लगभग चार साल पहले ऋषिकेश से श्रीनगर ऑल वेदर रोड का काम लगभग खत्म होने ही वाला था. जो काम बचा हुआ था वो व्यासी के बाद और साकनीधार से पहले तोता घाटी का था. पूरी ऑल वेदर रोड का काम एक तरफ और तोता घाटी का काम दूसरी तरफ. जो कंस्ट्रक्शन कंपनी रोड चौड़ीकरण का काम कर रही थी, उसने तोता घाटी की पहाड़ी को काटने में तमाम संसाधन झौंक दिए थे, लेकिन तय समय पर तोता घाटी की पहाड़ियां काटी न जा सकी. उसके बाद हैवी ड्रिलिंग मशीनों के साथ ही देश-दुनिया की सबसे आधुनिक मशीनों से तोताघाटी की डोलोमाइट चट्टानों को काटा गया. लेकिन इस काम में भी दो साल लगे और कई मजदूरों की जान तक चली गई. भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार, पहाड़ में डोलोमाइट सबसे मजबूत चट्टानें होती है. ये डोलोमाइट की चट्टानें चूने के पत्थर से भी ज्यादा मजबूत होती हैं. चूने में जब 45 प्रतिशत से ज्यादा मैग्नीशियम होता है तो वो डोलोमाइट बन जाता है. लिहाजा, ऐसे इलाकों में, जहां डोलोमाइट हो, वहां पर निर्माण कार्य करना लगभग अंसभव होता है. डोमोलाइट चट्टानों की ये गंगा नदी की घाटियां हैं, जो किस कदर खतरनाक रही होंगी इस बात का अनुमान आप ऐसे लगा सकते हैं कि मुगलिया सल्तनत की शाही सेना तक इसे पार नहीं कर पाई थी और रानी कर्णावती की छोटी सी सेना ने उन्हें पत्थर गिरा कर वहीं इतिहास में दफ़्न कर दिया. एटकिंसन, डा शिव प्रसाद डबराल और जीआरसी विलियम जैसे कई प्रसिद्ध इतिहासकार अपनी किताबों में इन बातों का विस्तार से उल्लेख कर चुके हैं.
उसी घाटी में जब ऑल वेदर रोड के तहत चौड़ीकरण का काम शुरू हुआ, जिसमें पुरानी सड़क के एक तरफ ही पहाड़ को काटा जाना था, तो इतनी मुश्किलें आई. अब सोचिये, जब इस सड़क का निर्माण शुरूआत में किया गया होगा, तब कितनी मुश्किलें आई होंगी. हैरानी तब और ज्यादा होती है, जब कोई ये कहे कि आज तो इस सड़क का चौड़ीकरण बड़ी-बड़ी आधुनिक मशीनों ने किया है, लेकिन आज से लगभग अस्सी साल पहले यानी 40 के दशक में, जब इस सड़क का निर्माण किया गया तो मजदूरों के हाथ में महज हथौड़ी, गैंती और सब्बल था और ठेकेदार के दिमाग में वो हनक, जिसके चलते वो इतिहास में उत्तराखंड का दशरथ मांझी घोषित हुआ तो कहीं उसने टिहरी रियासत के लाट साब के रूप में ख्याति पाई. उसके जज़्बे और काम के प्रति ईमानदारी से प्रभावित होकर राजा नरेंद्र शाह ने इस पूरी घाटी का नाम ही तोता घाटी रख दिया था. जो अब भी इसी नाम से प्रसिद्ध है.
नमस्कार, मैं अमन रावत. हुआ यूं था के इस एपिसोड में बताऊंगा आपको कहानी टिहरी रियासत के उस ठेकेदार की जिसके नाम पर उत्तराखण्ड की सबसे खतरनाक डोलोमाइट वैली का नाम रखा गया था.
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत भर में मोटर गाड़ियां खूब दौड़ने लगी थी. टिहरी में भी राजा नरेंद्र शाह की मोटर कार थी, जो राजमहल से मोतीबाग और बाजार तक आती-जाती थी. तब तक ऋषिकेश से टिहरी मोटर मार्ग का निर्माण नहीं हुआ था. इसलिये जब राजा ने इंग्लैंड से कार खरीदी तो उसके कलपुर्जे अलग-अलग कर टिहरी पहुंचाये गये और वहीं उसे जोड़ा भी गया.
राजा नरेंद्र शाह ने मोटर मार्ग की सुविधा देखते हुए 1920 में अपने नाम से ऋषिकेश से 16 किलोमीटर दूर नरेंद्र नगर बसाना शुरू किया. दस साल में तीस लाख रूपये खर्च कर नरेंद्र नगर बसाया गया. 1926 में ऋषिकेश से नरेंद्र नगर तक सड़क निर्माण पूरा कर लिया गया. राजा का एक महल श्रीनगर में अलकनंदा नदी के दूसरी ओर कीर्तिनगर में भी था. यहां पहुंचने में उन्हें टिहरी पहुंचने से भी ज्यादा समय लगता था. लिहाजा, उन्होंने टिहरी मोटर मार्ग से पहले देवप्रयाग तक सड़क बनाने का निर्णय लिया. उस समय जो पैदल मार्ग भी था, वो ऋषिकेश से बद्रीनाथ तक गंगा नदी की दूसरी तरफ यानी यमकेश्वर ब्लॉक से होते हुये देवप्रयाग तक जाता था. ये पैदल मार्ग अंग्रेजों के अधीन आता था.
ऐसे में राजा नरेंद्र शाह को अपने कीर्तिनगर वाले महल जाने के लिये पैदल मार्ग का ही उपयोग करना पड़ता था. जिसमें बहुत समय ज़ाया हो जाया करता था. उन्होंने ऋषिकेश से कीर्तिनगर तक मोटर मार्ग बनाने की सोची. उन्होंने ये बात अपने रियासत के दीवान आईपीएस चक्रधर जुयाल को बताई. 1930 में इस मोटर मार्ग के लिये सबसे पहले टेंडर जारी किये गए और लागत राशि रखी गई महज 14 लाख रूपये.
ये लागत राशि एक सड़क निर्माण के लिये काफी कम थी, वहीं जो भी ठेकेदार सड़क बनाने से पहले सर्वे करता, उसका जोश और उत्साह साकनीधार पहुंचकर खत्म हो जाता. क्योंकि व्यासी के बाद और साकनीधार से पहले जैसे ही गंगा नदी के उपर खड़े पहाड़ दिखते, ठेकेदार काम लेने से इंकार कर देते. दिक्कत उतनी खड़े पहाड़ों की नहीं थी, जितनी उस नब्बे डिग्री कोण की चट्टान की थी, जिसे काटना अंसभव था. लिहाजा, कोई भी टेंडर में नहीं आया. राजा नरेंद्र शाह बड़े निराश हुये और मामला कई महीने लटक गया.
फिर एक दिन राजा को दरबारियों ने उन्हें प्रतापनगर के ठेकेदार तोता सिंह रागंड़ की याद दिलाई, वो तोता सिंह रांगड़ जिन्होंने राजा के लिये रियासत के अंदर कई सड़कों का निर्माण किया था. जो अपनी ईमानदारी और जज़्बे के लिये पूरी रियासत में प्रसिद्ध थे. ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक के भदूरा पट्टी के रौणिया गांव में अपने परिवार के साथ रह रहे थे. ठेकेदारी से वो अच्छी खासी संपत्ति जोड़ चुके थे और उनका जीवन आराम सुकून से बीत रहा था. कहते हैं कि ठेकेदारी से पहले वो और उनके छोटे भाई राजा के लिये कई गांवों से टैक्स वसूला करते थे. जिसमें मुख्य रूप से अनाज और पशु हुआ करते थे.
तोता सिंह पूरी ईमानदारी से अपना काम करते और समय पर पूरा टैक्स अपने खच्चरों में राज महल तक पहुंचा आते. धीरे-धीरे रांगड़ राजा की नजर में आने लगे और एक दिन उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें कुछ निर्माण कार्य करने को दिये, जिससे उनकी अच्छी खासी आमदनी होने लगी.
उधर, दरबारियों ने जब तोता सिंह रांगड़ की याद दिलाई तो राजा को उम्मीद जगी. उन्होंने तुरंत एक संदेशवाहक को रौणिया गांव तोता सिंह रांगड़ को बुलाने भेजा. तय समय पर तोता सिंह रांगड़ राज दरबार में राजा के समक्ष हाजिर हुए. राजा नरेंद्र शाह ने उन्हें बताया कि ऋषिकेश से कीर्तिनगर तक रोड निर्माण का काम करना है. वो बस इतना कर दें कि साकनीधार से पहले पड़ने वाली घाटी की लगभग दस किलोमीटर लंबी सडक बना दें.
राजा नरेंद्र शाह की बात सुनकर तोता सिंह रांगड़ ने हामी भर दी और उस जगह का सर्वे करने निकल पड़े जहां उन्होंने इस काम को अंजाम देना था. लेकिन, ये क्या! जब उन्होंने देखा कि साकनीधार के पास चूने के पत्थरों की खड़ी चट्टाने हैं, जिन्हें काटना बहुत मुश्किल है तो वो काफी देर तक सोच विचार में पड़ गए.
तोता सिंह रांगड़ के पोते एमएस रांगड़ बताते हैं कि, महज कुछ लाख रूपये में इतनी लंबी सड़क और उस पर भी एक खड़ी चट्टान को काटने का काम लेकर मेरे दादा असमंजस में पड़ गए थे. लेकिन अब वो राजा नरेंद्र शाह को जुबान दे चुके थे. इसलिये उन्होंने अपने सभी मेहनती मजदूरों को बुलाया. कुछ विशेषज्ञ मजदूरों को देश के अलग-अलग इलाकों से भी बुलाया गया. 1931 में ऋषिकेश से रोड कटिंग का काम शुरू हुआ. मजदूर गैंती, हथौड़ा, सब्बल से रोड कटिंग करते थे.
तकरीबन दो साल बाद सड़क साकनीधार तक पहुंच गई. अब बारी थी उस हिस्से की, जिसमें काम करना ही बेहद असंभव था. क्योंकि यहां पर चट्टान गंगा नदी के उपर बिल्कुल नब्बे डिग्री कोण में थी. पहले तो चट्टान पर चढ़ना ही असंभव था, दूसरा, शुरूआती काम में ही चार मजदूर उफनती नदी में गिर गए और उनका कुछ पता ही नहीं चला. मजदूरों में हड़कंप मचा और चारों ओर डर का माहौल हो गया. दिक्कत एक और भी थी, वो ये कि बेहद कम रूपयों में इस ठेके को पूरा करना था. क्योंकि राजा ने महज 4400 रूपये में साकनीधार में रोड कटिंग के लिये निर्माणराशि स्वीकृत की थी. जबकि तोता सिंह रांगड़ का आंकलन था कि इस काम में लाखों रूपये खर्च हो जाएंगे.
खैर, फिर भी तोता सिंह रांगड़ ने काम जारी रखा. उन्होंने सबसे पहले मजदूरों की कमर पर रस्सी बांध कर उन्हें पहाड़ से नीचे सीधे नब्बे डिग्री की खाई में उतारा. जहां हवा में लटक कर मजदूरों ने पहाड़ को महज़ गैंती और हथौड़े से काटना शुरू किया. ये काम इतना कठिन और संघर्षपूर्ण था कि कई मजदूर काम के शुरूआती दिनों में ही भाग गये थे. कुछ ने काम बीच में ही छोड़ दिया था. जो कुछ मजदूर बचे थे, उनमें तोता सिंह रांगड़ जोश भरते और उन्हें किसी भी तरह की कमी न होने देते.
लेकिन तकरीबन एक माह में ही राजा की ओर से दिया गया सारा बजट खत्म हो गया. जब तोता सिंह रांगड़ ने राजा के वित्तीय विभाग में इसकी सूचना दी तो उन्होंने दो टुक फरमान जारी कर दिया कि इतने में ही काम करना होगा. उधर, मजदूरों के लिये रखा गया सारा राशन भी खत्म हो गया था. उसके बाद तोता सिंह रांगड़ ने जब अपनी जेब से रूपये खर्च कर ऋषिकेश से खच्चरों में राशन मंगाया तो उसमें कई दिन लग गये. जिसके कारण मजदूरों ने दिन में तीन की बजाय दो बार ही खाना खाकर काम जारी रखा. कहते हैं कि जब रशद आने में तय दिन से ज्यादा वक्त लगा तो दो दिन तक मजदूर भूखे भी रहे.
अब तोता सिंह रांगड़ को काम जारी रखने में अपना ही पैसा लगाना था. लेकिन क्योंकि उन्होंने राजा के सपने को पूरा करना था, लिहाजा, वो अपने गांव पहुंचे और वहां जितना भी नगद रूपया रखा हुआ था, उसे अपने साथ ले आए. उन्होंने उससे मजदूरों की मजदूरी और राशन खरीदना जारी रखा. इस दौरान एक साल बीत गया और काम अभी एक चौथाई ही हुआ था. तोता सिंह रांगड़ के लाखों रूपये भी खर्च हो गए. अब वो फिर से अपने गांव पहुंचे और अपने घर पर रखे सभी गहनों को टिहरी में बेच कर निर्माण कार्य में लगाने लगे. तकरीबन चार साल में साकनीधार रोड कटिंग का काम पूरा हो सका. रोड का काम तो पूरा हो गया, लेकिन तोता सिंह रांगड़ का परिवार खुद रोड पर आ गया.
उनकी पूरी संपत्ति इस निर्माण कार्य में खर्च हो गई. वो मानसिक तनाव में आ गये और अपने घर लौट आये. उनके पोते एमएस रांगड़ बताते हैं कि जब राजा नरेंद्र शाह को ये बात पता चली तो उन्होंने 50 हजार रूपये तोता सिंह रांगड़ के घर पहुंचाये और उन्हें अपने पास बुलाया, लेकिन तोता सिंह रांगड़ ने ये फरमान अनसुना कर दिया. उसके बाद कई फरमानों के बाद वो राजा के दरबार में पहुंचे. बताते हैं कि राजा नरेंद्र शाह ने नाराजगी जताते हुये कहा कि आप तो बहुत बड़े लाट साहब बन रहे हो. जिस पर तोता सिंह रांगड़ ने माफी मांगी और चुपचाप अपने गांव लौट आये. जहां उनकी लाट साहब वाली खबर पहले ही पहुंच चुकी थी. लिहाजा, तब से उन्हें प्रतापनगर क्षेत्र के लोग लाट साहब ही कहने लगे.
उधर, राजा को जब दरबारियों ने बताया कि ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ ने उनका सपना पूरा करने के लिये अपनी पूरी जमा पूंजी लगा दी है और अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा है, तो राजा को बड़ा अफसोस हुआ. राजा नरेंद्र शाह ने उन्हें फिर से बुलाया और उन्हें काफी जमीन नरेंद्र नगर में दी. जिसमें आज भी तोता सिंह रांगड़ की तीसरी पीढी रहती है. उधर राजा ने एक शाही फरमान भी जारी किया कि जिस असंभव सी घाटी को काट कर तोता सिंह रांगड़ ने बेहद जरूरी काम किया है, वो घाटी भविष्य में तोता घाटी के नाम से ही जानी जायेगी.
बाद में जब 40 के दशक में नरेंद्रनगर से टिहरी तक जो सड़क बनी तो उसमें भी बड़ा हिस्सा ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ को दिया गया. जिससे उनकी माली हालत फिर से ठीक हो गई. 86 साल की उम्र में ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ का निधन हो गया.
उधर, जो सड़क राजा नरेंद्र शाह ने ऋषिकेश से देवप्रयाग तक बनाई थी, उसका कुछ हिस्सा अलकनंदा नदी के दूसरी तरफ यानी पौड़ी जिले के लक्ष्मण झूला से भी गुजरता था. आज की जो सड़क है, जिसको काट कर अब ऑल वेदर रोड भी बन रही है, जो कि बहुत बाद में बनी. अब इस सड़क का पूरा हिस्सा ही टिहरी जिले से होकर गुजरता है. लेकिन तब ऐसा नहीं था. राजा ने अंग्रेजों के अधीन यमकेश्वर ब्लॉक के कुछ हिस्से में भी सड़क निर्माण कर दिया. जिससे नाराज होकर अंग्रेजों ने राजा के खिलाफ 1938 में पंजाब स्टेट रजिडेंसी के लाहौर मुख्यालय में मुकदमा कर दिया था, जबकि संयुक्त प्रांत यानी आज के उत्तर प्रदेश की विधानसभा में इसको लेकर भारी हंगामा भी हुआ. जिसके बाद राजा नरेंद्र शाह के वकीलों ने तर्क दिया कि ये सड़क क्योंकि बद्रीनाथ और केदारनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं के उपयोग में आनी है. इसलिय लोकहित को देखते हुये शिकायत वापस ले लेनी चाहिये. इस तर्क को अंग्रेज हुकूमत ने वाजिब माना और शिकायत वापस ले भी ली. ये जो कागज आप देख रहे हैं, ये उसी समय के दस्तावेज हैं, जो दिल्ली में मौजूद भारतीय अभिलेखागार में सुरक्षित रखे गये हैं.
टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दो में डा शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि 1938 में इस मार्ग पर अपनी मोटर कार खुद ड्राइव कर राजा सुदर्शन शाह ने इस मार्ग का उदघाटन किया. इस पूरे मोटर मार्ग पर 9 लाख 6 हजार 133 रूपये का खर्च आया था. इस मार्ग पर कई स्थानों पर पक्के पुल भी बनाये गये. ऋषिकेश और देवप्रयाग के बीच गुल्लर, व्यासी, कौडियाला, साकिनीधार और पंगाधार में धर्मशालायें बनाई गई. ये धर्मशालायें सात मील से लेकर 12 मील तक की दूरी पर बनाई गई. इस मार्ग के बन जाने के बाद ही नरेंद्रनगर से टिहरी तक मोटर रोड बनाने की योजना बनी थी. दिसंबर 1939 तक नरेंद्र नगर से आगे तथा टिहरी से 12 किलोमीटर पहले चंबा तक मोटर गाड़ियां चलने लगी थी. 16 अप्रैल 1940 को पहली बार मोटर गाडी टिहरी पहुंची. टिहरी में भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम पर मौजूद पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था. लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया. इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेंदुशाह कार ड्राइव कर टिहरी बाजार होते हुये राजमहल पहुंचे थे.
स्क्रिप्ट : मनमीत
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