आज से लगभग 1200 साल पहले एक 23 साल का सन्यासी अपने कुछ अनुयायियों के साथ सैकड़ों दिनों की पदयात्रा कर एक ऐसे घाटीनुमा स्थान पर पहुंचा, जहां से महज कुछ दूरी पर शीत पठारों का देश शुरू होता था. उसने देखा चारों ओर हिमाच्छादित पहाड़ियां है. एक नदी है, जो अभी-अभी एक ग्लेशियर से निकल कर खुले आसमान में इतराते हुये तेज वेग से बह रही है. उस नदी के सर्द हाड़ कपांते पानी से राहत देने के लिये एक गर्म पानी का श्रोत भी है. जिसकी गंधक की महक और भाप हजारों किलोमीटर की थकान को हर लेती है. उस नवयुवक को ये भी पता चला कि वो जिस घाटी में खड़ा है, वो हिमालय श्रंखलाओं के बिल्कुल बीचों बीच मौजूद है. कुछ देर तक उस नवयुवक ने आंखे बंद की और जब खोली तो उसके मुंह से निकला, यह पूरा इलाका अब वैष्णव क्षेत्र कहलायेगा और इस घाटी में भगवान विष्णु का सबसे बड़ा धाम का प्रतिष्ठान होगा.
ये सन्यासी दिव्य नवयुवक थे आदिशंकर, जो केरल के कलाड़ी गांव से चलकर यहां तक पहुंचे थे. जिन्होंने भारत में चार मठों को स्थापित किया. कालांतर में ये ही शंकर नाम के सन्यासी नवयुवक आदि गुरू शंकराचार्य कहलाये. आदि गुरू शंकराचार्य को हिंदू धर्म की पुनस्र्थापना करने का श्रेय दिया जाता है. शंकराचार्य के बाद से ही सनातन धर्म में शंकराचार्य की परंपरा शुरू हुई. महज 32 साल की उम्र में आदि गुरू ने केदारनाथ में महासमाधि ले ली थी. लेकिन अपनी मृत्यु से पहले वो अद्वैत वेदांत की रचना कर चुके थे. अद्वैतवाद के सिद्वांत के अनुसार, इस वास्तविकता और अनुभवी दुनिया की सभी चीज की जड़े ब्रह्म से जुड़ी हुई है. उनका मनना था कि चेतना अपरिवर्तनीय है.
मतलब, ब्रहाण्ड में ब्रह्म ही सत्य है. उन्होंने बीस साल की उम्र से पहले ही भगवतगीता, उपनिषदों और वेदांत सूत्रों पर कई फिलोसॉफी लिखी. उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान कर्मसमुच्चयवाद का भी खंडन किया. सांख्यदर्शन जैन धर्म के कपिल मुनि द्वारा दिया गया है जबकि मीमांसा दर्शन महर्षि जैमिनि ने ईसा से 300 साल पहले दिया था.
सैकड़ों सालों का वक्त बीता, कई आपदायें आई, कई युद्ध हुये और कई अकालों से सदी गुजरी. लेकिन बदरीनाथ हिंदू धर्म के चार संप्रदाय में से एक वैष्णव के अनुयायियों का सबसे बड़ा आस्था का केंद्र बनता गया. हर साल हजारों की संख्या में यहां देश भर से श्रद्धालु आने लगे. श्रद्धालु आने लगे तो उनकी जरूरतों के लिये दुकानें भी खुली तो कुछ धर्मशालायें भी बनी. धीरे-धीरे बद्रीनाथ मंदिर के आसपास एक छोटा सा कस्बा आकार लेने लगा. इन्हीं बीत चुकी सदियों में कुछ नियम कायदे भी बने और कुछ रोचक घटनायें भी हुई. आज हम आपको बद्रीनाथ धाम की कई रोचक जानकारी देंगे.
इस प्रोग्राम की शुरूआत में ही हम आपको मोटा माटी ये बता चुके हैं कि बद्रीनाथ धाम की स्थापना कैसे हुई और किसने की. हालांकि कई बार एक थ्योरी विवाद का कारण भी बनती है, जिसमें कहा गया है कि बद्रीनाथ में पहले से एक बौन मंदिर हुआ करता था. हालांकि कई इतिहासकारों ने बौन के बारे में ज्यादा जानकारी न होने के चलते इसे बौद्ध मठ भी कहा. जिसमें कई बड़े नामों में से एक राहुल सांकृत्यायन भी थे. खैर, हम आज उस मुददे पर नहीं जा रहे हैं. लेकिन अगर बौन शब्द सुनकर आपको कुछ अटपटा लगा है तो हमारे पास आपके लिये इस सवाल के एवज में बौद्धिक खुराक मौजूद है. उत्तराखंड के प्राचीन बौन धर्म के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो बारामासा में हाईलैंडर्स सीरीज का कार्यक्रम उत्तराखंड में बौन धर्म देख सकते हैं. आपकी सुविधा के लिये लिंक डिस्क्रिप्शन में दे दिया गया है.
बहरहाल, 1928 में टिहरी राज दरबार में वजीर रहे पंडित हरीकृष्ण रतूड़ी ने अपनी किताब गढ़वाल का इतिहास में उस समय के बद्रीनाथ धाम का खाका खींचा है. वो लिखते हैं कि हर साल यहां पर लगभग 40 से 50 हजार यात्री आते हैं. हरिद्वार में जब कुंभ होता है तो ये संख्या बढ़ जाती है. मंदिर की आय के मुख्य दो श्रोत है. एक ही भूमि से लिया गया टैक्स जिसे मालगुजारी भी कहते हैं और दूसरा है श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित किया गया चढ़ावा. बड़ी बात ये है कि बद्रीनाथ मंदिर का अल्मोड़ा जिले के 45 गांवों पर राज है तो अल्मोड़ा के 26 गांव में भूमि है. जिससे साल भर में 1750 रूपये का टैक्स आता है. गढ़वाल में 164 गांव इस मंदिर के अधीन हैं, जिनसे 5429 रूपये वार्षिक आय होती है. कुल मिलाकर टैक्स से साल भर में 7179 रूपये की आय होती है. अब ये गांव बद्रीनाथ मंदिर के अधीन क्यों थे, इसका भी एक दिलचस्प इतिहास है.
इसके बारे में एडविन एटकिंसन ने अपने महाग्रंथ हिमालयन गजेटियर में विस्तार से लिखा है. बद्रीनाथ गढ़वाल राजवंश के इष्टदेव हैं. इसलिये यहां गढ़वाल के राजा को बोलंदा बद्री या हिंदी में कहें तो बोलने वाला बद्रीनाथ कहा जाता है. ऐसा भी कहा जाता था कि राज परिवार की गद्दी बद्रीनाथ की ही गददी है. श्रद्धालुओं में ये विश्वास है कि बिना राजा के दर्शन किये यात्रा सफल नहीं होती. राजा के इष्टदेव होने से और राज गद्दी बद्रीनाथ की होने से मंदिर के धर्म संबंधी तथा इंतजाम संबंधी शक्ति टिहरी नरेश के हाथ में रखी गई थी. इसी दौरान गोरखाओं ने पहले कुमाउं और फिर गढ़वाल पर हमला कर दिया.
गोरखाली आक्रमण के समय टिहरी के राजा ने बद्रीनाथ मंदिर से बतौर ऋण पचास हजार रूपये लिये थे. बाद में राजा ये उधार लिये रूपये चुकाने में असमर्थ हुआ तो उसने ये सभी गांव बद्रीनाथ मंदिर को सौंप दिये. 1824 में इन सभी गांवों से दो हजार रूपये का राजस्व वसूला गया था, जो कि बहुत कम था. उस समय बहुत से गांव बड़े और घनी आबादी वाले थे. उनसे ज्यादा लगान मिल सकता था. लेकिन क्योंकि ज्यादातर गांव ब्राहमणों के हैं इसलिये इनसे मिलने वाला लगान क्षेत्रफल की तुलना में कम है. पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार 19 वीं सदी के पूर्वाद्ध तक ये लगान बढ़ गया था, जो कि लगभग सात हजार से ज्यादा हो गया था. बहरहाल, मंदिर के राजस्व का मुख्य जरिया श्रद्धालुओं की ओर से चढ़ाया जाने वाली भेंट ही होती थी. रतूड़ी बताते हैं कि यहां चढ़ावा तीन प्रकार का है. पहला मंदिर का चढ़ावा, जिसे थाली भेंट भी कहते हैं. दूसरा अटका भेंट और तीसरा गददी भेंट. इन सबसे साल की आय अस्सी से नब्बे हजार रूपये है. सोना, वस्त्र और मेवा इन सब से अलग है. बद्रीनाथ में एक चिकित्सालय भी है, जो मैदानी इलाकों से आये उन यात्रियों का इलाज करता है जो सर्दी के कारण बीमार हो जाते हैं.
बद्रीनाथ की पूजा रावल के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं कर सकता. ये इसलिये क्योंकि नियम है कि रावल के अतिरिक्त कोई भी बद्रीनाथ की मूर्ति को छू नहीं सकता. रावल केरल राज्य का चोली या मुकाणी जाति का ब्राहमण होता है और उसका स्मार्त धर्मावलम्बी होना आवश्यक होता है. रावल को विवाह करने का अधिकार नहीं है. क्योंकि विवाह करके संतान पैदा हुई तो रावल मूर्ति को नहीं छू पायेगा. वहीं रावल के अलावा कोई दूसरा मूर्ति छू नहीं सकता. पूजा भी रोकी नहीं जा सकती. ऐसा नहीं है कि पहले से ही रावल बद्रीनाथ के मुख्य पुजारी हुआ करते थे. ये व्यवस्था तो बहुत बाद में आई.
पंडित हरिकृष्ण रतूडी अपनी किताब गढ़वाल का इतिहास में बताते हैं कि शंकराचार्य केरल के नंबूरी ब्राहमण थे. वो ही पहले बद्रीनाथ के मुख्य पुजारी हुआ करते थे. ऐसी कहानी है कि जब सन्यास लेने के समय शंकराचार्य की माता ने उनसे अनुरोध किया था कि यदि तूने सन्यास ले लिया तो तेरे हाथ से मेरी अंत्येष्ठि क्रिया नहीं हो सकेगी. तब शंकराचार्य ने अपनी मां को वचन दिया था कि मैं सन्यासी होने पर भी अवश्य तुम्हारी अंतेष्टि क्रिया करूंगा. जब शंकराचार्य की माता का देहांत हुआ तब सन्यासी वेशधारी शंकराचार्य ने अपने वचन के अनुसार माता की अंतेश्टि क्रिया करनी चाही, लेकिन उनकी जाति के लोगों ने इसका विरोध किया और उनकी मां के शव को शमशान ले जाने से रोका और न ही खुद ही अंतिम संस्कार किया. अंत में शंकराचार्य ने माता का शवदाह अपने हाथों अपने ही घर के आंगन में किया. उस वक्त उनके दो रिश्तेदार उनके साथ थे. जिसमें एक चोली जाति और दूसरा मुकाणी जाति का ब्राहमण था. बाद में शंकराचार्य ने इन दोनों जातियों को भी अपने निर्माणित क्षेत्रों में अपनी जाति के साथ स्वामित्व प्रदान किया. 1776 तक इन्हीं तीन जातियों के सन्यासी मंदिर के मुख्य पुजारी बनते थे.
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि रावल महंत सन्यासी न होकर गृहस्थ होने लगे. पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी बताते हैं कि ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि 1776 में बद्रीनाथ मंदिर का मुख्य पुजारी महंत रामकृष्ण स्वामी की जब मृत्यु हुई तो उस वक्त वहां कोई नम्बूरी, मुकाणी व चोली जाती का सन्यासी नहीं था. वहीं पूजा अनुष्ठान रोके नहीं जा सकते थे. उस दौरान टिहरी रियासत के महाराजा प्रदीप शाह वहीं मौजूद थे. राजा को पता चला कि मंदिर में भगवान के लिये भोग पकाने वाला एक नंबूरी जाती का है. जिसका नाम गोपाल है. समस्या ये है कि वो शादीशुदा है और उसकी एक लड़की भी है.
गोपाल को बुलाया गया. राजा ने उससे पूछा कि क्या वो रावल बनना चाहेगा? उसने हामी तो भर दी, लेकिन कुछ मांगे भी रखी. बहरहाल, राजा ने उसकी मांगों को तुरंत मान लिया और उसे महंत रामकृष्ण स्वामी के स्थान पर नियुक्त कर दिया. तब से बद्रीनाथ के पूजकों की पदवी महंतों से रावलों के हाथों में आ गई.
अब गोपाल ने आखिर राजा प्रदीप शाह के समक्ष ऐसी क्या मांग रखी थी, जिसके कारण कई सालों बाद बड़ा वाद विवाद भी हुआ और उसका निस्तारण राजा प्रताप शाह को करना पड़ा. टिहरी के दरबार में वजीर और इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी बताते हैं कि हुआ यूं कि राजा प्रताप शाह के शासन के दौरान रावल पुरूषोत्तम ने बद्रीनाथ में ही मौजूद लक्ष्मी मंदिर के चढ़ावे पर अधिकार रखने वाले डिमरी जातियों के खिलाफ टिहरी दरबार में अभियोग पंजीकृत कराया. मुकदमा था कि लक्ष्मी मंदिर का चढ़ावा डिमरियों को नहीं मिलकर मंदिर में जमा होना चाहिये. मुकदमे की पैरवी के दौरान बद्रीनाथ के धर्माधिकारी पंडित गंगादत्त ड्यूंडी ने महाराजा प्रताप शाह के सामने उस एतिहासिक मांग को रखा जो कभी पहले गृहस्थ रावल गोपाल ने रखी थी और राजा प्रदीप शाह ने उसे मान भी लिया था. वो मांग ये थी कि जब बद्रीनाथ का पूजक सन्यासी रामकृष्ण स्वामी का देहांत हुआ और राजा प्रदीपशाह ने नंबूरी जाति के गोपाल को मुख्य पुजारी बनाया तो उसने जो मांग रखी, वो इस प्रकार थी.
पहली तो ये कि मेरी मठाधीश होने से मेरी जाति बिरादरी के लोग मुझसे विवाह संबंध छोड़ देंगे और मेरी बेटी का विवाह नहीं हो पायेगा. दूसरा ये कि अब मुझे यहां की प्रथा के अनुसार, गृहस्थ जीवन छोड़कर सन्यासी बनना पड़ेगा तो मेरे परिवार से कोई मेरा उत्तराधिकारी भी नहीं होगा. ऐसे में तो मेरे परिवार के भूख से मरने की नौबत आ जायेगी. इसलिये मेरे परिवार की अजीविका का स्थायी प्रबंधन होना चाहिये. तब महाराजा प्रदीपशाह ने वहां मौजूद सभी ब्राहमणों को आज्ञा दी कि तुम लोग गोपाल की संतान के साथ अपना विवाह संबंध रखो. ब्राहमणों ने राजाज्ञा का पालन किया और उसके परिवार से पारिवारिक संबंध स्थापित किये. इसके साथ ही लक्ष्मी मंदिर को मिलने वाली भेंट और मंदिर में रसोई का काम के अलावा मंदिर की प्रतिष्ठित नौकरियों का भी राजा ने प्रबंध किया. तब से ये परंपरा चली आ रही है. डिम्मर ग्राम इनके परिवार को रहने के लिये दिया गया, तब से ये डिम्मरी भी कहलाये जाने लगे.
ये पूरा एतिहासिक पक्ष सुनने के बाद दरबार में डिमरियों के पक्ष में फैसला सुनाया गया. इसी तरह और जातियों को भी जिम्मेदारी दी गई. मसलन, तप्तकुंड के पंडे देवप्रयागी कोटियाल है. ब्रह्मकपाल में हटवाल और कोठियाल जाति के पंडे हैं. ब्रह्मकपाल में तीर्थ श्राद्ध कराते हैं. बद्रीनाथ मंदिर में जो आय होती है, वो सब मंदिर के कोष में जमा होती है. उसका लेखा जोखा रखने वालों को सान भंडारी कहते हैं. बद्रीनाथ मंदिर के अधीन 16 और मंदिर हैं. जिसमें मुख्य रूप से लक्ष्मीमठ, मातामूर्ति, पाण्डुकेश्वर, जोशीमण, नृसिंहजी, ज्योतिश्वर महादेव, वासुदेवमठ, रमेश्वरमठ, भविष्य बद्री, दाड़िमी नृसिंह, लक्ष्मीनारायण पहला, दूसरा, तीसरा और एक चौथा भी है, सीताराम मठ और आखिरी वृद्धबदरी.
बद्रीनाथ मंदिर में एक परंपरा ये भी रही है कि तिब्बत के शासक और धर्मगुरू के प्रतिनिधि द्वारा हर साल चतुर्मास में बतौर भेंट चाय, चंवर गाय इत्यादी वस्तुयें मंदिर को भेजी जाती हैं. जबकि मंदिर से प्रसाद, मिठाई भोग, वस्त्र, कस्तूरी को लामा के लिये तिब्बत भेजा जाता है. ये परंपरा संभवत: तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद से समाप्त हो गई.
पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी एक और दिलचस्प एतिहासिक तथ्य अपनी किताब में सामने रखते हैं. वो लिखते हैं कि बद्रीनाथ का मंदिर बने हुये 2380 साल हो गये हैं. ये भी कहा जाता है कि आदि गुरू शंकराचार्य ने इस मंदिर को बनवाया था. जिस में कई आधुनिक इतिहासकारों में मतभेद हैं, क्योंकि ये तो प्रमाणिक सत्य है कि आदि गुरू शंकराचार्य आठवीं सदी में बद्रीनाथ आये थे. पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी जिनको आधुनिक इतिहासकार बता रहे हैं, वो 19 वीं सदी से पहले के हैं. क्योंकि उन्होंने खुद ये किताब 1929 से पहले लिखी थी.
हरिकृष्ण रतूड़ी बताते हैं कि यदि शंकराचार्य का समय आठवीं सदी ही स्वीकार किया जाये तो तब यह कहना होगा कि उन्होंने मंदिर नहीं बनवाया था, क्योंकि मंदिर उससे भी पहले था. उन्होंने उसका जीर्णोद्वार किया था. पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी किताब के पहले खंड के पेज 27 में लिखते हैं कि यह बात तो प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि बौद्धधर्म के विध्वंश करने वाले स्वामी शंकराचार्य ने वर्तमान मूर्ति को, जिसको बौद्धों ने नारदकुंड में डाल दिया था, वहां से निकाल कर दोबारा मंदिर में स्थापित किया था, साथ ही उसका मंदिर बनाया था. अथवा टूटे हुये मंदिर का पुनः उद्धार किया था. ज्योतिर्मठ का भी निर्माण किया और उसकी जिम्मेदारी नंबूरी अथवा चोली, मुकाणी जाति के दक्षिण के ब्राहमणों को सौंप दी थी. जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं.
ये तो हुई इतिहास की बातें. आज के वक्त में बद्रीनाथ मंदिर के दर्शन करने 30 लाख से ज्यादा श्रद्धालु हर साल आते हैं. सौ करोड़ से ज्यादा की कमाई अकेले बद्रीनाथ धाम से होती है. वैसे पिछले साल चारों धामों से पांच सौ करोड़ की कमाई हुई थी. बद्रीनाथ में नए मास्टर प्लान के तहत निर्माण कार्य भी चल रहा है. इस मास्टर प्लान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट भी कहा जा रहा है. आदि गुरू शंकराचार्य ने न केवल वैष्णव धर्म के बड़े धार्मिक प्रतिष्ठान को उत्तराखंड में स्थापित किया. जिससे न केवल यहां को देवभूमि भी कहा गया, बल्कि उन्होंने यहां के लाखों लोगों की अजीविका का ऐसा ठोस प्रबंधन भी किया, जिससे सैकड़ों सालों से और आगे भविष्य में अनंत काल तक हजारों परिवारों की आर्थिकी मजबूत रहेगी. क्योंकि अब यात्रा से न केवल बद्रीनाथ के हकहकूकधारियों को लाभ होता है, बल्कि हरिद्वार से बद्रीनाथ तक के तमाम छोटे बड़े कस्बे और गांव के लोगों की अजीविका भी सीधे तौर पर इस धार्मिक यात्रा से जुड़ी होती है.
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