सात समोदर पार च जाण ब्वे जाज मा जौंलू कि ना
जिकुड़ी उदास ब्वे जिकुड़ी उदास
लाम मा जाण जरमन फ्रांस
कनुकैकि जौंलू मि जरमन फ्रांस ब्वे जाज मा जौंलू कि ना।
हंस भोरीक ब्वे औंद उमाळ
घौर मा मेरू दुध्याळ नौन्याळ
कनुकैकि छोड़लू दुध्याळ नौन्याळ ब्वे जाज मा जौंलू कि ना ।
सात समोदर पार….//
ये गीत उपजा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, जब हजारों गढ़वाली सैनिक एक अनिश्चित भविष्य की दिशा में अपने-अपने घरों से निकल रहे थे. इस गीत को किसने लिखा ये कभी पता नहीं चल पाया. लेकिन ये ज़रूर समझ आया कि ये गीत हर उस सैनिक का दर्द बयां कर रहा था, जो अपने घर-गांव-परिवार को छोड़कर 4 साल तक चली उस जंग के लिए, सात समंदर पार जा रहा था. विश्व इतिहास के उस सबसे भीषण युद्ध के इर्द-गिर्द गढ़वाली भाषा में कई गीत बुने गए. इनमें से कुछ तो वक्त के साथ धूमिल हो गए लेकिन कुछ दशकों तक तैरते हुए हमारे बीच आ पहुंचे और आज भी ज़िंदा हैं. ऐसे ही कुछ गीतों पर बात करेंगे आज के कार्यक्रम में.
1914 से 1918. इन चार सालों तक पूरी दुनिया ने प्रथम विश्व युद्ध के रूप में तबाही देखी. इस तबाही ने पूरी दुनिया में असर डाला और अलग-अलग तरह से दुनिया के लगभग हर हिस्से को प्रभावित किया. उत्तराखंड से हजारों किलोमीटर दूर लड़े गए उस युद्ध से हमारे पहाड़ भी अछूते नहीं रहे. यहां से हजारों लोग मोहरे बना कर उस युद्ध क्षेत्र में झोंक दिए गए और इसके साथ ही शुरू हुई वो व्यवस्था जो फिर दशकों तक पहाड़ की मुख्य अर्थव्यवस्था बन गई. वही व्यवस्था जिसे हम आज भी ‘मनी ऑर्डर इकॉनमी’ के नाम से जानते हैं. सेना में भर्ती होकर अपने घरों से दूर गए बेटे मनी-ऑर्डर के ज़रिए पहाड़ में पैसा भेजते और उसी से परिवार का खर्च चलता. इन मनी-ऑर्डरों के साथ ही दुख भरे तार और चिट्ठियां भी आती. अनिश्चितता के उस दौर में हमारे वीर जवानों ने कई गीत भी लिखे और गुनगुनाए. लेकिन उनकी अधिकतर रचनाएँ सुरक्षित नहीं रह पाई. हालांकि, कुछ गीत थे जिन्हें बचाया जा सका और वे दशकों की यात्रा करते-करते हमारे पास आ पहुंचे. ऐसा ही एक गीत था.. सात समोदर पार
अगर आप अपने घर के बड़े-बुज़ुर्गों से पूछेंगे, तो वे ज़रूर आपको इस गीत से जुड़ी कोई कहानी सुनाएंगे. हमारे पास भी इस गीत से जुड़ा एक अनुभव है जिसका ज़िक्र देवेश जोशी ने पहाड़ पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख ‘विश्वयुद्ध के अनुभवों से उपजे गढ़वाली गीत’ में किया है. वे बताते हैं:
‘इस गीत से मेरे अतिशय लगाव के पीछे एक घटना का भी हाथ है. लगभग 14-15 साल पुरानी बात है. रुद्रप्रयाग के पास एक फौजी पूरी यूनिफॉर्म में जीएमओ की बस में सुबकते हुए चढ़ता है. परिजनों ने जैसे ही विदा देते हुए हाथ हिलाया, फौजी दहाड़ें मार कर औरतों की तरह रोने लगा. ये देखकर बस में बैठे पैसेंजर हँसने लगे. पर जैसे फौजी को ये कुछ न तो दिख रहा था और न सुनाई दे रहा था. वो लगभग आधे घंटे तक, बस की खिड़की से पीछे देखते हुए, एक ही गति और एक ही सुर में रोता रहा. बस में बैठे यात्रियों को कुछ ही मिनट बाद अपनी गलती का अहसास हो गया. और ऐसा हुआ कि फिर बस में फौजी के रुदन के अलावा पूरी तरह सन्नाटा छा गया. फिर किसी की उसे ढाढस बँधाने की भी हिम्मत नहीं हुई. फिर अगले आधे घंटे तक फौजी सुबकता रहा. दिमाग पर पूरा जोर लगाकर भी याद नहीं आता कि कभी किसी ग्रामीण नवब्याहता को भी ससुराल जाते हुए इतने करुण स्वर में, आँखों से बहती गंगा-जमुना के साथ रोते हुए सुना होगा.
रुद्रप्रयाग से रोना शुरू कर फौजी श्रीनगर पहुँच कर ही सामान्य हो पाया था. इस बीच सभी उसकी विषम पारिवारिक परिस्थितियों की कल्पना में खो से गए थे. हो सकता है उसकी बीमार पत्नी को इस समय उसके साथ की सर्वाधिक जरूरत रही हो. हो सकता है वृद्ध माँ-बाप ने विदा देते हुए कहा हो कि बेटा इसी को अंतिम भेंट समझ लेना. अगली छुट्टी पर जब तू घर आएगा तो कौन जाने तुझे गले लगाने के लिए हम जिंदा भी रहेंगे या नहीं.
सैनिक के रुदन ने मुझे बहुत गहरे झकझोरा था और इस घटना के बाद जब भी मैंने यह गीत सुना तब उस सैनिक का करुण रुदन मानस पटल में उभर जाता था. सात समोदर पार च जाण ब्वे, जाज मा जौंलू कि ना. न जहाज में जाने की खुशी है और न विदेश की धरती देखने का कौतूहल. है तो बस अपने घर-परिवार-गाँव से बिछुड़ने का बेचैनी भरा अहसास और पुनर्मिलन की अनिश्चितता. इस गीत में सच में गागर में सागर भर दिया गया है. एक भी अनावश्यक शब्द नहीं, तुक मिलाने के लिए कोई निरर्थक पट भी नहीं. सब कुछ दिल की गहराइयों से निकला, स्वतः स्फूर्त.’
देवेश जोशी के इसी लेख से पता चलता है कि इस लोकगीत को पौड़ी – कोटद्वार मार्ग पर भरोसी लाल सूरदास भी गाया करते थे. वही भरोसी लाल जो पहाड़ के चर्चित गीत ‘फ़्वां बाग रे’ की कहानी के मुख्य पात्र भी रहे. इस गीत की कहानी हम गाने के बहाने कार्यक्रम में पहले ही विस्तार से सुना चुके हैं. फ़िलहाल वापस लौटते हैं युद्ध गीतों की कहानी पर.
भरोसीलाल के अलावा रुद्रप्रयाग में रामसागर भी ड्यूटी के लिए परदेश जाते यात्रियों को बस में ये गीत सुनाया करते थे. ये गीत सिर्फ़ लाम में जाने वाले सिपाही का गीत नहीं, बल्कि अपने घर को छोड़ दूर जाते हुए हर पहाड़ी के मन का दर्द हो गया था. नरेन्द्र सिंह नेगी जी बताते हैं कि उन्होंने ये लोकगीत भरोसीलाल सूरदास के मुख से ही सुना था और जो पंक्तियां सुनी-सुनाई गई थी उनके आधार पर गीत की छूटी पंक्तियों को ढूंढा गया. और फिर उन्हें जोड़कर उन्होंने इस गीत को अपनी आवाज़ दी. यह गीत पहली बार 1954 में गोविंद चातक की पुस्तक ‘गढ़वाल के लोकगीत’ में छपा.
इस गीत को चंद्र सिंह राही, महेश तिवाड़ी, नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ-साथ कई लोकगायकों ने गाया है.
वैसे सवाल ये भी उठता है कि प्रथम विश्व युद्ध से गीतों का क्या संबंध था और ये लोक की भूमिका में कैसे आया. इस विषय पर पूर्व मेजर जनरल एसएम हसनैन का कहना था, ‘हमारी रेजीमेंट का दस्तूर था कि जो भी नया ऑफीसर आता था, उससे दो काम अनिवार्य रूप से करवाये जाते थे. एक तो गढ़वाल क्षेत्र की पैदल यात्रा और दूसरा गढ़वाली गीतों के ब्रोशर से कोई गीत याद कर हर बुधवार की शाम अपनी कम्पनी के जवानों के साथ गाना. इसका मकसद था कि ऑफीसर और सैनिकों के बीच अच्छे सम्बंध बनें. हम चाहते थे कि सैनिक दिल से उसे अपना ऑफीसर स्वीकार करें.’
इस बात से साफ़ पता चलता है कि अपने घर से कोसों दूर बैठी बटैलियन के पास गीत ही अभिव्यक्ति और मनोरंजन का माध्यम थे.
वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध में कई गढ़वाली सैनिकों ने ब्रिटिश सेना की ओर से, और कईयों ने आजाद हिंद फौज की ओर से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की. देवेश जोशी के लेख में बताया गया है कि सुभाष चन्द्र बोस ने गढ़वालियों के साहस और शौर्य को देखकर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया था. कैप्टन चंद्रसिंह नेगी को ऑफीसर्स ट्रेनिंग स्कूल में कमांडेट के पद पर नियुक्ति दी गई. देव सिंह दानू को मेजर और बाद में सुभाष रेजीमेंट का कमांडर नियुक्त किया गया. बुद्धिसिंह रावत, पितृशरण रतूड़ी, पद्मसिंह गुसांई ने भी शौर्य का परिचय दिया था. आज़ाद हिंद फौज में गढ़वाली सैनिकों के योगदान को स्वीकार करते हुए जनरल मोहन सिंह ने कहा था कि पेशावर विद्रोह से आज़ाद हिंद फौज की नींव डालने की प्रेरणा प्राप्त हुई और सबसे पहले गढ़वाली सैनिक ही इसमें भर्ती हुए. वे राष्ट्रीय भावना से अत्यधिक ओतप्रोत थे और उनके दिलों में कुछ कर गुजरने की इच्छा थी. आज़ाद हिंद फ़ौज में गढ़वाली सैनिकों के भर्ती होने की कहानी पर बारामासा ने पलटन सिरीज़ के तहत एक विस्तृत कार्यक्रम भी किया है जिसे आप देख सकते हैं.
फ़िलहाल आगे बढ़ते हैं कुछ और युद्ध गीतों की तरफ़. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक सिपाही पर लिखा गया गीत भी काफी प्रचलित हुआ. ये गीत था…
भरती होई जाणो केशरू रे ! ठमठम पलटण मा।
चीलमी को कीच रे चीलमी को कीच, –
भरती होई गाई केशरू दा काळौं छौणी बीच ।
पाकी जाली कौणी रे पाकी जाली कौणी
टरैनिंग कू चलगे केशरू दा जब्बलपुर छौणी ।
डाळी काटी टुखुमा रे डाळी काटी टुखुमा
लाम मा जाण को ऐगे सरकारि हुकुमा।
बूती जाली तोर रे! बूती जाली तोर
लड़े मा जाण केशरू दा सिंघापुर पोर।
हींग भोरी तोळा रे हींग भरी तोळा
ऐंच बटी छुटणा छन छै छै मण का गोळा !
दरअसल केशर सिंह नाम का एक नौजवान सैनिक लैंसडाउन छावनी में, गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुआ. उसे वहां से ट्रेनिंग के लिए जबलपुर छावनी भेजा गया. केशर सिंह के भर्ती होते ही द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और इस नौजवान सिपाही को तुरंत ही सिंगापुर के मोर्चे पर भेज दिया गया. विश्व युद्ध का यह अनुभव तो पुराने और अनुभवी सैनिकों के लिए नया था, ऐसे में केशर सिंह जैसे नितांत नए रंगरूट के तो हर कदम पर मौत मंडरा रही थी. हवाई जहाजों से दुश्मन बम बरसा रहे थे और हमारे सैनिक वीरता से लड़ रहे थे. केशर सिंह भी जी-जान से लड़ा और शहीद हो गया.
ये बात सच है कि एक तरफ जहां सिपाही देश के लिए जंग लड़ रहा होता है, वहीं उसके पीछे छूटी उसकी पत्नी एक अलग जंग लड़ रही होती है. हमारे लोकगीतों में भी इस बात को जगह दी गई है. माधुरी बड़थ्वाल की पुस्तक ‘गढ़वाली लोकगीतों में राग रागिनियाँ’ में शामिल लोक गीत – गोदू भुली, इस बात का सबूत है कि पहाड़ की नारी को अपने सैनिक पति के बिना कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता था.
गोदू भुली गीत बेहद मर्मस्पर्शी है. इसमें सैनिक की पत्नी गोदू यानी गोदाम्बरी अपने छोटे भाई की शादी में जाना चाहती है. लेकिन ससुराल वाले उसे मना कर देते हैं. तब वह बिना बताए ही मायके को निकल पड़ती है. उसके रास्ते में एक नदी पड़ती है जिसे पार करना मुश्किल था. ऐसे में उसे एक ढाकरी मिलता है जो मीठी बात करके उसकी कहानी पता कर लेता है. वह ये भी जान जाता है कि उसका पति सिंगापुर लड़ाई यानी द्वितीय विश्वयुद्ध में गया है और वो ससुराल से भागकर मायके जा रही है.
लालची ढाकरी नदी पार कराने के एवज में उसके सारे जेवर ले लेता है और फिर भेद खुलने के डर से उसे मार कर दफना देता है. इस गीत के बोल हैं:
गोदू भुली धियांणी भुली मैत लागी सोरास या,
सड़की को ढक्वाळ भैजी, तू पूछी क्या पौंदी या।
बाखरी को स्यो च भैजी,
बाखरी को स्यो च या,
मैत लागू भाजी की भैजी, मेरा भुला को ब्यो च या।
गोदू भुली धियांणी भुली को च त्यारू वारिस या,
म्यारा जेठाजी होला भैजी, म्यारा वारिस या।
गैड़ी जाली पणाई भैजी गैड़ी जाली पणाई या,
मेरू वारिस होलू भैजी, सिंगापुर लड़ैई मा या ।
सड़की का ढक्वाळ भैजी, मीर्थं गाड तरै दे या,
गाड भुली गुलोबंद भुली तब तरौलू गाड या ।
सड़की का ढक्वाळ भैजी, मीथैं गाड तरै दे या,
गाड़ भुली नथुली गाड़, तब तरौलू गाड या ।
सड़की का ढक्वाळ भैजी सड़की का ढक्वाळ या,
तिल खाड केकू खैणी सड़की का ढिस्वाळ या ।
रामी बौराणी की लोक गाथा भी काफी प्रचलित है. बल्कि ये भी कहा जा सकता है कि ये सबसे लोकप्रिय लोकगाथाओं में से एक है. लमगौण्डी जिला रुद्रप्रयाग के बलदेव प्रसाद शर्मा ‘दीन’ ने 1918 में लोक में प्रचलित इस गाथा को छंदबद्ध कर ‘बाटा गोड़ाई’ नाम से प्रकाशित किया था.
गढ़वाल का शायद ही कोई रामलीला मंच या माध्यमिक विद्यालय होगा, जहां इस गाथा को नृत्य नाटिका के रूप में प्रदर्शित न किया गया हो.
ये कथा युद्ध काल की पृष्ठभूमि पर आधारित है. जब युद्ध से लापता या युद्धबंदी सैनिकों की सूचना उनके परिजनों तक नहीं पहुँच पाती थी. तब ऐसे कई किस्से प्रचलित थे जिनमें बताया जाता था कि फलाँ गाँव का फलाँ लापता फौजी नौ या बारह साल बाद अचानक घर पहुँच गया. 1918 में इस गाथा के प्रकाशित हो जाने से इतना तय है कि यह प्रथम विश्वयुद्ध से पहले या उस दौरान की किसी सत्य घटना पर आधारित है.
दरअसल, इस कहानी में सैनिक कई सालों बाद अपने घर वापस आ रहा है. लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद वह सोचता है कि क्यों न अपनी पत्नी के साथ थोड़ी शरारत की जाए. वह साधू वेष ले लेता है और खेतों में काम कर रही अपनी पत्नी रामी से उसका नाम-पता पूछता है. साधू के पूछने पर रामी उसे सब बताते हुए कहती है कि उसका पति लम्बे समय से परदेस में युद्ध में है और वह उसका इंतजार कर रही है. वह साधू से कहती है कि तू तो जोगी है, यह बता कि मेरा पति घर कब लौटेगा.
साधू कहता है अरे रामी, तू उसके इंतज़ार में क्यों अपनी जवानी बर्बाद कर रही है. छोड़ उसे और मेरे साथ पेड़ की छांव में बैठ कर थोड़ा चैन की घड़ी बिता ले. ये सुनते ही रामी को गुस्सा आ जाता है. वो साधू को खरी-खोटी सुनाती है. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. साधू उसके घर आ जाता है, जहां उसकी सास और रामी ही होते हैं. माँ बहुत बूढ़ी हो चली थी इसलिए साधू भेष में अपने बेटे को पहचान नहीं पाई. उसने साधू को घर पर बुलाया और रामी से साधू के लिए खाना परोसने को कहा. रामी ने अपना गुस्सा दबाकर साधू के लिए खाना बनाया और मालू के पत्तों में परोस दिया. लेकिन साधू ज़िद्द पकड़ कर कहता है कि मैं तेरे बेटे यानी रामी के पति की ही थाली में खाना खाऊंगा. ये बात सुनकर रामी का गुस्सा फूट पड़ता है जिसे देखकर साधू समझ जाता है कि अब भेद खोलने का समय आ गया है. वह तुरंत साधू का चोगा उतार कर अपनी यूनीफ़ॉर्म में आ जाता है. माँ और रामी उसे देखकर अचंभित हो जाते हैं और इस तरह सालों से लापता बेटा अपनी माँ और एक पति अपनी पत्नी से मिलता है. रामी बौराणी की इस लोक गाथा को गोपाल बाबू गोस्वामी से लेकर बीना तिवारी तक अपनी आवाज में गा चुके हैं जिसके बोल हैं:
बाठ गोडाई क्या तेरो नौं च,
बोल बौराणी कख तेरो गौं च?
बटोई-जोगी ना पूछ मै कू,
केकु पूछदि क्या चैंद त्वै कू?
रौतू की बेटी छौं रामि नौ च
सेटु की ब्वारी छौं पालि गौं च।
मेरा स्वामी न मी छोड़ि घर,
निर्दयी ह्वे गैन मेई पर।
इसी तरह की और भी गाथाएं हैं जो मुख्यधारा में उतनी चर्चित नहीं हुई लेकिन उन्हें कई इतिहासकारों और साहित्यकारों ने सहेज कर रख लिया. जैसे, भजन सिंह ‘सिंह’.
गढ़वाली कवि भजन सिंह ‘सिंह’ ने वीर वधु नाम का गीत 1930 में अपनी पुस्तक ‘सिंहनाद’ में प्रकाशित किया. गढ़वाली साहित्य में इनके योगदान को देखते हुए 1925 से 1950 का कालखंड सिंहयुग कहा जाता है. दिलचस्प बात तो ये है कि उन्होंने खुद द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ा था और अपने अनुभव के बारे में लिखा भी था.
‘वीर वधू’ कविता, गढ़वाली खण्ड-काव्य है. यह 1915 के लाम के दौरान, राठ क्षेत्र के गोठ गाँव के सैनिक अमरसिंह की वीरांगना पत्नी की सत्यकथा पर आधारित है. गीत के पहले सर्ग में फ्रांस में हुए युद्ध में अमरसिंह के शहीद होने का वर्णन है और दूसरे सर्ग में उसकी पत्नी देवकी की वीरता के बारे में बताया गया है. गाँव के किसी छोर पर मकान में रहने वाली देवकी एक दिन हींग बेचने वाले एक पठान को घर के निचले खण्ड में रात भर के लिए आश्रय देती है. अकेली महिला सोचकर पठान रात में दरवाजा तोड़कर देवकी का शीलभंग करने का प्रयास करता है. ऐसे में देवकी तकिये के नीचे रखी खुखरी निकालकर पठान पर हमला करती है और उसे वहीं मार गिराती है. इस लम्बे काव्य-खंड के कुछ बोल हैं:
फ्रांस की भूमि जो खून से लाल छ।
उख लिख्यूं खून से नाम गढ़वाल छ।
रैंदि चिंता बड़ौं तैं बड़ा नाम की।
काम की फिर्क रैंदी, न ईनाम की।
‘राठ’ मा गोठ गौं को अमरसिंह छयो।
फ्रांस को लाम मा भर्ति ह्वै की गयो।
ज्यौं करी घर मूँ, लाम पर दौड़िगे।
फ्रांस मां, स्वामि का काम पर दौड़िगे।
नाम लेला सभी माइ का लाल को।
जान देकी रखे नाम गढ़वाल को।
शास्त्र मा कृष्ण जी को लिख्यूँ साफ छ।
धर्म का वास्ता खून भी माफ छ।
न्याय का वास्ता सैरि दुनिया लड़े।
भाइ तें भाइ को खून करनो पड़े।
आतमा अमर छ, बीर नी मरदन।
शोक ऊँ कू किलै खामखाँ करदन।
रणम करन से मिलदो स्वर्ग-धाम छ।
जीत ह्वैगे त होन्दो अमर नाम छ।
भार्या वे कि छै देवकी नाम की।
वा सती छै बड़ी भक्त ही राम की।
स्वामिजी तब बटी लाम पर ही रया।
चिट्ठी भी वो कभो भेजदा ही छया।
जब कभी स्वामि की चिट्ठी आंदी छई।
देवकी वींवीं सब्यूं मू पढ़ांदी छई।
चिट्ठी सुणी खुशी हूँदि दै देवसु।
स्वामि की याद से रुंदि छै देवकी।
सासु-ससुरा कि सेवा म रांदी छई।
कै का मुख पर नजर नी लगांदी छई।
स्वामि का नाम को व्रत लेंदी छई।
भूखा-प्यासौं तई भीख देंदी छई।
जब कभी स्वामि की याद आंदी छई।
रात-दिन रुंदि रुंदि बितांदी छई।
स्वामिजी छन म्यरा फ्रांस की लाम मा
घर छौं भी अफू लोलि आराम मा।
वो न जाणे कया कष्ट सहणा छन?
या कखी भूखा-प्यासा हि रहणा छन।
विश्व युद्ध में शहीद हुए ऐसे कई वीर रहे होंगे, जिनके अनुभवों को गीतों के माध्यम से उकेरा गया होगा, लेकिन अफसोस कि उनकी गाथाओं या उनपर लिखे गीतों को संकलित नहीं किया जा सका. हालांकि आगे चलकर हमारे कवियों ने उन पर काफी रचनाएं की, लेकिन पुरखों के रचे लोकगीत जो दशकों और सदियों की यात्राएं तय करते हुए हम तक पहुँच पाते हैं, उनकी बात ही अलग होती थी.
स्क्रिप्ट: प्रियंका गोस्वामी
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