरीबों में सबसे गरीब ही उनके भगवान थे.

जब मैं मानव मल उठाने लगा तब मैंने उन दलितों की पीड़ा को समझा जो शहरी इलाकों में बने पुराने ढंग के शौचालयों से हर दिन मानव मल उठाया करते थे. आज़ादी के बाद, जब मैं टिहरी में जिला कांग्रेस कमिटी के महासचिव के रूप में काम कर रहा था, तो मैंने वाल्मीकि मोहल्लों में लोगों को लड़ते-झगड़ते देखा. पूरा दिन मैला ढोने के बाद वे लोग इसे भूलने के लिए शराब पीते थे और फिर आपस में लड़ाई-झगड़ा किया करते थे. पुलिस या कोई भी व्यक्ति छुआ-छूत के चलते उनके झगड़ों में दखल भी नहीं देता था. मेरे लिए ये देखना असहनीय हो चला था. लिहाज़ा कथित उच्च जातियों से तमाम अपमान सहने के बाद भी मैंने वाल्मीकि बस्ती में एक स्कूल शुरू किया जो रात में चला करता था. आज़ादी के बाद भी टिहरी राज्य में छुआ-छूत पहले जैसा ही था. बल्कि शिल्पकारों को अब भी पानी और भोजन छूने या मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी. मैंने छुआ-छूत के ख़िलाफ़ काम करना शुरू किया. रात्रि स्कूल शुरू हो ही चुका था जहां खूब भक्तिगीत और भजन बजा करते थे. इसके अलावा हमने ठक्कर बापा छात्रावास भी शुरू किया जो कि सभी समुदायों के छात्रों के लिए खुला था. इस छात्रावास की बिल्डिंग निर्माण में मैंने पूरे-पूरे दिन मजदूर के रूप में भी काम किया. जल्द ही ये हाशिए के लोगों के उत्थान का प्रमुख केंद्र बन गया था. इसके बाद हमने मंदिरों में प्रवेश के लिए आंदोलन शुरू किया और इस दौरान अगस्त 1956 में बूढ़ा-केदार मंदिर में हमें चप्पलों तक से पीटा गया. 

सिखांवाला की कहानी पर वापस लौटते हैं. वहां खाना बहुत अच्छा था. लेकिन मैंने इस पर गहनता से सोचा कि मुझे इतना अच्छा खाना खाने का क्या अधिकार है? परिवार के बड़े लोगों को ये समझाना मुश्किल था कि वे मेरे लिए सादा खाना बना दिया करें. इसलिए मैंने तय किया कि मैं दिन में सिर्फ़ एक बार ही भोजन करूँगा. मैंने पूरे एक साल तक ऐसा ही किया. तब भी जब मैं ये गांव छोड़ चुका था. इससे मैंने अपनी जीभ पर नियंत्रण सीखा जो हमेशा स्वादिष्ट भोजन के लिए आतुर रहती है. मुझे लगता है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए जीभ पर दोनों तरह का नियंत्रण बहुत ज़रूरी है, स्वाद का भी और शब्दों का भी. ये ब्रह्मचर्य का पालन करने में भी मदद करता है. अपने सार्वजनिक जीवन में मैं लंबे उपवास इसी प्रशिक्षण के चलते आसानी से रख सका. 

दो महीनों के अंदर ही मैं उर्दू और पंजाबी लिखने और बोलने लगा था. बच्चे भी मुझसे हिंदी सीख रहे थे. पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा, मेरे सादे जीवन ने उन्हें प्रभावित किया. वे मेहमानों को शराब पिलाने का विरोध करने लगे और उन्होंने मीट खाना भी छोड़ दिया था. इससे परिवार में बवाल मच गया. मां ने मुझसे कहा, तू इन लड़कों को क्या सिखा रहा है? इन्हें समाज में रहना है और अगर ये ऐसे ही रहे तो लोग कहेंगे कि वे किसी सभ्य परिवार के बच्चे नहीं हैं. आज की ही तरह तब भी शराब और मांस प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते थे.

इस तरह सिखांवाला में मेरा जीवन, सीखने और ख़ुद को समाज सेवा के लिए तैयार करने वाला रहा. मुझे एहसास हुआ कि जो समय मैंने राजनीतिक दर्शन और ऐतिहासिक घटनाओं को पढ़ने-समझने में बिताया, वो व्यर्थ था. उसके असली जीवन से कोई सरोकार नहीं थे. इसके लिए मुझे सही बौधिक खुराक गीता और गुरु ग्रंथ साहिब से मिली.  

एस. बसंत सिंह जी अक्सर हमारे गाँव आया करते और हर बार वो पीपल्स पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित नै किताबें ले आते. इनमें से कुछ रूसी किताबों का पंजाबी अनुवाद होती थी. मैंने सत-रंगी पींघ नाम का एक उपन्यास पढ़ा था जो नाज़ियों के ख़िलाफ़ संयुक्त रूस के लोगों के बलिदान और देशभक्ति की कहानी थी. मुझे उसका एक गीत आज भी याद है:

भाई निभाएं लोकां दी 

हे, असमानी रोभा 

जो लड्डे नें हक्कां लई 

इसका मतलब है, ‘हे भगवान! उन लोगों पर कृपा करना, जो लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते हैं. 

कुछ दूसरी किताबें जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई, उनमें महान पंजाबी उपन्यासकार एस. नानक सिंह के उपन्यास थे, प्रीतलारी के एस. गुरबक्श सिंह की रचनाएँ थी और अमृता प्रीतम की कविताएँ. इसके लगभग पचास साल बाद जब दिल्ली में एक मीटिंग के दौरान मैं अमृता प्रीतम से मिला, तो वह मुझसे अपनी कविता की एक पंक्ति सुनकर हैरान रह गयीं: 

मेरे गीत अमुकवाएँ हां 

मेरा प्यार अनोखा 

यानि मेरे गीत अनंत है और मेरा प्यार अनोखा. 

उसी मीटिंग में मेरी मुलाकात हरकिशन सुरजीत से भी हुई, जिन्होंने मुझे बताया कि कॉमरेड बसंत सिंह अभी भी CPM के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, लेकिन मैं अभी तक उनका पता नहीं लगा सका.

मेरे पिता घोड़ों से बहुत प्यार करते थे. बचपन में वो मुझे अपने साथ घोड़े पर बैठाकर टिहरी ले जाते थे. लेकिन मैं सिर्फ़ आठ साल का था जब उनकी मृत्यु हो गई. इसके बाद मैं घुड़सवारी करने की अपनी इच्छा कभी पूरी नहीं कर सका. सिखांवाला में तीन घोड़े थे. शाम को अक्सर निरंजन और करनैल, झंग नहर के किनारे घुड़सवारी का आनंद लिया करते थे. 

एस. गुप्ता सिंह जी अपने विशिष्ट मेहमानों से मेरा परिचय करवाते हुए गर्व से बताते थे कि मैं अंग्रेजी बोलता हूं और उनके बच्चों का पढ़ाता हूं. ऐसे ही एक दिन जिन विशिष्ट अतिथि का आना हुआ वो चक झुमरा के पुलिस अधिकारी थे जो हर 6 महीने में फसल कटाई के बाद अपना हिस्सा लेने आते थे. इस हिस्से के बदले वो गांव के किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं लेते थे. लेकिन मेरे लिए उनकी मौजूदगी खतरे की घंटी थी. मुझे शक हुआ कि अगर उन्होंने मुझे पहचान लिया तो मैं सीधा हवालात में डाल दिया जाऊँगा. लिहाज़ा मैं वहाँ से चुपचाप निकल कर खेतों में छिप गया और तभी बाहर आया जब वो थानेदार जा चुका था.

अब तक मैं पूरी तरह से एक सरदार बन चुका था. कोई नहीं कह सकता था कि मैं सुन्दरलाल बहुगुणा हूं. लेकिन पगड़ी बांधना मुझे अभी भी नहीं आता था. इसलिए जब भी मुझे लयालपुर के खालसा कॉलेज जाने पर रात को हॉस्टल में रुकना होता तो मैं बड़ी सावधानी से अपनी पगड़ी को उतार कर रखता. 

मई 1946 में मैंने प्रोफेसर रोशन लाल वर्मा को पत्र लिखा. उन्होंने मुझे तुरंत लाहौर आने को कहा. अब मेरी गिरफ़्तारी का कोई ख़तरा नहीं था. मैंने लाहौर की ट्रेन पकड़ी और सुबह-सुबह जब मैंने ग्वालमंडी में प्रो. वर्मा का दरवाजा खटखटाया तो मेरे बोलने तक वह मुझे पहचान ही नहीं सके. अगले दिन मैं कॉलेज गया और वहाँ भी मुझे कोई नहीं पहचान सका. फिर मैन सिखांवाला वापस लौटा ताकि परिवार से विदाई ले सकूं. विदाई का ये पल काफी भावुक था. निरंजन, करनैल, जगजीत, जोगिंदर और समिंद्रा कौर. हम सब रोए. मैंने दिवाली की छुट्टियों में आने का वादा किया और ये वाड़ा मैंने निभाया भी लेकिन इस बार सरदार मान सिंह नहीं बल्कि फिर से सुंदरलाल बहुगुणा था जो कोई मास्टर जी, बल्कि कॉलेज का एक छात्र था. 

कॉलेज में मैं फिर से अपनी पढ़ाई के लिए गंभीर हो गया लेकिन अब प्रजामंडल की गतिविधियों में भी पहले से ज़्यादा सक्रिय हो गया था. मई 1947 में जब परीक्षाएँ खत्म हुई तो मैं टिहरी लौट आया और फिर कभी सिखांवाला या लाहौर जाना नहीं हुआ. आज़ादी अपने साथ पंजाब का विभाजन लेकर आई थी. मैं हर समय घुला सिंह जी के परिवार के बारे में सोचता रहता था. वे अमृतसर की अट्टारी तहसील के बूह गांव में आ गए थे. इसके लगभग 50 साल के निरंजन अपनी हेमकुंड यात्रा के दौरान मुझसे मिलने ऋषिकेश आया. वो और करनैल मुझसे अमृतसर में दोबारा तब मिले, जब मैं पिंगलवाड़ा के भगत पूरन सिंह जी की पहली बरसी में भाग लेने के लिए वहां गया था. मैंने भगत जी को कभी नहीं देखा था. लेकिन उन्होंने चिपको और पर्यावरण पर मेरे लेख हजारों की संख्या में बांटने के लिए प्रकाशित किए. अपने मिशन के लिए मुझे पिंगलवाड़ा से लगातार समर्थन मिला. सरदार सुरजीत सिंह बरनाला ने भगत जी को मेरे जंगलों को बचाने के काम के बारे में बताया था. उन्हें खुद तब इसके बारे में जानकारी हुई थी जब वे केंद्रीय कृषि मंत्री थे. 

भागीरथी के किनारे बैठकर इस पवित्र नदी को बचाने का प्रयास करते समय, जिसे अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए बांध बनाकर नष्ट किया जा रहा है, एस. मान सिंह के रूप में मैंने जो कुछ भी हासिल किया, वो मुझे गंगा और हिमालय को बचाने के लिए लड़ने की शक्ति और साहस देता है. 

सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने सरदार मान सिंह बन जाने की इस कहानी को तब लिखा था जब टिहरी बांध विरोध का आंदोलन चल रहा था. आज इस बांध को बने कई साल हो चुके और बहुगुणा जी जिन चिंताओं को लेकर तब आवाज उठा रहे थे, वो आज और भी विकराल हो चली हैं. लेकिन उनका संघर्ष ही हमें वो रास्ता भी दिखलाता है जिस पर चलकर हम पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं का समाधान खोज सकते थे. 

 

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