क्यों सदियों तक एक रहस्य बना रहा नैनीताल?

  • 2023
  • 10:37

नैनीताल! दो हज़ार मीटर की ऊँचाई पर बसा एक ऐसा हिल स्टेशन जिसकी ख़ूबसूरती की चर्चा देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में होती है. दुनिया के अलग-अलग देशों से लोग झीलों के इस शहर को देखने पहुँचते हैं और इसकी सुंदरता के मुरीद हो जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि यही नैनीताल कई सालों एक रहस्य बन कर रहा. ऐसा रहस्य जिसके बारे में स्थानीय लोग तो जानते थे लेकिन बाहर से आने वाले किसी भी व्यक्ति को इसकी जानकारी नहीं थी. स्थानीय लोग किसी भी बाहरी व्यक्ति से इस खूबसूरत जगह का जिक्र तक नहीं करते थे. वो पूरी कोशिश करते थे कि पहाड़ों की गोद में बसी इस सुंदर झील के बारे में किसी को भी खबर न लगे. यही कारण है कि जिस पौराणिक नैनीताल का जिक्र ‘स्कंद पुराण’ के ‘मानस खंड’ में भी दर्ज था, वो जगह 19वीं सदी तक भी दुनिया से छिपी रही. लेकिन फिर एक दिन एक अंग्रेज़ व्यापारी चालाकी से यहां पहुँचता है, धोखे से यहां के अधिकार हासिल करता है और नैनीताल की पूरी तस्वीर ही बदल डालता है.

नैनीताल के अस्तित्व का इतिहास बहुत पुराना है. स्कंद पुराण में इसे ‘त्रिऋषि सरोवर’ कहा गया है. त्रिऋषि यानी तीन ऋषियों की भूमि. ये तीन ऋषि थे अत्रि, पुलस्क और पुलक. मान्यता है कि ये तीन ऋषि इस जगह पर तपस्या के लिए आए थे. लेकिन यहाँ उन्हें जब पीने का पानी नहीं मिला तो वे अपने तप से तिब्बत के पवित्र मानसरोवर का पानी यहां ले आए और तभी इस झील का निर्माण हुआ.

एक अन्य मान्यता के अनुसार नैनीताल 64 शक्तिपीठों में से एक है. ये वे शक्तिपीठ हैं जिनका निर्माण सती के विभिन्न अंगों के गिरने से हुआ जब भगवान शिव उनके जले हुए शरीर को ले जा रहे थे. मान्यता है कि इस जगह पर सती की बाईं आंख गिरी थी और इसीलिए इसका नाम ‘नैन-ताल’ पड़ा जो कालांतर में नैनीताल कहलाने लगा. इस ताल के उत्तरी छोर पर नैना देवी का एक मंदिर है जहां सदियों से देवी शक्ति की पूजा होती है. इस मंदिर के चलते नैनीताल को सदियों से बेहद पवित्र माना जाता रहा है. जिक्र मिलता है कि नैनीताल में सदियों से एक मेले का भी आयोजन होता रहा है जिसकी जानकारी पहले सिर्फ़ स्थानीय लोगों को ही होती थी और किसी भी बाहरी व्यक्ति को यहां नहीं आने दिया जाता था.

आज से क़रीब दो सौ साल पहले तक नैनीताल में कोई भी निर्माण नहीं हुआ था जबकि इसके पास ही अल्मोड़ा शहर सदियों पहले बस चुका था. नैनीताल में शहर बसाने का सपना देखा गया साल 1839 में जब पी बैरन नाम का एक अंग्रेज़ व्यापारी यहां पहुंचा. हालाँकि बैरन से पहले जॉर्ज विलियम ट्रेल भी नैनीताल आ चुके थे. ट्रेल कुमाऊँ के दूसरे कमिश्नर हुए और नैनीताल पहुँचने वाले पहले यूरोपीय. लेकिन ट्रेल ने अपनी नैनीताल यात्रा को ज़्यादा प्रचारित नहीं किया था. वे स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यता का सम्मान करते थे और इसीलिए वे नहीं चाहते थे कि ज़्यादा लोगों को इस पवित्र जगह के बारे में जानकारी हो. विशेष तौर से अंग्रेजों को तो बिलकुल भी नहीं. लेकिन फिर आया साल 1839 जब पी बैरन नाम का एक व्यापारी और घुमक्कड़ अपने एक दोस्त कैप्टन टेलर के साथ नैनीताल पहुँच गया.

कुमाऊँ के जंगलों में शिकार करते हुए बैरन ने नैनीताल के बारे में थोड़ा बहुत जिक्र सुना था. लेकिन जब भी वो किसी से इस झील के बारे में और अधिक जानने की कोशिश करते तो उन्हें कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिलता. इसके चलते बैरन के मन में नैनीताल पहुँचने की उत्सुकता और भी बढ़ गई. अपने एक लेख में पी बैरन ने लिखा है, ‘नैनीताल से सम्बंधित किसी भी चीज के बारे में पूछने पर सभी पहाड़ी लोग रहस्यमय चुप्पी साध लेते थे. अल्मोड़ा लौट कर मैंने इस बाबत और जानकारी हासिल करने का प्रयास किया लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी.’

हालाँकि अब तक बैरन इतना तो जान ही चुके थे कि नैनीताल नाम की कोई खूबसूरत जगह आस-पास ही है. वो किसी भी हाल में इस जगह तक पहुंचना चाहते थे और स्थानीय लोग हर हाल में उन्हें यहां पहुँचने से रोकने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में पी बैरन और उनके दोस्त ने एक चाल चली. पिलग्रिम उपनाम से लिखने वाले पी बैरन अपने संस्मरण ‘पिलग्रिम : वॉंडरिंग इन द हिमाला’ में लिखते हैं,

‘हम हिमालय में इतना घूम चुके थे कि पहाड़ों के बीच झील की मौजूदगी के बारे में हमें बेवकूफ बनाना आसान नहीं था और फिर पहाड़ों से उतर रही जल धाराएं भी हमारा निर्देशन कर रही थीं. गाइड जहां तक संभव था हमें गलत दिशा की ओर ले गया. जब हमें यह आभास हो गया कि वह धोखा दे रहा है. तो हमने एक चाल चली. उसके सिर पर एक भारी पत्थर रख दिया और कहा कि मंजिल पर पहुँचने के बाद ही इसे उतारा जाएगा. उसके पास मंजिल तक जाने के अलावा कोई और चारा नहीं था. पहाड़ी लोग आम तौर पर बड़े सीधे होते हैं और आप बड़ी आसानी से उन्हें बेवकूफ बना सकते हैं. यदि आप ऐसे गाइड के साथ नैनीताल जा रहे हो जो रास्ता नहीं जानने का बहाना बना रहा हो, यह तरकी बड़े काम का है. एक पत्थर उसके सर पर रख कर कहिए कि इसे नैनीताल तक पहुंचाना है, क्योंकि वहाँ पत्थर नहीं हैं. यह भी बताएं कि पत्थर गिरे या टूटे नहीं और आपको इस पत्थर की नैनीताल में बड़ी जरूरत है. भारी बोझ को ढोने की चिंता में वह जरूर कह बैठेगा कि साहब वहाँ पत्थरों की क्या कमी है. और यह बात भला नैनीताल देखे बिना कोई कैसे कह सकता है? हमने भी करीब एक मील चलने के बाद उस भले मानुस के सर का बोझ हटा दिया क्योंकि उसे रास्ता याद आ चुका था.’

इस चालाकी के चलते जब पी बैरन पहली बार नैनीताल पहुंचे तो अपनी आंखों के आगे का नजारा देख वो अवाक रह गए. वो हैरान थे कि इतनी खूबसूरत जगह आज तक अछूती कैसे रही. उन्होंने उस अनछुए नैनीताल की ख़ूबसूरती को दर्ज करते हुए लिखा,

‘मैदानों के ऊपर लगभग टिकी हुई सी गागर पर्वत श्रृंखला पर यह झील स्थित है. ये जगह अल्मोड़ा से करीब 35 मील की दूरी और समुद्रतल से 6200 फीट की ऊँचाई पर है. मैंने थर्मामीटर को उबलते पानी में डालकर कई प्रेक्षण लिए और यहाँ पानी का उबाल बिन्दु 202° फेरेनाइट आया. झील हल्का सा घुमाव लिए हुए है और लम्बाई में लगभग सवा से डेढ़ मील तथा चौड़ाई में अधिकतम तीन चौथाई मील होगी. झील का पानी क्रिस्टल की तरह साफ है. एक सुंदर जलधारा पहाड़ की ऊँचाइयों से आकर इसमें मिलती है और वैसी ही छोटी धारा दूसरी ओर से बाहर निकल जाती है. झील काफी गहरी मालूम पड़ती है. इसके चारों ओर पहाड़ों की ढलानें डूबती चली गयी हैं. इस विशाल एम्फीथियेटर के दूसरे छोर पर लगभग एक मील लम्बा खूबसूरत और लगभग समतल ढलान फैला हुआ है जो एक आकाश को चूमती पहाड़ी के चरणों में समाप्त होता है. कहीं-कहीं इसमें बाँज, साइप्रस और दूसरी प्रजातियों के सुन्दर दरख्त हैं. झील के दोनों ओर के किनारे भी विशाल पहाड़ियों और चोटियों से घिरे हैं, जिनमें बिखरे हुए घने वन झील की सतह को चूमते हुए निकल जाते हैं. एक ओर की पहाड़ी में आपको तीर की तरह सीधे साइप्रस के विशालकाय दरख्त सजे हुए दिखाई देते हैं, जिनमें कई तो डेढ़ सौ फीट तक ऊँचे हैं. टहनियाँ धरती की ओर इस तरह झुकी हुई हैं कि वृक्ष शंकु का आकार ले लेते हैं.’

इतिहास में ये पहली बार हो रहा था जब नैनीताल को कोई व्यक्ति इस वैज्ञानिक नज़रिए से देख रहा था और यहां एक शहर बसाए जाने की सम्भावनाएँ तलाश रहा था. इस बारे में बैरन ने लिखा है,

‘लकड़ी की बहुतायत, शुद्ध पानी, खुला मैदान और बड़ी संख्या में भवनों के निर्माण के लिए आवश्यक सुविधाएँ यहां मौजूद हैं. घुड़सवारी और गाड़ी के मतलब की मीलों लम्बी सड़क बनाने की गुंजाइश भी है जिसकी हिमालय में कहीं भी जरूरत महसूस होती है. पानी की यहां जबर्दस्त उपस्थिति है जो खूबसूरती और जरूरत, दोनों के लिहाज से अहम है. सबसे ऊँची पहाड़ी और झील के बीच के ढलवा मैदान में किसी रेसकोर्स या क्रिकेट का मैदान बनाने की और हर दिशा में मकान बना कर छोटा-मोटा शहर बसा लेने की भरपूर गुंजाइश है. झील की परिधि में चारों ओर घुड़सवारी या गाड़ी चलाने लायक़ सुंदर सड़कें भी आसानी से बनाई जा सकती हैं और इसके पानी में हजारों नौकाएं लगातार विहार कर सकती हैं. झील की दक्षिणी चोटियों से दिखाई पड़ने वाले मैदानों से मुश्किल से एक दिन के सफर में यहाँ तक पहुँचा जा सकता है. बिल्कुल वैसे ही, जैसे मसूरी से दून.’

अपनी इस पहली नैनीताल यात्रा से जब पी बैरन वापस लौटे, तो एक ऐसा सपना लेकर लौटे जिसने उन्हें बेचैन कर दिया था. ये सपना था नैनीताल में एक मुकम्मल शहर बसाने का. इसी सपने को पूरा करने बैरन कुछ समय बाद दोबारा नैनीताल आए और इस बार वो पूरी तैयारी के साथ आए थे. उन्होंने काठगोदाम से एक लकड़ी की नांव 60 मज़दूरों के साथ पहले ही रवाना करवा दी थी. इस यात्रा में बैरन के साथ असिस्टेंट कमिश्नर जेएच बैटन और इस क्षेत्र के थोकदार नरसिंह बोरा भी आए थे. तमाम स्थानीय लोगों की तरह थोकदार नर सिंह बोरा भी नैनीताल को पवित्र मानते थे और वे नहीं चाहते थे कि इस जगह पर अंग्रेज़ कोई निर्माण करें. ऐसे में पी बैरन ने एक और चाल चली.

इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे अपनी चर्चित किताब ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में लिखते हैं, ‘पी बैरन ने थोकदार नरसिंह को अपने साथ नांव में बैठाया और उन्हें झील के बीचों-बीच ले गए. फिर अपनी जेब से एक नोट बुक निकालते हुए उन्होंने नरसिंह से कहा कि वे इस पर दस्तख़त करते हुए मान लें कि नैनीताल पर उनका कोई हक़ नहीं है अन्यथा उन्हें डुबा दिया जाएगा. डर के मारे नरसिंह ने दस्तख़त कर दिए.’ थोकदार नरसिंह को इस तरह डराकर उनसे नैनीताल के अधिकार लेने की बात ख़ुद पी बैरन ने भी अपनी किताब में लिखी है.

इस तरह नैनीताल की झील में पहली बार उतरी एक नांव पर इस जगह का भविष्य लिखा गया. नैनीताल में शहर बसाने का सिलसिला भी यहीं से शुरू हुआ और सबसे पहले यहां पी बैरन का एक यूरोपियन हाउस बना जिसका नाम ‘पिलग्रिम लॉज़’ रखा गया. थोकदार नरसिंह को पांच रुपए महीने के वेतन पर नैनीताल का पहला पटवारी बनाया गया. बैरन ने यहां कुल 12 कॉटेज बनवाए. उनके अलावा कुमाऊँ के कमिश्नर रहे जॉर्ज थौमस लुशिंगटन ने भी यहाँ एक कोठी बनवाई. साल 1845 तक नैनीताल की 536 एकड़ ज़मीन अंग्रेजों ने ले ली थी. भारतीयों में सबसे पहले लाल मोतीराम साह ने यहां कोठियाँ बनवाई. 1847 आते-आते नैनीताल एक चर्चित पर्यटक स्थल बन चुका था. फिर 3 अक्टूबर 1850 को, नैनीताल नगर निगम का औपचारिक रूप से गठन हुआ. यह उत्तर पश्चिमी प्रान्त का दूसरा नगर बोर्ड था. इस शहर के निर्माण को तेजी देने के लिए प्रशासन ने अल्मोडा के धनी साह समुदाय को जमीन सौंप दी थी. इस शर्त के साथ कि वे इस जमीन पर घरों का निर्माण करेंगे. साल 1862 में नैनीताल उत्तरी पश्चिमी प्रान्त की समर कैपिटल बना और तब इस शहर में शानदार बंगले, रेस्ट हाउस, क्लब्स, और कम्यूनिटी सेंटर जैसी सुविधाएँ तेजी से बढ़ी. अंग्रेजों के लिए नैनीताल शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था. देश की आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास भी नैनीताल में ही हुआ करता था और आज उत्तराखण्ड का एक राजभवन भी यहीं स्थित है. हालाँकि बीती दो सदियों में नैनीताल निर्माण के बोझ से इतना लाद दिया गया है कि अब इस शहर पर भारी खतरा भी मंडराने लगा है.

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