साल 2014. उत्तराखंड की कुल देवी मां नंदा की हर 12 साल में होने वाली राज जात यात्रा गतिमान थी. देवी की डोली चमोली के वाण गांव में तय दिन को पहुंच चुकी थी और यहां से वे यात्री भी इसमें शामिल हो गये थे, जो मोटर रोड से जुड़े इस आखिरी गांव तक गाड़ियों से पहुंचे थे. अगले दिन तड़के पूजा अनुष्ठान के साथ माँ नंदा की डोली वाण गांव से आगे बढ़ी और रणधार होते हुए जैसे ही बेदनी बुग्याल पहुंची, देश की खुफिया एजेंसियों को इससे जुड़ी एक सूचना मिली. ये सूचना मिलते ही पूरे अमले में हड़कंप मच गया और यात्रा में आए हजारों श्रद्धालुओं के बीच कई गुप्तचर फैला दिये गए.
आम यात्रियों और श्रद्धालुओं को इसकी भनक तक नहीं थी कि उनके बीच कई ऐसे तत्व भी मौजूद हैं, जिनकी तलाश में देश के चोटी के जासूसों को यहां भेजा गया था. इन जासूसों को जिनकी तलाश में यहां भेजा गया था, वे चीन के एजेंट थे और ताकलाकोट मंडी से यारसा गुंबा की खोज में यहां तक पहुंचे थे. यारसा गुम्बा तिब्बती भाषा में कीड़ा जड़ी को कहते हैं जिसका वैज्ञानिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेन्सिस हैं. आपको जानकार आश्चर्य होगा कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में अच्छी क्वालिटी की कीड़ा जड़ी 25 लाख रूपये प्रति किलो तक बिकती है और इसकी खराब से खराब क्वालिटी की क़ीमत भी आठ लाख रूपये तक होती है. आखिर क्या है ये कीड़ा जड़ी, इसकी क्या खूबियाँ हैं जो इसकी क़ीमत लाखों में है, इन खूबियों में बारे में दुनिया ने कब और कैसे जाना और इसे हासिल करना आखिर इतना कठिन क्यों है? इन तमाम सवालों से जवाब आपको मिलेंगे हमारे आज के इस एपिसोड में.
काम की बात शुरू करने से पहले आपको कुछ याद दिलाना है. आज से 15 साल पहले यानी साल 2008 में ओलंपिक खेलों का आयोजन पहली बार चीन में हुआ था. चीन ने इस आयोजन में सबसे ज्यादा 48 गोल्ड मेडल समेत कुल 100 पदक जीते और 87 देशों की इस प्रतिस्पर्धा में वो सर्वोच्च रहा, अमेरिका दूसरे स्थान पर. चीन की जीत में सबसे ज्यादा गोल्ड उन प्रतिस्पर्धाओं में आए थे, जिनमें मुख्य रूप से इंसान के स्टेमिना या कार्डियोवास्कुलर सिस्टम को दमखम दिखाना होता है. जैसे मेराथन, लंबी दूरी की दौड़, मिड डिस्टेंस आदि. वैसे तो स्टेमिना या शरीर की क्षमता बढ़ाने के लिए पूर्व में कई खिलाड़ी प्रतिबंधित ड्रग्स का उपयोग करते रहे हैं, लेकिन ऐसे खिलाड़ी एंटी-डोपिंग जांच में फंस जाया करते थे. शारीरिक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिबंधित दवाओं के सेवन को डोपिंग कहा जाता है. लेकिन चीन ने इस जांच से बचने के लिए एक नया ही तरीक़ा खोज निकाला था. वहां के खिलाड़ी एक के बाद एक गोल्ड जीत रहे थे और उनमें से कोई भी डोपिंग में भी नहीं फंसा. इसी दौरान कुछ-कुछ यूरोपियन मीडिया संस्थानों में ये खबरें ब्रेक हुई कि तिब्बत से लगते हिमालय में एक ऐसा मृत कीड़ा पाया जाता है, जिसको खाने से इंसानी ताकत तीन गुना तक बढ़ जाती है और खून की जांच होने पर उसका पता भी नहीं चलता है. इन खबरों से दुनिया भर में हड़कंप मचा लेकिन चीन ने इसे पश्चिमी देशों का प्रॉपगैंडा बताते हुए नकार दिया.
बहरहाल, दोनों तरफ के आरोप और प्रत्यारोप के बाद दुनिया का ध्यान यारसा गुम्बा यानी कीड़ा जड़ी की तरफ गया और संसार भर की फ़ार्मसी कंपनियों ने अपने एजेंट इस स्पेशल कीड़ा जड़ी को हासिल करने के लिए दौड़ा दिए ताकि इस पर आगे का शोध किया जा सके और इससे बनाए गए प्रोडक्ट से जमकर मुनाफा कमाया जा सके.
इस किस्से को सुनकर आपको ये तो मालूम चल ही गया होगा कि कीड़ा जड़ी आखिर क्या जादुई बला है. दिलचस्प ये भी है कि पूरी दुनिया में सिर्फ़ तीन ही देश हैं जहां कीड़ा जड़ी पाई जाती है. भारत, तिब्बत और नेपाल. असल में ये हिमालय शृंखलाओं के दोनों तरफ फैले उस इलाक़े में पाई जाती है, जहां की उंचाई समुद्र तल से 3200 से 4000 मीटर तक होती है. न तो कीड़ा जड़ी इस ऊँचाई से ऊपर के इलाकों को में मिलती है और न ही इससे नीचे के इलाकों में. इस जड़ी के अवैध व्यापार की सबसे बड़ी मंडी है ताकलाकोट, जो पिथौरागढ़ जिले से लगती तिब्बत सीमा के बिल्कुल नज़दीक है.
ताकलाकोट को तिब्बत में पुरंग और चीन में बुरंग नाम से जाना जाता है. पूरी दुनिया में सिर्फ़ यही एक क़स्बा है जहां कीड़ा जड़ी का सबसे बड़ा अवैध व्यापार होता है. पूरी दुनिया से अंतरराष्ट्रीय तस्कर इस जादुई जड़ी के लिए यहां पहुंचते है. इसीलिए यहां अब कई महंगे होटल, पब और कसीनो भी खुल चुके हैं जो तस्करों के मनोरंजन के लिये चौबीसों घंटे खुले रहते हैं. वैसे उत्तराखंड के जोहार और व्यांस घाटी के कई व्यापारी भी यहां व्यापार करने जाते हैं, लेकिन उनका व्यपार कीड़ा जड़ी का नहीं बल्कि स्थानीय उत्पादों का होता है. हालांकि ये वैध व्यापार भी चार साल से बंद है जिसके चलते कई भारतीय व्यापारियों का ताकलाकोट मंडी में एक करोड़ से ज्यादा का माल फंसा हुआ है. वो इसलिए कि साल 2019 में जो व्यापारी अपना सामान बेचने के ताकलाकोट गए थे, वापसी में उन्होंने अपना वो सारा सामान वहीं छोड़ दिया जो बिक नहीं सका था. इस उम्मीद के साथ कि अगले साल तो आना ही है. लेकिन कोरोना की पहली लहर में चीन ने जो सीमा बंद की, वो अभी तक नहीं खुली. लिहाजा, पिथौरागढ़ के कई व्यापारियों का एक करोड़ से उपर का सामान वहां अब तक फंसा हुआ है.
बहरहाल, वापस लौटते हैं कीड़ा-जड़ी यानी कॉर्डिसेप्स साइनेन्सिस पर. वनस्पति विज्ञान की दुनिया में इसे कीटपोषी फफूंद के रूप में स्कोलीकॉस्पोरेसी कुल के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है. प्राथमिक रूप से हिमालय के सब-एल्पाइन क्षेत्र में 3200 से 4000 मीटर तक पाई जाने वाली यह फफूंद हैपिएलस प्रजाति के परजीवी पर चिपककर पोषण प्राप्त करती है और साथ ही उसे संक्रमित भी करती है. इससे आगे की प्रक्रिया तो और भी ज्यादा रोचक है. ये फफूंद जिस परजीवी से चिपक जाती है, उसे मार देती है और उसके सिर पर छेद कर लगभग 7 से 10 सेमी लंबी फ्रूटिंग बॉडी विकसित करता है.
फफूंद का यही भाग जमीन से ऊपर निकलता है और बर्फ़ की चादर के नीचे दबा रहता है. गर्मियों तक ये फफूंद किसी बीज से निकले अंकुर की तरह दिखने लगती है. इसी कारण से स्थानीय लोगों ने इसे कीड़ा घास या कीड़ा जड़ी कहा होगा. प्रकृति के इस बेहद जटिल खेल में भूमिगत कीट मरकर भी अपशिष्ट में नहीं बदलता क्योंकि इस दौरान जीवित फफूंद मर चुके परजीवी के शरीर में पोषक तत्व डालती रहती है जो इसे सड़ने से रोकता है.
इतिहासकारों के साथ ही वैज्ञानिकों का मानना है कि यारसा गुम्बा की खोज आज से लगभग 1500 साल पहले तिब्बती चरवाहों ने की थी. चरवाहों ने देखा था कि उनके खच्चर और याक एक विशेष मौसम में एक घास रूपी फफूंद को खाकर अत्यधिक ऊर्जावान हो जाते हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चरवाहों की इस वनस्पति में रुचि बढ़ती गई और वे इस रहस्य को सुलझाने के करीब आते चले गए. पहाड़ में छपे एक शोधपत्र में चंद्र सिंह नेगी व लोकेश डसीला बताते हैं कि आज से क़रीब पांच सौ साल पहले मिंग साम्राज्य के राज वैद्य ने इस जड़ी से एक शक्तिशाली अर्क बनाने का तरीका लगभग ईजाद कर लिया था. कालान्तर में परम्परागत चीनी चिकित्सकों ने इस अर्क की मिठास भरी गर्म तासीर के औषधीय प्रभाव की खोज जारी रखी. उनका मानना था कि इस औषधि के तत्व शरीर में गुर्दों के माध्यम से प्रवेश करते हैं और गुर्दों के साथ-साथ फेफड़ों को भी दुरुस्त बनाते हैं. इसके अलावा खाँसी, दमा, नपुंसकता, ऐंठन, जोड़ों के दर्द और लम्बी बीमारी की दुर्बलता का इलाज भी इसकी महज कुछ ही खुराकों से संभव है.
वर्तमान में भी इसे एक औषधीय पेय के रूप में विकसित किया जाता है जिसके सेवन से शारीरिक दुर्बलता की क्षतिपूर्ति होती है, शरीर क्षमतावान बनता है. यह कीट-वनस्पति दवा न होकर एक पूरक खाद्य ही है जिसे उच्च हिमालय के लोग गोश्त के साथ पकाकर भी खाते हैं. यारसा गुम्बा के रासायनिक विश्लेषण बताते हैं कि इसमें विटामिन बी12, मेनिटॉल, कॉर्डिसेपिक अम्ल, इरगोस्टीरॉल और 25 से 32 प्रतिशत कॉर्डिसेपिन और डीआक्सीएडेनोसीन पाया जाता है. वर्तमान में यारसा गुम्बा से कई एनर्जी ड्रिंक्स भी बनाई जाती है, जिसके लिए कॉडिसेप्स की अन्य प्रजातियों का उपयोग किया जाता है.
उत्तराखंड में अब तक कीड़ा जड़ी सिर्फ़ सीमांत जनपद पिथौरागढ़ और चमोली में ही पाई गई है. इससे हजारों लोगों का रोजगार भी जुड़ा हुआ है लेकिन इसके पीछे अवैध व्यापार भी बहुत बड़ा है. पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी और धारचूला तहसील से लगे हिमालयी बुग्यालों में कीड़ा जड़ी मिलती है. ये इलाका 9 हजार से 14 हजार फीट की ऊंचाई पर बसा है जहां के बुग्याल कीड़ा जड़ी उगने के लिए आदर्श स्थितियां उपलब्ध करवाते हैं. इसका दोहन काल अप्रैल से शुरू होता है. सीमांत के लोगों को पूरे साल इस समय का इंतजार रहता है. वे अपनी टोली के साथ टैंट और बाकी सामान लेकर तय समय पर बुग्यालों में कीड़ा जड़ी निकालने पहुंच जाते हैं.
लेकिन इस साल हालत ये है कि 90 दिन से अधिक समय तक कड़ाके की ठंड और बर्फबारी के बीच रहने के बाद भी कई लोग 500 ग्राम यारसा गुंबा भी नहीं खोज पाए. इसे बीनने के विशेषज्ञ जुम्मा गांव के चंदन सिंह के अनुसार, ‘अप्रैल से लगातार अब तक बुग्याल और उच्च हिमालय में बर्फबारी हो रही है. इसलिए कीड़ा जड़ी का उत्पादन इस साल बेहद कम हुआ है. मुझे याद नहीं आज से पहले इतने बुरे हालात कब हुए थे. इस साल तो रोटी की चिंता सता रही है. अब लोग वापस लौटने लगे हैं.’
स्थानीय ठेकेदार महेश सिंह के अनुसार, ‘यारसा गुंबा का उत्पादन कम हो रहा है. साल 2019 में इलाके में 356 किलो यारसा गुंबा का उत्पादन हुआ था. साल 2020 में यह उत्पादन गिरकर 200 किलो तक आ गया. बीते दो सालों से हर साल दो से ढाई क्विंटल तक का औसत उत्पादन रहा है. पर इस साल तो 40 किलो उत्पादन भी नहीं हुआ है. इस बार पहली बार इतना निराश होना पड़ा है.’
स्क्रिप्ट : मनमीत
© Copyright baramasa.in