चकराता, उत्तराखण्ड का एक ख़ूबसूरत पर्यटक स्थल. दिल्ली से लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर और देहरादून से लगभग 100 किलोमीटर. एक पर्यटक स्थल होने के साथ-साथ ये एक छावनी भी है.
इस जगह से जुड़ा एक किस्सा आपको बताता हूं. बात अक्टूबर 2018 की है. यूरोपियन कन्ट्री एस्टोनिया की मशहूर पॉप सिंगर जाना कास्क चकराता पहुंची एक म्यूजिक वीडियो शूट के लिए. शहर भर में ये खबर फैल गई. लेकिन एलआईयू यानी लोकल इंटेलीजेंस यूनिट को जैसे ही ये मालूम हुआ कि जाना नाम की कोई विदेशी नागरिक चकराता में है, तो उन्होंने तुरन्त जाना और उनकी टीम के साथियों को हिरासत में ले लिया. न सिर्फ हिरासत में लिया बल्कि उन्हें फिर कभी भारत न आने का नोटिस भी थमा दिया. और अगले ही दिन उन्हें भारत से डिपोर्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई. अब आप लोगों को लगा रहा होगा कि ऐसा क्यों? बताते हैं.
दरअसल चकराता एक प्रतिबंधित क्षेत्र है. गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना कोई भी विदेशी नागरिक चकराता नहीं जा सकता. असल में जाना कास्क को खुद भी ये बात मालूम नहीं थी कि जिस जगह वो पहुंची हैं, वहां विदेशी नागरिकों का आना प्रतिबंधित है. लेकिन ये प्रतिबंध आख़िर है क्यों, इसी बारे में आज आपको बताएंगे.
चकराता की कहानी समझने के लिए इतिहास में थोड़ा पीछे चलते हैं. भारत और तिब्बत के बीच सीमा निर्धारण को लेकर पहला समझौता शिमला में हुआ था. 1914 के इस समझौते में ब्रिटिश भारत, तिब्बत और चीन के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. इसी दौरान मैकमोहन लाइन को सीमा रेखा बनाया गया था.
लेकिन चीन ने तब से लेकर अब तक इसे कभी स्वीकार नहीं किया. इसके बाद मार्च, 1947 में भारत की अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई देशों का एक सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया तो वहां चीन के साथ-साथ तिब्बत के प्रतिनिधि भी बुलाए गए थे. लेकिन तिब्बत को अलग दर्जा देने की यह नीति 1949 में चीनी गणतंत्र यानी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के गठन के साथ ही खत्म हो गई और भारत ने ‘एक चीन’ की नीति अपना ली.
इसके एक साल बाद चीन ने तिब्बत पर पूर्ण अधिकार के लिए घुसपैठ कर दी. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन का दावा था कि यह क्षेत्र उसके अधीन भी एक ऑटोनोमस क्षेत्र बना रहेगा. भारत ने भी इस दावे को 1954 में चीन से संधि के दौरान मान लिया. लेकिन तिब्बतवासियों को यह मंजूर नहीं था और उसके खांपा क्षेत्र में चीन के खिलाफ विद्रोह छिड़ गया जो कई महीनों तक चला.
1959 में दलाई लामा अपने सैकड़ों अनुयायियों के साथ भारत आ गए और उनके बाद कई तिब्बतवासी शरणार्थी के रूप में हिमाचल के धर्मशाला और उत्तराखंड की अलग-अलग जगहों में पहुंचे.
दलाई लामा के भारत आने के तकरीबन तीन साल बाद 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ. नवंबर आते-आते जब यह मान लिया गया कि भारत, चीन के सामने अब लगभग हार चुका है, तब भारत की खुफिया एजेंसी, आईबी के चीफ भोला नाथ मलिक ने सरकार को अलग से एक खुफिया फोर्स के गठन का सुझाव दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को ये सुझाव पसंद आया और तब एसएफएफ यानी स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का गठन किया गया.
इस फोर्स में सभी जवान तिब्बती मूल के थे और इनकी शुरुआती संख्या पांच हजार थी. तिब्बती मूल के लोगों को ही इस फोर्स में शामिल इसलिए किया गया क्योंकि उन्हें उस क्षेत्र की काफी अच्छी समझ थी. वहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से वो परिचित थे लिहाज़ा युद्ध में अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे.
एसएफएफ का मुख्यालय चकराता में बनाया गया. इस फ़ोर्स को छापामार युद्ध और खुफिया सूचनाएं जुटाने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया था. इंडियन आर्मी के रिटायर्ड मेजर जनरल सुजान सिंह को इस फ़ोर्स का पहला आईजी नियुक्त किया गया. सुजान सिंह इससे पहले दूसरे विश्व युद्ध में 22 वीं माउंटेन रेजीमेंट की कमान संभाल चुके थे.
इसी वजह से एसएफएफ को ‘इस्टैब्लिशमेंट टूटू’ या ‘टूटू बटालियन’ भी कहा जाने लगा. टूटू बटालियन को अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने ट्रेनिंग दी. इसके जवानों को अमेरिकी आर्मी की विशेष टुकड़ी ‘ग्रीन बेरेट’ की तर्ज पर ट्रेन किया गया और एम-1, एम-2 और एम-3 जैसे हथियार भी अमेरिका की तरफ से दिए गए.
एसएफएफ यानी टूटू का गठन बेशक चीन को ध्यान में रखकर किया गया था लेकिन 1962 के युद्ध के बाद ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि इस मकसद के लिए बल का इस्तेमाल किया जा सकता. इसके बावजूद कई मोर्चों पर इस फोर्स ने अपने साहस का परिचय दिया.
1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय एसएफएफ ने वहां पर कई पुलों को उड़ाकर पाकिस्तानी सेना को पस्त कर दिया था. नंदा देवी पर्वत पर परमाणु ईंधन से चलने वाली जासूसी डिवाइस को लगाने की जिम्मेदारी भी एसएफएफ के जवानों को दी गई थी, हालांकि विपरीत मौसम की वजह से वे इसमें सफल नहीं हो सके थे.
1970-80 का दशक आते-आते चीन के साथ संबंधों में सुधार होने के साथ ही एसएफएफ की अब वह जरूरत नहीं रह गई थी, जिसके लिए इसका गठन किया गया था. लिहाज़ा बाद के सालों में इसके जवानों को आतंकवाद निरोधी बल के रूप में प्रशिक्षित किया जाने लगा और ये ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर कारगिल की लड़ाई तक भारतीय सैन्य रणनीति में महत्वपूर्ण साबित हुए.
1971 की लड़ाई में स्पेशल ऑपरेशन ईगल में इस रेजीमेंट के 46 जवान शहीद हुए थे. लेकिन इन जवानों को न तो कभी कोई मेडल मिल सका और न ही उनकी शहादत के बारे में लोगों को पता चल सका. वो इसलिए कि SFF सेना की बजाय रॉ की एक शाखा के रूप में काम करती है और रॉ की ही तरह इसकी कोई भी गतिविधि, यहां तक कि इसके अस्तित्व के बारे में भी ज़्यादा चीज़ें पब्लिक डोमेन में नहीं आती. और ध्यान दीजिए, हम भी आपको टूटू से जुड़ी सिर्फ़ उतनी ही नपी-तुली जानकारी दे रहे हैं जितनी पहले से पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं.
टूटू बटालियन की कमान डेप्युटेशन पर आए किसी सैन्य अधिकारी के हाथों में होती है. लेकिन आधिकारिक तौर पर टूटू बटालियन भारतीय सेना के नहीं बल्कि रॉ और कैबिनेट सचिव के जरिए सीधे भारत के प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है.